भारत की पहचान एक ऐसे देश के रूप में रही है, जहां बाढ़ आने के पहले उसकी सूचना तक देने का काम बेहद अनिच्‍छा से किया जाता रहा है. हम एक चीज़ को दूसरे से जोड़ने और अपनी जिम्‍मेदारी दूसरों पर थोपने के मामले में बहुत आगे रहे हैं. बच्‍चे हमारे हैं. उनके शुभचिंतक के रूप में भी हमारा नाम ही सबसे आगे है. उसके बाद भी उनके प्रति हमारा रवैया अरुचिपूर्ण है. उनके जन्‍म लेते ही हम किसी बड़े स्‍कूल की तलाश में जुट जाते हैं. उसके बाद उनके प्रवेश होते ही हम मान लेते हैं कि हमारा काम पूरा हुआ.


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भारत में जिस तेजी से किशोर, युवा बच्‍चों में तनाव, डिप्रेशन के आंकड़े बढ़ रहे हैं, बच्‍चे हमारी समझ से कहीं तेजी से आत्‍महत्‍या की ओर बढ़ रहे हैं. हमें लगता है, हमारा बच्‍चा तो बहुत ही होशियार, मजबूत है वह ऐसा कैसे कर सकता है. यह सोच कुछ उसी तरह की है कि शहर में डेंगू फैल रहा है तो क्‍या मैं तो सुरक्षित हूं. मैं घर से बाहर निकलता ही नहीं. मैं कहीं बाहर जाता ही नहीं. तो डेंगू का मच्‍छर कैसे मुझ तक पहुंचेगा!


डियर जिंदगी: सुसाइड के भंवर से बचे बच्‍चे की चिट्ठी!


यह तरीका तब तक ही काम आता है, जब तक डेंगू का मच्‍छर आप तक न पहुंचे. क्‍योंकि आप भले बाहर न निकलें, लेकिन मच्‍छर तो आप तक पहुंच सकता है. उसके पहुंचने को रोकना बहुत मुश्किल है. इसलिए, डॉक्‍टर हमें हमारा रोग प्रतिरोधक क्षमता (इम्‍यून सिस्‍टम) ठीक रखने को कहते हैं. इससे ही हमारा सबसे अधिक बचाव होता है.


शरीर तक तो हमारी समझ काम करती है, लेकिन उसके आगे. जैसे ही बात मन, दिमाग की आती है, हम मानकर चलते हैं कि हमारा बच्‍चा ‘जेम्‍स बांड’ है. उसके रास्‍ते में कोई नहीं आ सकता.


डियर जिंदगी: साथ रहते हुए ‘अकेले’ की स्‍वतंत्रता!


हम भूल रहे हैं कि पिछले पांच साल में बढ़ती काउंसिलिंग, हेल्‍प लाइन नंबर के बाद भी बच्‍चों का तनाव कम होने का नाम नहीं ले रहा है. बच्‍चों में तनाव, डिप्रेशन और आत्‍महत्‍या की खबर सबसे अधिक महाराष्‍ट्र, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, मध्‍य प्रदेश, छत्‍तीसगढ़, उत्‍तर प्रदेश, राजस्‍थान, तमिलनाडु, बिहार से आ रही है.


भोपाल पुलिस के अनुसार 2018 में दसवीं और बारहवीं परीक्षा के रिजल्‍ट के तुरंत बाद बारह बच्‍चों ने आत्‍महत्‍या कर ली. इनमें छह लड़कियां थीं. स्‍कूल, कॉलेज में बढ़ते तनाव और घर पर उचित संवाद की कमी के कारण देश में हर मिनट में एक बच्‍चा आत्‍महत्‍या की ओर बढ़ रहा है.


डियर जिंदगी: स्‍वयं को दूसरे की सजा कब तक!


बच्‍चा हम स्‍कूल को इसलिए सौंपते हैं, जिससे वह स्‍कूल उसकी प्रतिभा निखार सके. स्‍कूल के पास न तो प्रशिक्षित बच्‍चे हैं, न ही उन्‍हें उन्‍हीं बच्‍चे के संपूर्ण विकास से कोई सरोकार है.


स्‍कूल रेसकोर्स के नियम पर चलते हैं. वह केवल जीतने वाले घोड़े पर दांव लगाते हैं. सामान्‍य, विविध, बहुआयामी बच्‍चे उनकी सूची से बाहर ही रहते हैं. स्‍कूल की वरीयता सूची में केवल वह बच्‍चे होते हैं, जो रटकर अपनी मार्कशीट को अच्‍छे नंबर, ग्रेड के रंग से चमका सकते हैं. बाकी बच्‍चों के लिए स्‍कूल में विशेष दिलचस्‍पी नहीं होती.


डियर जिंदगी: जो बिल्‍कुल मेरा अपना है!


इसलिए बहुत जरूरी है कि अपने बच्‍चे को पहले हम समझें. उसके मन के भीतर झांकने की कोशिश करें. उसे समझने की चेष्‍टा करें. उसे उस रास्‍ते पर और अधिक धकेलने की गलती न करें, जहां उसे ले जाने की स्‍कूल असफल कोशिश कर चुका है. बच्‍चा हमारा है. उसकी पूरी गारंटी हमारी है. हम उसे किसी के भरोसे नहीं छोड़ सकते.


इसलिए, परीक्षा के दिनों में उसके साथ रहिए. उसके दिल में भरोसा जताइए कि आप हर हाल में उसके साथ हैं. तब भी आप उसका हाथ थामे रहेंगे, जब स्‍कूल, समाज, साथी उसके कम नंबर, असफल होने का ताना मार रहे होंगे.


डियर जिंदगी: असफल बच्‍चे के साथ!


बच्‍चे का सबसे सगा वही है, जो उसके साथ कम नंबर आने पर बना रहता है. उसके प्रति संपूर्ण आस्‍था से. अभिभावक के तौर पर आपको वही व्‍यक्ति होना है, जो बच्‍चे के साथ हर मौसम में है. ऐसा नहीं हो सकता कि आप उसके साथ गुनगुनी धूप में तो रहें लेकिन बर्फीले तूफान में उसका हाथ छोड़ दें.


डियर जिंदगी : बच्‍चों को अपने जैसा नहीं बनाना !


बच्‍चे को ज़रा से तनाव में भी कसकर गले लगाना है. ऐसे कि वह खिलखिलाने लगे. स्‍पर्श के महीन धागे से ही प्रेम का स्‍वेटर बुनना है. यही स्‍वेटर तनाव में बुलटप्रूफ जैकेट बनेगा!


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(लेखक ज़ी न्यूज़ के डिजिटल एडिटर हैं)


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