अनुभव, जिंदगी का ऐसा तत्व है, जिस पर हमारा न्यूनतम नियंत्रण है. लेकिन इसके बाद भी हमने फैसलों की फ्रेंचाइजी उसे दी हुई है.
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हम किससे अधिक प्रेम करते हैं. जो हमसे छूट गए. हमको छोड़ गए. जिनका साथ चाहकर भी नहीं मिला. जिनको चाहते हुए भी हम उनके साथ न जा सके! इन सबके बाद भी आत्मा के तार वहीं उलझे हुए हैं. जहां से हमें बहुत पहले आगे बढ़ जाना चाहिए था!
अनुभव, जिंदगी का ऐसा तत्व है, जिस पर हमारा न्यूनतम नियंत्रण है. लेकिन इसके बाद भी हमने फैसलों की फ्रेंचाइजी उसे दी हुई है. जबकि अनुभव तो केवल ‘घटने’ के बाद की घटना है. इसलिए, इससे कुछ सीखा तो जा सकता है, लेकिन इसके साथ चिपके रहने का कोई अर्थ नहीं. हम दुखों से इसलिए नहीं घिरे रहते कि इससे निकलना नहीं जानते, बल्कि यह इसलिए है, क्योंकि हम आगे की ओर जाना नहीं चाहते. हम कहते भले हैं कि जीवन क्षणभंगुर है, लेकिन इसे पूरी तरह आत्मसात नहीं करते. समाज के रूप अगर हमेशा कर पाने में सफल हुए होते तो हमारे आसपास, अतीत और दुख से चिपके हुए लोग इतनी बड़ी संख्या में नहीं होते.
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परीक्षा के दिन याद हैं! हम सब तैयारी के लिए ‘अलार्म’ लगाया करते थे, उसके बाद जैसे ही घड़ी इशारा करती, देखते कि कितना काम तय समय पर हो पाया. अगर नहीं हुआ तो नया ‘अलार्म’ सेट किया जाता था. उसके बाद भी न हो पाया तो अब परीक्षा में जो होगा, देखा जाएगा! हमारे पास बहुत अधिक दुखी-सुखी होने का समय नहीं होता था. अलार्म के रिव्यू-प्रीव्यू के बीच बड़े से बड़ा इम्तिहान निकल जाता.
जिंदगी रुकने का नहीं, सफर का नाम है. बस एक सिलसिला है. जिसके मायने बस सफर है. कुछ और नहीं. जो अभी है, उसमें रहने का सूत्र दिखने में जितना सरल लगता है, व्यवहार में इससे मुश्किल कुछ नहीं.
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अनुभव की गोंद से न चिपकने का सूत्र स्कूल के दिनों में ही मिला. यह था, ‘यह भी गुजर जाएगा का नियम’. बाढ़ का पानी कितनी ही तेजी से शहर में दाखिल हो, लेकिन उतरना तो उसे भी होता है! हमारा हौसला बड़ा होना चाहिए. मुश्किल, दुख, पीड़ा तो जिंदगी के पर्यायवाची हैं. इनसे मुंह फुलाकर बैठने से काम नहीं चलने वाला.
जीवन बदलाव, परिवर्तन से भरी नाव है. पलभर में पलट जाती है. इसका पलटना तो हमारे बस में नहीं, लेकिन डटे रहना तो है. अजहर इनायती ने कितनी खूबसूरती से डटे रहने, आशा की लौ थामने की बात कहते हैं…
‘ये और बात कि आंधी हमारे बस में नहीं
मगर चराग जलाना तो इख़्तियार में है!’
अगर जिंदगी को सरलता, सहजता और कुंठा से मुक्त होकर समझा जाए तो इसमें दुखी होने, पीड़ा में रहने का अवकाश ही नहीं. आप कभी पर्वतारोहियों से मिले हैं, अगर नहीं तो मुझे लगता है एक बार कोशिश करके जरूर मिलना चाहिए. जिंदगी के प्रति उनका नजरिया एकदम स्पष्ट, साहस और शौर्य से भरपूर होता है.
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पर्वतारोही मुश्किल का सामना कैसे करते हैं! तैयारी धरी रह जाती है, जब भीषण तूफान तंबू उखाड़, मीलों नीचे धकेल देता है. तब वह कहां से लाते हैं हौसला! जब ऑक्सीजन खत्म होने लगती है. बर्फ की गहरी खाई में आशा की धड़कन सुनाई नहीं देती. उस वक्त क्या चल रहा होता है, दिमाग में!
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बस जिंदगी की बात. हार नहीं मानने का हौसला. हौसले की कोई दवा नहीं. यह बाजार में नहीं मिलता. संघर्ष की धूप में पकता, जिंदगी के प्रति आस्था, स्नेह, विश्वास के मिश्रण से बनता है!
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