‘डियर जिंदगी’ में हम निरंतर ऐसे विषय उठा रहे हैं जो हमारे घर, आंगन और चाहरदीवारी में तनाव घोल रहे हैं. महानगरों के साथ अब छोटे-छोटे, सामाजिक रूप से कहीं अधिक आत्‍मीय नजर आने वाले शहरों में भी तनाव ‘प्रदूषण’ खतरनाक स्‍तर तक पहुंच गया है.


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'प्रदूषण' को हमने तब खतरनाक मानना शुरू किया, जब वह हमारे दिल, फेफड़ों तक पहुंच गया.


जीवन की आधारशिला को सिर के बल उल्‍टा लटका दिया गया. जिंदगी में बहुत काम है. जानलेवा प्रतिस्‍पर्धा है. एक मौके को चूकने का अर्थ आपको ऐसे रटाया गया है कि आप जिंदगी को दूसरे नंबर पर रखने लगे. पहले नंबर पर करियर, बैंक बैलेंस, दूसरों से ‘अधिक’ आ गया.


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इन सबसे तनाव दिल, दिमाग के सहारे यात्रा करता हुआ हमारी आत्‍मा का अमृत चुराकर भाग रहा है. हर दिन वह रूप बदलकर आता है, जीवन का स्‍वाद चुराकर चला जाता है.


शनिवार को मैं जयपुर में एक यूनिवर्सिटी में बच्‍चों से ‘डियर जिंदगी’ के तहत तनाव, डिप्रेशन पर संवाद का हिस्‍सा था. वहां सबके सामने तो बच्‍चों, शिक्षकों ने अपने दिल की बातें साझा नहीं कीं, लेकिन संवाद के बाद निजी स्‍तर पर कुछ बच्‍चों, शिक्षकों ने बात की. अपने, परिवार और बच्‍चों के बारे में.


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इनमें से एक वरिष्‍ठ शिक्षक ने अपने बच्‍चे के बारे में विस्‍तार से बात की. उनकी बेटी जो दसवीं कक्षा में है, दो महीने से हर तरह से समझाने पर भी स्‍कूल जाने को तैयार नहीं है. वह किसी से बात करने को तैयार नहीं है. उसने अपने आसपास खामोशी की दीवार बुन ली है. जिसे सब मिलकर नहीं तोड़ पा रहे.


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उनसे जो बातें हुईं वह कुछ इस तरह थीं…


1. ‘सबसे पहले बिटिया को विश्‍वास में लेने की कोशिश करें. उसे धमकाने, उससे सबकुछ जानने की जगह  उसे स्‍नेह की चादर में लपेटने की कोशिश करें.'


2. 'बच्‍चे से जो अपेक्षाएं हैं, उनको भूल जाइए. हम बच्‍चे के बड़े होने के साथ उस पर अपेक्षा का भार बढ़ाते जाते हैं. क्‍योंकि उसके प्रदर्शन से हमने अपनी प्रतिष्‍ठा को जोड़ रखा है.


3. हमें यह अच्‍छे से समझने की जरूरत है, कि ‘बच्‍चे हमसे हैं, हमारे लिए नहीं. बच्‍चे प्रोडक्‍ट नहीं हैं, जिनको मार्केट में खपाने के लिए आप कंपनी जैसी, नीतियां बनाते रहें.'


4. बच्‍चे से अगर घर पर विस्‍तार से बात करना संभव नहीं हो पा रहा है तो उसे लेकर कहीं नजदीक की यात्रा पर चले जाएं.


5. बच्चे को समझाइए कि उसका जीवन सबसे मूल्‍यवान है, उससे बढ़कर आपके लिए कुछ नहीं. न समाज, न कोई परीक्षा और न ही कोई रिजल्‍ट आपके और बच्‍चे के बीच आना चाहिए.


6. सबसे आखिरी और जरूरी बात. अगर बच्‍चे का व्‍यवहार आपको जरा भी ‘अलग’ लग रहा है, आपसे नहीं संभल पा रहा है तो उसे जरूर किसी अनुभवी मनोचिकित्‍क को बिना देरी के दिखाइए.


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मनोचिकित्‍सक के पास जाना, भारत में सबसे बड़ी मनोवैज्ञानिक बाधाओं में से एक है. इसे लेकर हमारा नजरिया अभी भी सही होने से मीलों दूर है. हम समझते हैं कि मनोचिकित्‍सक के पास खुद जाना, बच्‍चे को लेकर जाने का अर्थ यह है कि आपकी या बच्चे की मानसिक अवस्‍था पर सवाल खड़े हो जाएंगे. जबकि इसे एकदम सरल तरीके से समझने की जरूरत है. जैसे बुखार, सर्दी में भी आप घरेलू उपाय के बाद डॉक्‍टर के पास भी जाते ही हैं! ठीक वैसे ही मन, दिल, दिमाग को भी समझने की जरूरत है, उन्‍हें भी स्‍नेह, प्रेम की उतनी ही जरूरत है.


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आइए, खुलकर मन, दिल, दिमाग के तनाव पर संवाद करें, उसे सही जगह ‘ट्रीटमेंट’ के लिए प्रस्‍तुत करें. तभी हम तनाव, उदासी और डिप्रेशन से स्‍वयं और अपनों को बचा पाएंगे!


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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)


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