डियर जिंदगी: चिट्ठी और प्रेम का अकाल!
तनाव और डिप्रेशन से लड़ने से बेहतर है, उसके चक्रव्यूह में फंसने से बचा जाए. इलाज से बेहतर बचाव है. चिट्ठी, रिश्तों में संवाद, एक दूजे के सुख-दुख का जायजा ऐसे ही बचाव का हिस्सा हैं.
कितने दिन हो गए किसी के लिए कुछ लिखे हुए. आहिस्ता-आहिस्ता हम लिखने से मुक्त होते गए! अब सब सारा लिखित, स्नेही संवाद एसएमएस, स्माइली और व्हाट्सअप ‘यूनिवर्सिटी’ में ही सिमट गया है. हम जब लिखने की बात कह रहे हैं, तो इसमें केवल चिट्ठी शामिल नहीं. इसमें चिट्ठी के वह सभी तरीके शामिल हैं, जिनमें कुछ सोचना होता था. एक शब्द को लिखने से पहले हजार बार काटना होता था. लिखने की सभी रस्मों से हम दूर निकल आए हैं.
अब चिट्ठी कहीं नहीं आती-जाती. आपने आखिरी बार किसको चिट्ठी लिखी थी. किसलिए लिखी थी. रिश्तों की याद वाली कोई चिट्ठी आपके पास है! ग्रीटिंग कार्ड भी चलेंगे. रिश्तों की गर्माहट बयां करने का खूबसूरत पुल कभी यह कार्ड हुआ करते थे.
हमने नवीनीकरण के नाम पर संवाद के सभी पुल गिरा दिए. लेकिन नए पुल बनाने की दिशा में कोई काम नहीं हुआ! ऐसा इसलिए क्योंकि हमने सबकुछ केवल बातचीत के भरोसे छोड़ दिया. अब यह बातचीत इतनी ज्यादा हो गई कि वही समस्या हो गई. समस्या की जड़ होती जा रही है.
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मोबाइल पर ‘टॉक’ टाइम भले ही फ्री हो जाए, लेकिन वह उस लिखित संवाद की जगह नहीं ले सकता. किसी से बात कर लेना और किसी के लिए कुछ लिखने में बुनियादी अंतर है. इस अंतर को भुला बैठा समाज भीतर से खोखला हो रहा है. क्योंकि उसमें रिश्तों के लिए सोच-विचार कम होता जा रहा है.
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एक उदाहरण से समझिए. एक प्रयोग करते हैं...
अपने पुराने किसी दोस्त के बारे में पांच-दस बातें कहिए, जो उससे आपके रिश्तों को बयां करती हो, तो आप थोड़ी देर ठहरेंगे. सोचेंगे. फिर कुछ कहेंगे, उसके बाद कहे को दुबारा बदलेंगे. जितनी देर यह सबकुछ होगा, आप यादों की गैलरी में घूमकर आ जाएंगे. एक-दूसरे को चिट्ठी लिखने, ई-मेल लिखने और कार्ड भेजने तक यह सबकुछ ऐसे ही चलता रहता था. लेकिन अब इन सबका भार हमने केवल एसएमएस पर डाल दिया.
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इसके बाद एक-दूसरे से कम हुए मिलने के समय ने ‘करेला ऊपर से नीम चढ़ा’ वाली स्थिति पैदा कर दी. हम साथ रह रहे हैं, लेकिन संवाद न्यूनतम होता जा रहा है. हम केवल कैलकुलेशन में उलझते जा रहे हैं. जिंदगी का आनंद, बतकही का रस, बेमतलब यात्रा का सुख सूख गया.
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सपनों की धुन सबको प्यारी है, होनी भी चाहिए. लेकिन हर चीज़ सीमा में होनी चाहिए. संतुलन में होनी चाहिए. सड़क पर गाड़ी चलाते समय रास्ता भले ही कितना खाली, साफ क्यों न हो, आपसे एक सीमा के आगे नहीं जाने के लिए इसलिए कहा जाता है, ताकि दुर्घटना से बचा जा सके.
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यही बात जीवन के बारे में होनी चाहिए. एक-दूसरे से संवाद के बारे में होनी चाहिए. सपनों के लिए कड़ा परिश्रम करना सौ प्रतिशत सही है, लेकिन परिवार, मित्र और पड़ोसियों से कटे हुए रिश्तों की कीमत क्या होगी, यह तय करना भी उतना ही जरूरी है.
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क्यों न एक-दूसरे के लिए कुछ वक्त निकाला जाए. परिवार, मित्र और सहकर्मियों के लिए कुछ लिखने की शुरुआत की जाए. यकीन रखिए, बात शुरू में कुछ अजीब लग सकती है, बच्चों जैसी लग सकती है. लेकिन जरा याद कीजिए, वही बातें तो आज अधिक सुख देती हैं, जो बच्चों ‘जैसी’ होती हैं. वही बचपना तो जिंदगी के स्वाद से ‘मिसिंग’ है.
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तनाव और डिप्रेशन से लड़ने से बेहतर है, उसके चक्रव्यूह में फंसने से बचा जाए. इलाज से बेहतर बचाव है. चिट्ठी, रिश्तों में संवाद, एक दूजे के सुख-दुख का जायजा ऐसे ही बचाव का हिस्सा हैं.
आइए, मिलकर ऐसी दुनिया की नींव रखें, जो हमारे दिमाग में तो अक्सर आती है, लेकिन हम उसके लिए घोसला बनाने का काम शुरू ही नहीं कर पाते...
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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)
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