एक परमाणु भी पक्षी का रंग बदल सकता है, लाखों सालों में आता है ऐसा बदलाव; मिल गई नई प्रजाति के विकास की कुंजी
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एक परमाणु भी पक्षी का रंग बदल सकता है, लाखों सालों में आता है ऐसा बदलाव; मिल गई नई प्रजाति के विकास की कुंजी

Science News in Hindi: इस रंग-बिरंगी दुनिया में पक्षी सबसे रंगीन हैं. किसी अन्य तरह के प्राणियों के रंगों में इतनी भिन्नता देखने को नहीं मिलती. आखिर पक्षी अलग-अलग रंग के क्यों होते हैं? एक नई रिसर्च में वैज्ञानिकों ने इस सवाल का जवाब देने की कोशिश की है.

एक परमाणु भी पक्षी का रंग बदल सकता है, लाखों सालों में आता है ऐसा बदलाव; मिल गई नई प्रजाति के विकास की कुंजी

Science News: पूरे जंतु जगत में पक्षी सबसे रंगीन जीवों में से एक हैं. लेकिन इतने सारे रंगों वाले पक्षी अलग अलग कैसे होते हैं? चमकीले लाल, नारंगी और पीले पंख या चोंच वाले लगभग सभी पक्षी अपने रंग उत्पन्न करने के लिए कैरोटीनॉयड नामक पिगमेंट के समूह का उपयोग करते हैं. लेकिन, ये पक्षी सीधे तौर पर कैरोटीनॉयड नहीं बना सकते. उन्हें अपने आहार में पौधों से ये तत्व प्राप्त करने होते हैं. तोते इस नियम के अपवाद हैं, जिन्होंने रंगीन रंगद्रव्य बनाने का एक बिल्कुल नया तरीका विकसित किया है, जिसे ‘सिटाकोफल्विन’ कहते हैं.

वैज्ञानिकों को इन विभिन्न रंगों के बारे में कुछ समय से जानकारी है, लेकिन पक्षियों द्वारा रंग में भिन्नता लाने के लिए इनका उपयोग करने के पीछे के जैव-रासायनिक और आनुवंशिकी आधार को लेकर उनकी समझ अभी सीमित है. हालांकि, तोते और ‘फिंच’ (रंग बिरंगी छोटी चिड़ियों की प्रजाति) के बारे में हाल ही में किए गए दो अलग-अलग अध्ययनों ने इस रहस्य पर महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान की है.

एक अध्ययन ‘करेंट बायोलॉजी’ में प्रकाशित हुआ है जिसका नेतृत्व हममें से एक (डैनियल हूपर) ने किया था. दूसरे अध्ययन का नेतृत्व पुर्तगाली जीवविज्ञानी रॉबर्टो अबोरे ने किया और उसे ‘साइंस’ पत्रिका में प्रकाशित किया गया. दोनों अध्ययन संयुक्त रूप से इस संबंध में हमारी समझ को आगे बढ़ाते हैं कि पक्षी किस प्रकार खुद को रंगीन प्रस्तुत करते हैं और ये गुण किस प्रकार विकसित हुए हैं.

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एकल एंजाइम

इन दोनों नए अध्ययनों में अंतरराष्ट्रीय अनुसंधानकर्ताओं की बड़ी टीम शामिल थीं. उन्होंने आनुवंशिक अनुक्रमण में हाल ही में हुई प्रगति का उपयोग यह जांचने के लिए किया कि जीनोम (जंतु के डीएनए का पूरा सेट) के कौन से क्षेत्र तोते और फिंच में प्राकृतिक पीले से लाल रंग के बदलाव को निर्धारित करते हैं.

उल्लेखनीय है कि पक्षियों के ये दोनों समूह अलग-अलग पिगमेंट का इस्तेमाल कर अपने रंगों को प्रदर्शित करते हैं लेकिन वैज्ञानिकों ने पाया कि उनका विकास एक ही तरह से हुआ है.

अबोरे ने अपने अनुसंधान में तोते की एक प्रजाति डस्की लॉरी (स्यूडियोस फ्यूस्काटा) पर अध्ययन किया, जो मूल रूप से न्यू गिनी में पाया जाता है और उसके पंखों की पट्टियां पीले, नारंगी या लाल रंग की होती हैं. अनुसंधान में पाया गया कि पंखों के पीले और लाल रंग में परिवर्तन एएलडीएच3ए2 नामक एंजाइम से जुड़ा है. यह एंजाइम तोते के लाल पिगमेंट को पीले रंग में परिवर्तित कर देता है. पंखों के बढ़ने के दौरान एंजाइम की मात्रा अधिक होने पर वे पीले हो जाते हैं; और जब एंजाइम की मात्रा कम होती है, तो वे लाल हो जाते हैं.

वैज्ञानिकों ने पाया कि एएलडीएच3ए2 एंजाइम तोते की कई अन्य प्रजातियों में भी रंग भिन्नता का कारण बनता है, जिनमें स्वतंत्र रूप से पीले से लाल रंग का बदलाव विकसित हुआ है.

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दो विशेष जीन

लंबी पूंछ वाली फिंच (पोफिला एक्यूटिकॉडा) उत्तरी ऑस्ट्रेलिया में पाई जाने वाली, पक्षी की एक प्रजाति है. अलग-अलग रंग की चोंच वाली इनकी दो संकर उप-प्रजातियां हैं. एक पीली चोंच वाली है जबकि दूसरी लाल चोंच वाली है.

