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Tulsidas Became Monk: विलक्षण परिस्थितियों में जन्मे बालक रामबोला यानी रामचरित मानस ग्रंथ (Ramcharit Manas Granth) के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने वेद-वेदांग आदि का ज्ञान प्राप्त किया. लोक वासना जाग्रत होने के बाद काशी में अपने विद्यागुरू शेष सनातन जी से आज्ञा लेकर वे अपने गांव राजापुर में लौट आए. यहां पर जब उन्होंने देखा कि पूरा परिवार ही नष्ट हो चुका है तो उन्होंने पिता जी आदि का श्राद्ध कर्म किया और वहीं रह कर रामकथा कहने लगे. यहीं पर रहते हुए उनका विवाह एक सुंदर स्त्री से हो गया. एक बार उनकी पत्नी (Wife) अपने भाई के साथ मायके चली गई तो तुलसीदास भी पीछे से वहां पहुंच गए.
पीछे-पीछे अपने पति को आता देख उन्होंने तुलसीदास को बहुत धिक्कारा और भला बुरा कहा. उन्होंने कहा कि हाड़ मांस से इस शरीर में तुम्हारी जितनी आसक्ति है, उससे आधी भी यदि भगवान में होती तो तुम्हारा बेड़ा पार हो गया होता. पत्नी के शब्द बाण की तरह तुलसीदास (Tulsidas) को चुभ गए. बस वे बिना एक क्षण भी रुके लौट पड़े और वहां से चलकर प्रयागराज पहुंच गए. प्रयागराज में उन्होंने गृहस्थ वेश त्याग कर साधु वेश ग्रहण कर लिया. फिर तीर्थाटन करते हुए काशी पहुंचे. मानसरोवर में उन्हें काकभुशुंडि जी के दर्शन हुए.
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बाद में वे जगह-जगह रामकथा कहने लगे, जहां प्रेत से हनुमान जी का पता मिला और हनुमान जी (Hanuman Ji) ने चित्रकूट में दो बार श्री राम और लक्ष्मण जी के दर्शन कराए. पहली बार तो तुलसीदास अपने प्रभु श्री राम को पहचान ही नहीं सके किंतु दूसरी बार जब श्री राम उनके सामने आए तो तोते के रूप में हनुमान जी ने वहां पहुंच कर कहा, चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीर. तुलसीदास चंदन घिसें तिलक देत रघुबीर. इसके बाद भगवान शंकर और पार्वती जी ने उन्हें दर्शन देकर आज्ञा दी कि तुम अयोध्या में जाकर रहो और हिंदी में काव्य रचना करो, मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सर्वव्यापी होगी. भगवान शंकर की आज्ञा पाकर तुलसीदास जी काशी से अयोध्या आ गए और संवत 1631 में रामनवमी (Ramnavami) के दिन राम चरित मानस की रचना शुरू की. दो वर्ष सात माह और 26 दिनों में ग्रंथ की समाप्ति 1633 में मार्गशीर्ष शुक्लपक्ष में राम विवाह के दिन हुई जब से सातों कांड लिख सके.
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मानस की रचना करने के बाद भगवान की आज्ञा से तुलसीदास काशी आ गए और लोगों को रामचरित मानस की कथा सुनाने लगे. लोगों को सुनाते-सुनाते उनके मन में विचार आया कि जिनकी आज्ञा से वे अयोध्या पहुंचे और उन्होंने इतनी सुंदर पुस्तक की रचना की है, क्यों न उन्हीं भगवान शंकर को वह कथा सुनाई जाए. बस वे रामचरित मानस (Ramcharit Manas) लेकर काशी विश्वनाथ मंदिर में पहुंच गए और भगवान विश्वनाथ तथा मां अन्नपूर्णा को श्री रामचरित मानस सुनाया. मानस पाठ के बाद पुस्तक मंदिर के अंदर रख दी गई. सुबह मंदिर का पट खोला गया तो उस पर सत्यम शिवम सुंदरम लिखा हुआ पाया गया. यह देखकर सब लोग चकित रह गए. उस समय मंदिर में उपस्थित लोगों ने सत्यम शिवम सुंदरम (Satyam Shivam Sundaram) की आवाज भी सुनी. इस बात की चर्चा दूर-दूर तक हो गई तो उस समय के कुछ विद्वान पंडित उनसे ईर्ष्या करने लगे.
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