श्रद्धांजलि अमृतलाल वेगड़ : आज नर्मदा निपूती हो गई...
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श्रद्धांजलि अमृतलाल वेगड़ : आज नर्मदा निपूती हो गई...

वेगड़जी के पीछे आज नर्मदा भी सोचती तो जरूर होगी कि आखिर यह उसका कैसा बेटा था, जो उससे कुछ नहीं मांगता था. न पानी, न रेत, न पुण्य, न मोक्ष. बस अपनी मां को निहारता था और उसके सौंदर्य को शब्दों में पिरोता रहता था...

श्रद्धांजलि अमृतलाल वेगड़ : आज नर्मदा निपूती हो गई...

अभी-अभी सूचना मिली कि अमृतलाल वेगड़ नहीं रहे. बुजुर्ग थे, बीमार भी थे, सबको जाना पड़ता है, जाना ही था, चले गए. लेकिन यह एक इंसान या एक चित्रकार या एक लाजवाब लेखक का निधन नहीं है. यह मां नर्मदा के ऐसे लाड़ले बेटे का जाना है, जो कहा करता था कि उसका जन्म ही नर्मदा यात्रा के लिए हुआ है. और वे जो कहते थे, वह जीते भी थे. उन्होंने अपने लेखन और चित्रांकन में नर्मदा की सभ्यता, संस्कृति, लोकाचार और न जाने कितनी परंपराओं को वक्त रहते पूरी शिद्दत से समेट लिया. वे इस काम को जितनी जल्दी हो सके, उतनी जल्दी पूरा करना चाहते थे, क्योंकि उन्हें साफ दिख रहा था कि आधुनिक विकास नाम का दैत्य बहुत तेजी से चला आ रहा है, जो नए बांधों की शक्ल में नर्मदा की संस्कृति और लोकजीवन को अपने भीतर समा लेगा. और हुआ भी ठीक वैसा ही. इसीलिए तो वेगड़ जी ने पत्नी के गहने तक बेच दिए, लेकिन नर्मदा यात्रा से समझौता नहीं किया.

वेगड़ जी से मेरी पहली मुलाकात सशरीर नहीं हुई थी. उनकी पतली सी किताब “सौंदर्य की नदी नर्मदा” के पाठक के रूप में हुई थी. वह किताब हमारे बीएससी के पाठ्यक्रम में हिंदी के फाउंडेशन कोर्स में नई-नई शामिल की गई थी. कहने को वह एक यात्रा वृत्तांत थी, लेकिन उसके शब्दों का जीवंत प्रवाह हरहराती नर्मदा जैसा ही था. चूंकि वेगड़ जी पेशेवर चित्रकार भी थे, इसलिए किताब में उन्होंने नर्मदा की संस्कृति के बहुत से रेखाचित्र भी बनाए थे. लेकिन अगर वे चित्र न भी होते, तो भी उनके शब्द ही चित्र खींचने के लिए काफी हैं.

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नदी, चांद, आदिवासी, गांव के लोग, तीज-त्योहार और सबसे बढ़कर दंतकथाएं, नर्मदा की कौन सी ऐसी चीज थी, जो वेगड़ जी ने सौंदर्य की नदी नर्मदा को अर्पित न कर दी हो. उस किताब में वे अपने आपको पूरा उलीच देना चाहते थे, ताकि कुछ छूट न जाए. और यह भी लिखते जाते थे कि अगली बार आऊंगा तो यह सब नहीं मिलेगा, यह सब नर्मदा में डूबने वाला है. इसलिए इस स्मृति को अमिट करने के लिए वे रेखाएं भी काढ़ देते थे. नदी किनारे नहाती, कुएं में पानी भरतीं गांव की महिलाएं, कहीं नदी में छपाके लगाते बच्चे, तो कहीं गांव के मंदिर की दालान में बिखरी चांदनी और आसमान में खेलता चांद. उनके जाने पर अब सबकुछ रह-रहकर याद आ रहा है.

