मकर संक्रांति 2019: जानें क्यों मनाते हैं संक्रांति, क्या हैं इसके मायने ?
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मकर संक्रांति 2019: जानें क्यों मनाते हैं संक्रांति, क्या हैं इसके मायने ?

मकर संक्रांति को तमिलनाडु में पोंगल के रूप में मनाया जाता है तो, कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश में इसे केवल 'संक्रांति' कहते हैं

ऐसी भी मान्यता है कि सूर्य के उत्तरायण में होने का अर्थ मोक्ष का द्वार खुलना है.(फाइल फोटो)

नई दिल्ली: मकर संक्रांति हिंदू संस्कृति का एक प्रमुख पर्व है जो जनवरी महीने की 14 तारीख को मनाया जाता है. देश के हर कोने में इसे किसी न किसी रूप में जरूर मनाया जाता है. मकर संक्रांति को तमिलनाडु में पोंगल के रूप में मनाया जाता है तो, कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश में इसे केवल 'संक्रांति' कहते हैं. बता दें पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है तभी इस पर्व को मनाया जाता है. बता दें मकर राशि में सूर्य उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के अंतिम तीन चरण, श्रवण नक्षत्र के चारों चरण और धनिष्ठा नक्षत्र के दो चरणों में भ्रमण करते हैं. पौराणिक मान्यताओं के अनुसार उत्तरायण के सूर्य के 6 माहों में देवताओं का एक दिन पूर्ण होता है. ऐसी भी मान्यता है कि सूर्य के उत्तरायण में होने का अर्थ मोक्ष के द्वार खुलना है. महाभारत में भी दिखाया गया है कि भीष्म पितामह शरीर से क्षत-विक्षत होने के बावजूद मृत्यु शैया पर लेटकर प्राण त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश का इंतजार कर रहे थे.

  1. कर्नाटक, केरल और आंध्र प्रदेश में इसे केवल 'संक्रांति' कहते हैं
  2. सूर्य के मकर राशि में प्रवेश के कारण इसे मकर संक्रांति कहते हैं.
  3. मकर संक्राति उत्तरायण काल का प्रारंभिक दिन है

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संक्रांति के दिन होता है सूर्य का उत्तरायण
बता दें सूर्य 6 माह दक्षिणायन और 6 माह उत्तरायण में भ्रमण करता है. सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश के कारण इसे मकर संक्रांति कहते हैं. मकर संक्राति उत्तरायण काल का प्रारंभिक दिन है इसलिए इस दिन किया गया दान, पुण्य, अक्षय फलदायी होता है. मकर संक्रांति सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश का सूचक है.

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व्रत विधि
संक्रांति व्रत की विधि के अनुसार स्नान के बाद अक्षत का अष्टदल कमल बनाकर सूर्य की प्रतिमा या तस्वीर की स्थापना कर पूजन करना चाहिए. यह व्रत निराहार, साहार यथाशक्ति किया जा सकता है, जिससे पापों का क्षय हो जाता है और समृद्धि का मार्ग प्रशस्त होता है. संक्रांति पर देवों और पितरों को कम से कम तिलदान अवश्य करना चाहिए. सूर्य को साक्षी रखकर यह दान किया जाता है, जो अनेक जन्मों तक सूर्यदेव दान देने वाले को लौटाते रहते हैं.

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इसके लिए तीन पात्रों में भोजन रखकर- श्याम, रुद्र एवं धर्मश् के निमित्त दान दिया जाता है. अपनी सामर्थ्य के अनुरूप दान करना चाहिए. उत्तरायण काल को प्राचीन ऋषि मुनियों ने पराविद्याओं, जप, तप, सिद्धि प्राप्त करने के लिए महत्त्वपूर्ण माना है. इस अयण में नूतन गृह प्रवेश, दीक्षा ग्रहण, देवता, बाग, कुआँ, बाबडी, तालाब आदि की प्रतिष्ठा, विवाह, चूडाकर्म और यज्ञोपवीत संस्कार करना शुभ माना जाता है. 

सौ गुना बढ़कर मिलता है दान
शास्त्रों के अनुसार, दक्षिणायन को देवताओं की रात्रि यानि नकारात्मकता का प्रतीक और उत्तरायण को देवताओं का दिन अर्थात सकारात्मकता का प्रतीक माना गया है. इसीलिए इस दिन जप, तप, दान, स्नान, श्राद्ध, तर्पण आदि धार्मिक क्रियाकलापों का विशेष महत्व है. धारणा है कि इस अवसर पर दिया गया दान सौ गुना बढ़कर पुन: प्राप्त होता है.

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