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दिल्ली में विधानसभा चुनाव का बिगुल 12 जनवरी को चुनाव आयोग की घोषणा के साथ ही बज गया। चुनाव का परिणाम जो भी हो लेकिन सियासी जानकारों का मानना है कि इस बार का मुकाबला बीजेपी और आम आदमी पार्टी के बीच ही है। 15 साल तक दिल्ली में शासन करनेवाली कांग्रेस के इस बार भी हाशिये पर ही रहने की उम्मीद है। कांग्रेस चुनाव में शुरू से ही हाशिये पर नजर आ रही है जिसके चुनावी चमत्कार की उम्मीदें ना के बराबर है।
पिछले चुनाव यानी 2013 में आम आदमी पार्टी को महज पानी का बुलबुला समझने वाली भाजपा उसको दिल्ली में अपना मुख्य प्रतिद्वंद्वी मान रही है। बीजेपी इस बात को भूली नहीं है कि पिछली बार के विधानसभा चुनावों में वह सरकार बनाते-बनाते रह गई थी। सरकार बनाने की उम्मीदों पर 'आप' ने पानी फेर दिया । नतीजा चुनाव में सबसे ज्यादा सीट हासिल करने के बावजूद बीजेपी अपनी सरकार नहीं बना पाई क्योंकि वह बहुमत के आंकड़े से दूर थी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बार के चुनाव में भी स्टार प्रचारक है। यह कहना गलत नहीं होगा कि इस बार के चुनाव में एक बार फिर बीजेपी मोदी के सहारे सियासी नैया पार लगाने की रणनीति बुन चुकी है। दिल्ली में बीजेपी के पास ऐसा एक भी नेता नहीं है जो मोदी की तरह जनता के साथ सियासी संवाद करने और चुनावी वायदों के जरिए वोट तब्दील करने की काबिलियत रखता है। लिहाजा बीजेपी को इस बार भी अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति और मोदी के चुनावी प्रचार पर भरोसा है। दरअसल मोदी आक्रामक तरीके से चुनाव प्रचार करते हैं जो ज्यादा से ज्यादा वोट हासिल करने की बुनियाद रखता है। अपनी लुभावनी बातों के जरिए वह वोटरों को सबकुछ कह जाते हैं जो सियासी तौर पर जरूरी होता है। मोदी के बारे में वह कहा जाता है कि वह दिल्ली के नब्ज को पहचानते हैं । एक चीज बीजेपी के पक्ष में जाती दिख रही है कि केंद्र में उसकी सरकार है लिहाज इसका फायदा उसे दिल्ली के दंगल में मिल सकता है।
बीजेपी के लिए यह चुनाव एक लिटमस टेस्ट या फिर अग्नि परीक्षा के सामान है। पिछले चार चुनावों की बात करे तो महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर में बीजेपी का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता है। झारखंड और हरियाणा में बीजेपी ने बहुमत हासिल कर अपने बलबूते सरकार बनाई। लेकिन महाराष्ट्र में वह बहुमत से दूर रही लिहाजा उसे सरकार बनाने के लिए शिवसेना का साथ लेना पड़ा। एक बार फिर जम्मू-कश्मीर में सियासत का पेंच फंस गया। जम्मू-कश्मीर की लड़ाई बीजेपी के लिए आर-पार की लड़ाई थी । लेकिन यहां वह पीडीपी के बाद दूसरे नंबर पर रही। सियासी दांवपेंच का क्रम जारी रहा और राज्य में किसी की भी सरकार नहीं बन पाई लिहाजा राज्यपाल शासन लगाना पड़ा। लिहाज पिछले चार चुनावों में बीजेपी ने तीन राज्यों में सरकार जरूर बनाई हो लेकिन दिल्ली की बात अलग है। दिल्ली सियासी राजधानी है।
केंद्र में दिल्ली की सरकार है लिहाजा बीजपी दिल्ली के दंगल को हर हाल में जीतना चाहेगी। दिल्ली के दंगल में मोदी ब्रांड का इमेज और मोदी की साख पार्टी की जीत में कितनी भूमिका अदा करेगी यह 10 फरवरी को आनेवाले नतीजों से पता चल जाएगा। बीजेपी इस वक्त पूरी तरह से मोदी और मोदी ब्रांड पर निर्भर है। सियासी जानकार बीजेपी और मोदी के लिए इस चुनाव को अग्नि परीक्षा की तरह मान रहे हैं जो 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद सबसे बड़ा सियासी इम्तिहान साबित होनेवाला है।