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यह किताब पढ़ने के कई महीने बाद, भोपाल के एक्सीलेंस कॉलेज में एक दिन मैंने देखा कि एक छोटे कद का दुबला-पतला, सांवला-सा आदमी हिंदी के विभागाध्यक्ष डॉ. विजय बहादुर सिंह के साथ कैंपस में घूम रहा है. उसने बहुत चौड़ी मुहरी का पजामा और गहरे रंग का सूती कुर्ता पहना हुआ था, जो उत्तर और मध्य भारत के ग्रामीण इलाकों की ठेठ पहचान है. उस आदमी को लेकर बाकी प्रोफेसर भी सजग थे और बड़े अदब से उसे कलियासोत डैम के नीचे बने कॉलेज का खूबसूरत कैंपस घुमाया जा रहा था. करीब-करीब कॉन्वेंट कल्चर वाले उस इंग्लिश मीडियम कॉलेज में किसी देसी आदमी को इतने ज्यादा सम्मान से घुमाते देखना दिलचस्प लगा. बाद में जब डिपार्टमेंट में उनसे मुलाकात हुई, तो पता चला कि यही वेगड़ जी हैं.

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उनसे एक मुलाकात और याद आती है. बात 2001-02 की है. मध्यप्रदेश सरकार उन्हें राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान दे रही थी. शिखर सम्मान तो उन्हें कई साल पहले ही मिल चुका था. ठंड की उस शाम, मैं वेगड़ साहब और उनकी पत्नी के पीछे वाली कतार में जाकर बैठ गया. सामान के नाम पर उनके पास एक झोला था. उसी में उनके कपड़े रखे थे. दोनों पति-पत्नी किसी सामान के होटल में छूट जाने से परेशान थे. शायद कोई दवाई छूट गई थी. फिर माताजी ने झोले से हाथ से बुना स्वेटर निकाला. वेगड़जी ने स्वेटर में अपनी बांहें डालीं तो कुर्ते की बांह कुछ ऊपर चढ़ गई. थोड़ी मशक्कत के बाद वेगड़ साहब ने अपने कुर्ते के ऊपर उसे धारण कर लिया. गांव के गरीब आदमी की वेशभूषा पूरी हो गई थी, अब वे तैयार थे. गांधी के आखिरी आदमी के सौंदर्य के साथ. दर्शकों में कुछ लोग उन्हें एक ऐसे आदमी की तरह देख रहे थे, जो राजसभा के तौर-तरीकों में खलल डाल रहा हो. लेकिन वेगड़ दंपति को इस बात से क्या फर्क पड़ने वाला था.

उसके बाद पुरस्कार बंटने शुरू हुए. वेगड़ साहब को भी सम्मान मिला. दूसरे लोगों ने भी भाषण दिए और वेगड़ साहब की भी तकरीर हुई. उनका अंदाज आज तक भूलता नहीं है. उनका चेहरा-मोहरा और पहनावा जितना सादा था, उनका अंदाजे बयां, उतना ही बुलंद. वे आधे घंटे से ऊपर बोले होंगे, लेकिन मजाल कि किसी की पलक झपकी हो. उन्हें अंदाजा था कि इस भद्रलोक को कब समझाना है और कब डपट देना है. मुझे याद है कि उन्होंने खुद को जटायु की तरह बताया. एक ऐसा पात्र जिसमें सामर्थ्य तो बहुत नहीं है, लेकिन जितनी भी ताकत है, उसके साथ वह सत्य की रक्षा में खड़ा होता है. रामायण में जटायु सीताजी को रावण से बचा रहा था. उस मंच पर खड़े वेगड़ जी अपनी कलम और पेंसिल से मां नर्मदा की सभ्यता और संस्कृति को बचा रहे थे. यह जानते हुए कि उनकी नियति जटायु जैसी ही होनी है.

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वे बार-बार कह रहे थे कि उनका जन्म नर्मदा की परिक्रमा के लिए ही हुआ है. इस परिक्रमा को पूरा करने में आई बाधाएं और उसे पूरा करने में मिला, अपनी जीवन संगिनी का साथ भी, वे पूरे तार सप्तक में बता रहे थे. कहने को उन्हें एक बड़ा सरकारी सम्मान मिल रहा था, लेकिन उनके लिए असली सम्मान, यात्रा में, उनके पांव में पड़े छाले ही थे. नर्मदा का यह यात्री आज अनंत यात्रा पर निकल गया. उनके पीछे आज नर्मदा भी सोचती तो जरूर होगी कि आखिर यह उसका कैसा बेटा था, जो उससे कुछ नहीं मांगता था. न पानी, न रेत, न पुण्य, न मोक्ष. बस अपनी मां को निहारता था और उसके सौंदर्य को शब्दों में पिरोता रहता था. आज मां रेवा को भी लगता होगा कि ऐसे बेटे को विदा कर वह निपूती हो गई.

(लेखक जी न्यूज डिजिटल में ओपीनियन एडिटर हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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