गौ हत्‍या पर रोक से इस देश में गहरी होगी समुदायों के बीच की खाई?
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गौ हत्‍या पर रोक से इस देश में गहरी होगी समुदायों के बीच की खाई?

जब भी ये प्रतिबंध लगाया जाएगा, ये श्रीलंकाई बौद्ध सिंहलों और मुस्लिमों के बीच की दरार को और चौड़ा कर सकता है. 

(फाइल फोटो)

नई दिल्ली (अचल मल्होत्रा): श्रीलंका की सत्तारूढ़ पार्टी श्री लंका पोडुजाना पेरामुना (SLPP) ने पूरे देश में गौ हत्या को पूरी तरह प्रतिबंधित करने के अपने स्पष्ट इरादों का ऐलान कर दिया है. बताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री महेंद्रा राजपक्षे ने पार्टी के संसदीय समूह से इस मामले में सहमति ले ली है और अब इस कानून को बनाने की दिशा में आवश्यक कार्यवाही का इंतजार है.

हालांकि जो लोग बीफ खाते हैं, उनके लिए बाहरी देशों से बीफ आयात करने की अनुमति दिए जाने की संभावना है. 2.2 करोड़ की अनुमानित आबादी वाले श्रीलंका में कई नस्लों और कई धर्मों के लोग रहते हैं. इनमें 70.2 फीसदी लोग बौद्ध अनुयायी हैं, 12.6 फीसदी हिंदू, मुस्लिम (जिन्हें श्रीलंकाई मूर भी कहा जाता है) 9.7 फीसदी और रोमन कैथोलिक ईसाई 6.1 फीसदी हैं. इनमें वो नागरिक भी शामिल हैं, जो यूरोपीय लोगों के वंशज हैं, श्रीलंका में बस गए और यहीं की महिलाओं से शादी की.

सामान्य तौर पर श्रीलंकाई मांसाहारी हैं. हालांकि बौद्ध और हिंदू जो सांस्कृतिक व धार्मिक वजहों से गाय की पूजा करते हैं, बीफ का विरोध करते हैं और गाय की हत्या पर प्रतिबंध की मांग करते हैं. जबकि दूसरी तरफ मुस्लिमों और ईसाइयों (खास तौर पर जो यूरोपीय मूल के हैं) के लिए बीफ उनके मुख्य खानपान का हिस्सा है.

देश में अगर प्रति व्यक्ति मांस की उपलब्धता पूरे साल के हिसाब से देखा जाए तो गोमांस यहां चिकन से काफी पीछे है. ये 1.8 किलो प्रति व्यक्ति के साथ दूसरे नंबर पर आता है. जबकि चिकन की उपलब्धता प्रति व्यक्ति के हिसाब से 9.7 किलो है. लेकिन बीफ, पोर्क (0.32 किलो प्रति व्यक्ति) और मटन (0.1 किलो प्रति व्यक्ति) से काफी ज्यादा है.

बीच-बीच में गौ हत्या पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की मांग की जाती रही है. जिसका नतीजा ये रहा है कि एनीमल प्रोटेक्शन एक्ट 1958 (जिसमें 1994 में संशोधन किया गया) में ये प्रावधान किया गया कि 12 साल से कम उम्र की गाय या उसके बछड़े का वध नहीं किया जा सकता.

प्रभावशाली सिंहला बौद्धों (खासतौर पर जो पुरोहित वर्ग से हैं) ने फिर भी सरकारों पर दवाब बनाए रखा है, हालांकि पूर्ण गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाने के अपने लक्ष्य में वो असफल रहे.

गौ हत्या पर पूर्ण रोक लगाने के ताजा प्रस्ताव की वजह
हाल के महीनों में राजपक्षे भाइयों ने अपनी राजनीतिक ताकत को काफी मजबूत किया है. गोटभाया राजपक्षे को नवंबर 2019 में राष्ट्रपति चुना गया था. हाल ही में महिंद्रा राजपक्षे देश के दोबारा प्रधानमंत्री चुने गए हैं. उनकी पार्टी एसएलपीपी ने अगस्त 2020 में हुए चुनावों में बड़ी जीत हासिल की है. एसएलपीपी ने 225 में से 145 सीटें जीती हैं.

प्राथमिक तौर पर देखा जाए तो राजपक्षे भाइयों के पास कोई दमदार वजह नहीं है कि वो बौद्ध सिंहलों को या अल्पसंख्यक हिंदुओं को खुश करने के लिए गौ हत्या पर प्रतिबंध लगाने के अपने इरादे का ऐलान करें. कम प्रभाव वाले मुस्लिम और ईसाई अल्पसंख्यकों की राय का राजनैतिक रूप से कोई मतलब भी नहीं है.  