चुनावी मैदान में आमने-सामने भाजपा और 'आप' दिख रहे हैं। दिल्ली विधानसभा के पिछले चुनाव में आप ने 28 सीटें जीतीं लेकिन लोकसभा चुनाव में वह चारों खाने चित हो गई। अब जबकि केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार है तो दिल्ली में 'आप' के लिए चुनाव जीतना यकीनन बहुत बड़ी चुनौती होगा। आम आदमी पार्टी ने चुनाव प्रचार को लेकर बीजेपी की तरह ही आक्रामक रूख अपनाया है। इतना तो तय है कि इस चुनावी दंगल में असल मुकाबला बीजेपी और आम आदमी पार्टी में ही है। अगर 'आप' का इस चुनाव में सफाया हो जाता है तो अगले पांच साल में उसका वजूद का ग्राफ कितना कायम रह पाएगा, यह कहना मुश्किल है। लिहाजा आप के लिए यह चुनाव करो या मरो का चुनाव है क्योंकि जीते तो सियासी वजूद खिल जाएगा और हारे तो सियासत का बोरिया-बिस्तर समेटने की नौबत भी आ सकती है।
दिल्ली विधानसभा चुनाव में पीएम मोदी का साख दांव पर लगी हुई है। पार्टी दिल्ली में विधानसभा चुनाव मोदी के नाम पर लड़ रही है। दिल्ली में भाजपा का सीधा टक्कर 'आप' से है। आम आदमी पार्टी पिछले एक साल से चुनाव में लगी है। भाजपा भी केजरीवाल की तैयारी को हल्के में नहीं ले रही है। 'आप' ने भी मोदी पर हमलावार रूख अपना रखा है। मोदी की रामलीला मैदान में रैली में जनता की कम भीड़ को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि चुनावों में मुकाबला टक्कर का है। बीजेपी के लिए यह लड़ाई एकतरफा ना होकर कांटे की टक्कर का रण साबित हो सकता है। बीजपी भी पिछले चुनाव से सबक लेते हुए केजरीवाल की पार्टी को कम आंकने की गलती नहीं करेगी।
'आप' ने लोकसभा में करारी हार के बाद दिल्ली पर फोकस किया है। ऐसे में अगर वह अपने चूकी तो उसकी साख पर जबरदस्त संकट आ जाएगा। दिल्ली में हार की सूरत में पार्टी की साख को करारा झटका लग सकता है। जबकि बीजेपी अपने सियासी वार में यह कहती नजर आ रही है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में आप का थोड़ा बहुत बचा हुआ अस्तित्व भी पूरी तरह से समाप्त हो जायेगा।
बीजेपी ने इस बार के सियासी दंगल में जीत के लिए दिल्ली मे अनधिकृत कालोनियों को नियमित करने का बड़ा दांव खेला है। इस प्रकार की घोषणा कर वर्ष 2008 में कांग्रेस की शीला दीक्षित की सरकार सत्ता में आई थी।
भाजपा ने इस बार मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए बिना दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया है। जबकि 'आप' के उम्मीदवार अरविंद केजरीवाल ही होंगे इसमें कोई संशय नहीं है। कांग्रेस संगठन, उम्मीदवार, नेता और चेहरे सहित कई मोर्चों पर जूझ रही है। पार्टी में नए सिरे से जान फूंकने वाला दूर-दूर तक कोई नेता नजर नही आता है। दिल्ली चुनाव में उसका बेहतर प्रदर्शन चौंकाने वाला ही होगा जिसकी उम्मीद नजर नहीं आती है। लेकिन सियासत के खेल भी बड़े निराले होते हैं । 7 फरवरी को जनता किसपर कितना दांव लगाएगी यह तो ईवीएम में बंद हो जाएगा। फिर 10 फरवरी को नतीजे बताएंगे कि नई सरकार का सरताज कौन होगा और सियासत का ऊंट किस करवट बैठेने जा रहा है?