डियर जिंदगी: गंभीरता और स्‍नेह!
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डियर जिंदगी: गंभीरता और स्‍नेह!

बच्‍चों के हृदय को जितना संभव हो स्‍नेह, प्रेम, आत्‍मीयता से भरा जाए. यही प्रेम मूल को ‘सूद’ के साथ लौटाकर लाएगा.

डियर जिंदगी: गंभीरता और स्‍नेह!

खुश रहने की वजह क्‍या है! हम किसके कारण खुश रहते हैं. उम्र बढ़ने के साथ ही खुश रहने की आदत कम होती जाती है. हम सहज प्रसन्‍नता के भाव की जगह उसके अर्थ खोजने लगते हैं. बच्‍चे जब छोटे होते हैं, तो वह गीतों के अर्थ नहीं समझते, केवल भाव, संगीत समझते हैं! कितने मजे में जिंदगी चलती रहती है, लेकिन जैसे ही अर्थ के फेर में फंसते हैं, जीवन से प्रसन्‍नता दूर छिटक जाती है.

असल में यह अर्थ से नहीं, भाव से दूरी है. जीवन के चक्रव्‍यूह में उलझना है. 

डियर जिंदगी: अनुभव की खाई में गिरे हौसले!

वैसे बच्‍चे अक्‍सर ही मजेदार होते हैं. बचपन में खुशमिजाजी आसानी से मिलने वाली चीज है. हमारे बढ़ते ही मुस्‍कान की इस अद़ा को मानिए नजर लगने लगती है. खिलखिलाने वाले. जिनके पास रहने से भी आनंद बरसता है, उम्र बढ़ने के साथ गंभीर होने लगते हैं. गंभीरता को समाज में बुद्धिमता से ऐसे जोड़ा गया है कि गंभीर व्‍यक्ति खोखला होकर प्रतिष्‍ठा हासिल कर सकता है . जबकि हसोड़ को साबित करना करना होता है कि वह हंसने के साथ ‘ गंभीर ’ भी है! 

डियर जिंदगी: प्रेम दृष्टिकोण है…

जर्मनी में कुछ समय पहले हुए सर्वे में दावा किया गया है कि ऐसे बच्‍चे जो शरारती , खुशमिजाज होते हैं, उनके जीवन में सफल होने की संभावना ऐसे बच्‍चों की तुलना में कहीं अधिक होती है, जो गुमसुम, अकेले और गुस्‍सैल होते हैं. अब जरा एक नजर अपने स्‍कूल की ओर देखिए तो समझ में आता है कि वह कैसे बच्‍चे निकाल रहे हैं . उनका ध्‍यान कहां है.  स्‍कूल में एक मां मिलीं . जो अपने पांच साल के बेटे के लिए बहुत अधिक चिंतित थीं. वह कह रहीं थी कि उनका बेटा बहुत अधिक शरारती है. कुछ तरीका खोजिए. 

डियर जिंदगी: बच्‍चों के बिना घर! 

शिक्षक ने कहा , थोड़ा कड़ाई से पेश आइए, बाकी मैं भी डांटता हूं. मैं उनसे कहना चाहता था कि आपका पांच साल का बच्‍चा शरारती नहीं होगा तो कौन होगा . पंद्रह साल वाला. या उससे बड़ा परिवार का कोई दूसरा सदस्‍य. बच्‍चों के हृदय को जितना संभव हो स्‍नेह , प्रेम, आत्‍मीयता से भरा जाए. यही प्रेम मूल को ‘सूद’ के साथ लौटाकर लाएगा. इसके साथ ही उन्‍हें गंभीरता के फेर में नहीं फंसने से भी बचाना है. 

उत्‍तप्रदेश के सोनभद्र में कुछ समय पहले अनौपचारिक संवाद में रिश्‍तों की नई परतों से सामना हुआ. यह बदलता समय है, यहां कहने मात्र से कुछ नहीं होने वाला, इसके अनुसार खुद को बदलना भी जरूरी है. परिवार के मुखिया बता रहे थे कि उनका बेटा कैसे जिम्‍मेदारी से भाग रहा है. बचपन में उसे जबरन हॉस्‍टल पढ़ने भेजा गया. वह नहीं चाहता था, मां ने भी विरोध किया. अब जबकि बेटा पढ़ लिखकर, नौकरी करके लौटा है.

डियर जिंदगी: रास्‍ता बुनना!

वह नहीं चाहता पिता शहर में उसके साथ रहें. उसने उन्‍हें रिटायरमेंट के बाद गांव में रहने का विकल्‍प चुनने की सलाह दी है. अब पिता बेटे का साथ चाहते हैं, लेकिन बेटा वैसे ही तर्क दे रहा है, जैसे कभी पिता ने दिए थे. गांव में सब सुविधा है. मैं आता-जाता रहूंगा. आपकी सेहत के लिए बढ़िया रहेगा. 

डियर जिंदगी: ‘ कड़वे ’ की याद!

कहने, सुनने यहां तक कि लिखने में भी यह अच्‍छा नहीं लग रहा. लेकिन जिंदगी का यही नियम है. लौटकर हर चीज आती है. प्रेम, स्‍नेह भी और कठोरता भी. यहां पिता-पुत्र के संबंध को ‘नई’ नजर से देखिए. परंपरागत रिवाज़ से नहीं. 
इसके मायने केवल यह हैं कि प्रेम , स्‍नेह को बहुत कोमलता से महसूस करने, संभालने की जरूरत है. वातावरण पहले ही बच्‍चों को कठोर, अनुदार बना रहा है, इसमें हमारी भूमिका जितनी कम होगी, हमारा उतना ही भला होगा! 

ईमेल dayashankar.mishra@zeemedia.esselgroup.com

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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)

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