फिर भी सत्ता में आने के केवल एक महीने के अंदर ये ऐलान करने के दो विश्वसनीय कारण दिखाई देते हैं. पहला तो ये कि राजपक्षे इस ऐलान के जरिए अपनी पार्टी एसएलपीपी को मिले बौद्धों के पूरे और दिल से किए समर्थन के लिए धन्यवाद देना चाहते हैं. ये ऐलान इसलिए भी किया गया हो सकता है ताकि उन्हें दोबारा सुनिश्चित किया जा सके कि सरकार के लिए उनकी मांग (बीफ बैन) प्राथमिकता में बनी हुई है.

उससे ज्यादा महत्वपूर्ण ये है कि संविधान में प्रस्तावित 20वां संशोधन करने के संदर्भ में सिंहला बौद्धों का समर्थन बरकरार रखने की आवश्यकता है, जिसके जरिए पुरानी सरकारों द्वारा 2015 में किए गए 19वें संशोधन को खत्म किया जा सकेगा या उसमें बदलाव हो सकेगा. इस संशोधन के जरिए एक्जीक्यूटिव प्रेसीडेंट की ताकतें कम कर दी गई थीं और संसद व स्वतंत्र आयोगों की ताकत को बढ़ा दिया गया था.

श्रीलंकाई नेतृत्व उत्तरी प्रांतीय परिषद में स्वदेसी श्रीलंकाई हिंदू-तमिल अल्पसंख्यकों के बीच कुछ तारीफें पा सकता है, जिनके कुछ अधिकारों से उनको 23वें संशोधन के तहत वंचित कर दिया गया था, विशेष रूप से पुलिस और जमीन से जुड़े अधिकार. 

आगे क्या होगा?
जब भी ये प्रतिबंध लगाया जाएगा, ये श्रीलंकाई बौद्ध सिंहलों और मुस्लिमों के बीच की दरार को और चौड़ा कर सकता है. श्रीलंका में पहले से जातीय संघर्षों का इतिहास रहा है. हालांकि अंतरराष्ट्रीय फोकस पर सबसे लम्बा खूनी संघर्ष (1983 से 2009) लिट्टे और सिंहला बौद्धों के प्रभुत्व वाली श्रीलंका सरकार के बीच रहा है, लेकिन मुस्लिम और बौद्धों में भी तमाम जातीय संघर्ष श्रीलंका में होते रहे हैं.

श्रीलंका में एक स्तर तक इस्लामोपोबिया भी दिखता है. बौद्ध लोग मुस्लिमों की तमाम धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाओं पर सवाल उठाते रहे हैं, मसलन महिलाएं बुर्का क्यों पहनती हैं? मुस्लिम केवल हलाल मीट ही क्यों खाते हैं? बौद्धों का दावा है कि हलाल मीट की प्रक्रिया बड़ी दर्दनाक है और बौद्ध धर्म के करुणा के सिद्धांत के खिलाफ है.

दोनों समुदायों के बीच विश्वास तब और कमजोर हो गया, जब अप्रैल 2019 में कोलम्बो की चर्चों और होटलों में सीरियल बम ब्लास्ट किए गए. बौद्धों को संदेह है कि उग्र स्थानी इस्लामी संगठनों ने उन आतंकियों की कुछ मदद जरूर की होगी. इस सीरियल ब्लास्ट में सैकड़ों लोग मारे गए थे.

हाल ही में बौद्धों और मुस्लिमों के बीच जो संघर्ष शुरू हुआ, वो 10 दिन तक चलता रहा. इस दौरान मुस्लिमों के प्रति साफ गुस्सा देखने को मिला. दुनियाभर में मानवाधिकार संगठनों ने श्रीलंका में मुस्लिमों पर हिंसा की बढ़ रही घटनाओं की निंदा की.

इस प्रतिबंध से श्रीलंक पर आर्थिक असर नहीं पड़ेगा, ऐसा नहीं है. गोमांस के आयात से पहले ही बेहद खराब हालत में चल रही विदेशी मुद्रा भंडार पर और दवाब पड़ेगा. इससे इसकी लागत तो बढ़ेगी ही, उपभोक्ताओं की जेब पर भी असर पड़ेगा. इससे लोगों की नौकरियों पर भी असर पड़ने की आशंका है, लेकिन प्रतिबंध के समर्थक तर्क देते हैं कि इससे डेरी सैक्टर में नए रास्ते खुलेंगे, रोजगार बढ़ेगा.

जो गाय बांझ होने के चलते आर्थिक रूप से अनुत्पादक हो चुकी हैं, उनके रखरखाव के लिए बुनियादी ढांचे से जुड़े मुद्दे भी हैं. क्या बौद्ध समुदाय के लोग उनकी हत्या या फिर उनके निर्यात के लिए राजी होंगे? क्या सरकार संभावित सामाजिक-आर्थिक निहितार्थों को नजरअंदाज करके आगे बढ़ेगी? ये अभी देखा जाना बाकी है कि श्रीलंका की सरकार कब और कैसे घोषित किए गए अपने उद्देश्य को कानूनी जामा पहनाती है.

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