Jivitputrika Vrat: वंश की रक्षा के लिए जीवित्पुत्रिका व्रत को करती हैं महिलाएं, जानिए इसकी पौराणिक कथा
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Jivitputrika Vrat: वंश की रक्षा के लिए जीवित्पुत्रिका व्रत को करती हैं महिलाएं, जानिए इसकी पौराणिक कथा

Religion news: इस व्रत के बारे में सबसे पहले भगवान शंकर ने माता पार्वती को कैलाश पर्वत पर बताया था. जीवत्पुत्रिका व्रत आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में अष्टमी के दिन किया जाता है. आइए बताते हैं इसके पीछे की पौराणिक कथा.

Jivitputrika Vrat: वंश की रक्षा के लिए जीवित्पुत्रिका व्रत को करती हैं महिलाएं, जानिए इसकी पौराणिक कथा

Jivitputrika vrat katha: जीवत्पुत्रिका व्रत आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में अष्टमी के दिन किया जाता है. इस व्रत को पुत्रवती स्त्रियां अपने पुत्र के जीवन की रक्षा के लिए करती हैं. महिलाओं के बीच इस व्रत का बहुत महत्व और सम्मान है. महिलाएं इस व्रत को निर्जला रह कर करती हैं और चौबीस घंटे के उपवास के बाद ही पारण करती हैं. आश्विन कृष्ण पक्ष अष्टमी के दिन किए जाने इस व्रत की तैयारी एक दिन पहले सप्तमी को ही शुरु हो जाती है. सप्तमी के दिन उड़द की दाल भिगोई जाती है, कुछ परिवार इसमें गेहूं भी मिला देते हैं. अष्टमी के दिन व्रती स्त्रियां उनमें से कुछ दाने साबुत ही निगल जाती हैं और इसके बाद न ही कुछ खाया जाता है ना ही पानी पिया जाता है. इस दिन उड़द और गेहूं के दान का बहुत महात्म्य है.

भगवान शंकर ने सुनाई थी महिमा

इस बार यह व्रत 6 अक्टूबर को मनाया जाएगा. इस व्रत के बारे में सबसे पहले भगवान शंकर ने माता पार्वती को कैलाश पर्वत पर बताया था. कथा के अनुसार आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन जो महिलाएं व्रत रख कर कथा सुनती हैं और आचार्य को दान दक्षिणा आदि देकर विदा करती हैं, उनका परिवार पुत्र पौत्रों से पूर्ण होता है. उनको लंबी आयु मिलती है और वह निरोगी रहती है. 

इस प्रकार है व्रत की कथा 

गंधर्वों के राजकुमार का नाम जीमूतवाहन था, उनके पिता वृद्धावस्था में उन्हें राजपाट देकर वानप्रस्थ आश्रम के लिए जंगल को चले गए. इधर राजपाट में मन न लगने और पिता की सेवा को आतुर जीमूतवाहन अपने भाइयों को राज्य की जिम्मेदारी सौंप कर जंगल में पिता की सेवा के लिए चल पड़े. वहीं उन्हें राजकन्या मलयवती मिली जिससे उन्हें प्रेम हो गया. इसी बीच वन में भ्रमण करते जब काफी दूर निकल गए तो उन्हें एक महिला विलाप करते हुए मिली, पूछने पर महिला ने बताया कि पक्षीराज गरुड़ को रोजाना एक बलि दी जाती है और उनके एकमात्र पुत्र शंखचूड़ सांप का नंबर है. इस पर जीमूतवाहन ने कहा कि माता आप न रोएं, शंखचूड़ के स्थान पर मैं जाऊंगा. वह नियत स्थान पर लाल चादर ओढ़ कर लेट गए. निश्चित समय पर पहुंच कर गरुड़ ने जीमूतवाहन पर चोंच से प्रहार किया किंतु वह शांत लेटे रहे. गरुड़ को आश्चर्य हुआ तो उन्होंने चोंच मारना बंद कर दिया. वह रुककर कुछ विचार करने लगे, तब जीमूतवाहन ने कहा कि आपना मुझे खाना क्यों बंद कर दिया, अभी भी मेरे शरीर में रक्त और मांस है. पक्षिराज गरुड़ ने राजा को पहचान लिया और घोर पश्चाताप करते हुए क्षमा के साथ वर मांगने को कहा, राजा ने कहा कि यदि आप कुछ देना चाहते हैं तो अब तक जितने भी सापों को मारा है उन सबको जीवित कर आगे से न खाने की प्रतिज्ञा करें. गरुड़ ने तथास्तु कह कर अपने वचन का धर्म निभाया. तब तक राजकुमारी मलयवती को लेकर उसके पिता भी वहां पहुंच गए और उन्होंने अपनी कन्या से राजा जीमूतवाहन का विवाह कर दिया. जीमूतवाहन के अदम्य साहस से नागों के वंश की रक्षा होने के उपलक्ष्य में माताएं यह व्रत करती हैं.

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