पक्षियों द्वारा अपने आहार में ग्रहण किए जाने वाले अधिकतर कैरोटिनॉयड पिगमेंट (वर्णक) पीले या नारंगी रंग के होते हैं, इसलिए पक्षियों के शरीर को इन्हें खाने के बाद किसी न किसी तरह से इन पिगमेंट की रसायनिक संरचना में परिवर्तन करना पड़ता है, जिससे लाल रंग उत्पन्न होता है.

हूपर की टीम ने अनुसंधान के दौरान लंबी पूंछ वाले जंगली फिंच के सम्पूर्ण वितरण में इस विशेषता में भिन्नता, तथा मानक पक्षियों के जीनोम में भिन्नता का अध्ययन किया. इस दौरान ज्ञात हुआ कि इन फिन्च की चोंच का रंग मुख्यतः दो जीन सीवाईपी2जे19 और टीटीसी39बी से जुड़ा है.

ये दोनों जीन मिलकर आहार से प्राप्त पीले कैरोटिनॉयड को लाल कैरोटिनॉयड में परिवर्तित करते हैं. लंबी पूंछ वाले फिंच में पीला रंग उन उत्परिवर्तनों के कारण प्रतीत होता है जो विशेष रूप से चोंच में इन जीन संशोधन की प्रक्रिया को रोक देते हैं जबकि शरीर के अन्य हिस्सों जैसे आंखों में ये चालू रहता है.

इन रंग जीन के डीएनए कोड की अन्य फिंच प्रजातियों से तुलना करने पर अनुसंधानकर्ताओं ने यह भी पाया कि आधुनिक लंबी पूंछ वाले फिंच के पूर्वजों की चोंच लाल थी, लेकिन उत्परिवर्तित पीली चोंच धीरे-धीरे अधिक प्रचलित होती जा रही है.

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मद्धिम रोशनी की तरह करता काम

दोनों अनुसंधान यह दर्शाते हैं कि प्राकृतिक अवस्था में रह रहे जंतुओं में रंग किस प्रकार विकसित हो सकते हैं. तोते और फिंच दोनों में, पीले से लाल रंग में परिवर्तन के लिए जिम्मेदार उत्परिवर्तनों (म्यूटेंट) से संबंधित एंजाइम के कार्य में कोई परिवर्तन नहीं हुआ. इसके बजाय ये एंजाइम इससे प्रभावित हुए हैं कि वे कहां और कब सक्रिय थे. आसान शब्दों में इसे कमरे से पूरी तरह से रोशनी को हटाने के बजाय मौजूदा स्विच में ही रोशनी मद्धिम करने वाले बटन लगाने के तौर पर सोचें.

वैज्ञानिकों ने यह भी पाया कि प्राकृतिक आवास में पाये जाने वाले तोते और फिंच के केवल कुछ जीन में उत्परिवर्तन से पिगमेंट की रासायनिक संरचना में अहम बदलाव आ सकते हैं. यह इतना बदलाव हो सकता है कि लाल और पीले रंग में अंतर किया जा सके.

प्रमुख जीन एक एंजाइम की क्रिया की मदद से पिगमेंट अणु की रासायनिक संरचना को बदलते हैं जो पिगमेंट में ऑक्सीजन का सिर्फ एक परमाणु जोड़ता है . इससे तोते में इसका रंग चमकीले लाल से चमकीले पीले रंग में बदल जाता है, तथा फिंच में इसका विपरीत रंग चमकीले पीले से चमकीले लाल रंग में बदल जाता है.

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प्रकृति का करिश्मा

पक्षियों में रंग का विकास तब से आकर्षण का केंद्र बना जब चार्ल्स डार्विन ने प्राकृतिक चयन द्वारा विकास के अपने सिद्धांत को रेखांकित करने में इनका प्रयोग किया. आसपास मौजूद पक्षियों की प्रजातियों के करीबी रिश्तेदारों में सबसे अहम अंतर जो हम देखते हैं, वह है उनका रंग.

इन दो नए अध्ययनों से जानकारी सामने आई कि कैसे कुछ जीन और उस एक ऑक्सीजन परमाणु के जुड़ने से विकास की दिशा बदल सकती है, तथा एक नया रूप निर्मित हो सकता है जो देखने में बहुत ही अलग दिखाई देता है. यदि इससे विकासवादी दृष्टि से जंतु में सुधार होता है तो एक नई प्रजाति की उत्पत्ति हो सकती है जो शायद संभावित साथियों के लिए अधिक आकर्षक लगते हैं या अधिक अलग दिखते हैं.

यह कार्य हमें प्राकृतिक करिश्मे की याद दिलाता है और प्रदर्शित करता है कि विकास एक सतत प्रक्रिया है. प्रजातियों के संरक्षण के लिए हमें उनकी आनुवंशिक जटिलता को यथासंभव संरक्षित करने की आवश्यकता है. यहां तक उक्त प्रजाति के प्रत्येक सदस्य का जीनोम अद्वितीय होता है तथा प्रत्येक छोटी सी भिन्नता अतीत में लाखों वर्षों के विकास का परिणाम होती है. यह भविष्य में एक नयी प्रजाति के विकास की कुंजी भी हो सकती है.

(भाषा) (द कन्वरसेशन) (सिमोन ग्रिफिथ, मैक्वेरी यूनिवर्सिटी और डैनियल हूपर, अमेरिकन म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री)

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