डियर जिंदगी: यह दीवार कैसे टूटेगी!
हम मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के मूल गुण से पहली बार इतनी दूर निकलते दिखाई दे रहे हैं. हर चीज को बस वर्चुअल दुनिया के पैमाने से देखा जा रहा है.
अगर आप गांव में रहे हैं तो दीवार उठने, बनने और गिरने को थोड़ा आसानी से समझ सकते हैं. भाइयों में मतभेद होने पर अक्सर आंगन के बीच दीवार खड़ी कर दी जाती थी. कुछ महीने बाद यह महसूस किया जाता कि यह ठीक नहीं था. उसके बाद दीवार आसानी से गिरा दी जाती. दीवार की खिड़की बड़ी कर दी जाती. यह सब आसानी से इसलिए संभव होता क्योंकि घर, दीवार, मिट्टी के बने होते थे. मिट्टी की दीवार मजबूत होने के बाद भी ऐसी नहीं थी कि उसे तोड़ा न जा सके. उसमें मजबूती के साथ जरूरी होने पर टूटने का अद्भुत गुण था.
बीते दो दशक में गांव के आंगन में मिट्टी की तरह सीमेंट की दीवार आ गई. गांव के घरों में जब मिट्टी की जगह सीमेंट ले रहा था, उसी समय से हमारे रिश्तों में भी बदलाव का नया दौर शुरू हुआ. शहर तेजी से आगे बढ़ रहे थे. वहां रोजगार के साधन मिल रहे थे. गांव नई उमंग, चाहत, जरूरत को पूरा करने में असमर्थ थे. समाज, रिश्ते यहां से एक नई दुनिया में प्रवेश कर रहे थे. आगे चलकर यही मोड़ रिश्तों को एक ऐसी जगह ले गया, जहां से संबंध बगिया से गमले की ओर बढ़ने लगे. हम धीरे-धीरे अपनी जरूरतों के अनुसार सिमटने लगे.
डियर जिंदगी: गंभीरता और स्नेह!
यहां तक चीजें फिर भी नियंत्रण में थीं, लेकिन उसके बाद जीवन में स्मार्टफोन, तकनीक और सोशल मीडिया ने पंख फैलाने शुरू कर दिए. इनके आगे बढ़ने के साथ ही हम धीरे-धीरे अपने लिए इनके भरोसे बैठने लगे. अब तो बात यहां तक आ गई कि वह फेसबुक पर सबकी चीज़ें ‘लाइक’ करते हैं, लेकिन 'मेरी' नहीं. मैं तो सोशल मीडिया पर सब कुछ पोस्ट करता हूं, लेकिन उसे तो 'मेरे' बारे में खबर ही नहीं होती!
हम एक-दूसरे से ऐसे बेखबर हैं कि चाहत तो यही है कि हमारे बारे में सबको पता रहे लेकिन बिना बताए. हमने चिट्ठी, संदेश सबका ठेका तकनीक को दे दिया. तकनीक आई थी कि हम उसका उपयोग करें, लेकिन तकनीक हमारे ऊपर हमारी समझ, रिश्ते पर कुछ ज्यादा ही भारी पड़ रही है.
डियर जिंदगी: अनुभव की खाई में गिरे हौसले!
जीवन में सबसे अधिक संकट रिश्तों के आंगन में खड़ी छोटी-छोटी दीवारों से है. संवाद के ‘पुल’ टूट रहे हैं, दीवारें तेजी से खड़ी हो रही हैं. मनभेद में बदलते मतभेद, रिश्तों में पड़ती गठान तनाव के पालनहार हैं! हम मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के मूल गुण से पहली बार इतनी दूर निकलते दिखाई दे रहे हैं. हर चीज को बस वर्चुअल दुनिया के पैमाने से देखा जा रहा है.
जरा ध्यान से देखिए. मित्रों से मिलना, बातचीत, दिल खोलकर हंसना कितना कम होता जा रहा है. हम सब विश्वास के संकट से घिरते जा रहे हैं. अब लोग शिकायत कर रहे हैं कि फोन पर बात करने पर लोग रिकॉर्ड कर रहे हैं. इसलिए, फोन पर कितनी और क्या बात की जाए. यह सवाल लोगों के मन में गहराता जा रहा है.
डियर जिंदगी: प्रेम दृष्टिकोण है…
हमारी सामूहिकता, सामाजिकता पर इससे पहले इतना संकट नहीं था. हम एक-दूसरे के लिए कहीं अधिक तैयार, मदद के लिए तत्पर थे. हम एक-दूसरे के लिए आशंका से इतने भरे नहीं थे. हम घर-परिवार में खूब लड़ने, झगड़ने वाले तो थे, लेकिन संकट आने पर एक-दूसरे के लिए बेहद तत्पर थे.
धीरे-धीरे यह तत्परता घट रही है. हम कह रहे हैं कि समय कम हो रहा है. हमारे पास समय नहीं. लेकिन सोचने की बात यह है कि हमारा समय जा कहां रहा है. अब बैंकों में पहले की तरह कतार नहीं है. रेलवे स्टेशन पर टिकट लेने नहीं जाना. जिन चीजों के लिए कतार में खड़े होना होता था, उनका नाम ख्याल से भी बाहर होता जा रहा है.
डियर जिंदगी: बच्चों के बिना घर!
फिर समय कहां गया. उसकी चोरी किसने की. किसके सिर पर समय की चोरी का इल्ज़ाम है! कहां होना तो यह था कि सुविधा बढ़ने से समय का अंबार लग जाता. हम यही कहते कि अरे! समय है कि खत्म ही नहीं होता. लेकिन हो इसका उल्टा रहा है. हमारी दुनिया सिमटती जा रही है. संवाद, स्नेह और आत्मीयता की कमी से उपजी दीवारों को तोड़ना बहुत जरूरी है. जब तक यह नहीं टूटेंगी, सुख के फूल भला कैसे मुस्कराएंगे!
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