Opinion: प्रदूषण का पैमाना ही छोटा पड़ा, भुक्तभोगी अन्य देशों के उपाय हो सकते हैं सहायक
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Opinion: प्रदूषण का पैमाना ही छोटा पड़ा, भुक्तभोगी अन्य देशों के उपाय हो सकते हैं सहायक

विश्व के सभी देशों ने सबसे पहले आर्थिक वृद्धि और विकास की दर के आंकड़े की चिंता को पीछे छोड़ा तब वहां प्रदूषण से निपटने के उपाय कारगर हो पाए. आर्थिक विकास और सतत विकास के फ़र्क को समझे बिना प्रदूषण से निपटना हमेशा मुश्किल रहेगा.

Opinion: प्रदूषण का पैमाना ही छोटा पड़ा, भुक्तभोगी अन्य देशों के उपाय हो सकते हैं सहायक

दिल्ली एनसीआर में बुरी हवा के हालात बेकाबू हो गए. हालांकि दिवाली के पहले ही हवा की स्थिति खराब से बेहद खतरनाक की श्रेणी में पहुंच चुकी थी. सुप्रीम कोर्ट ने पटाखों को लेकर और उन्हें जलाने के समय को लेकर निर्देश जारी किए थे. उसके बाद सीपीसीबी यानी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कई कदम उठाए. लेकिन सारी कोशिशें नाकाम हो गईं. इस कदर नाकाम हो गईं कि बोर्ड के ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान नाम के नए उपाय का भी कोई असर नहीं हुआ.

यह रिस्पांस एक्शन प्लान पिछले महीने से लागू हो गया था. तब हवा की गुणवत्ता खराब की श्रेणी में थी. तब यह माना जा रह था कि इस आपात योजना के लागू होने के बाद कम से कम हवा को खराब से गंभीर श्रेणी में पहुंचने से रोक लिया जाएगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. हफ्ते की शुरुआत में ही हवा की गुणवत्ता बेहद खराब से होते हुए खतरनाक की श्रेणी में पहुंच गई. इस एक्शन प्लान के बारे में सुनते हुए लगा था कि कोई नया उपाय शुरू किया गया है.

अब पता चल रहा है कि इसमें प्रदूषण नियंत्रण के पुराने उपायों को ही चरणबद्ध तरीके से आजमाने की योजना थी. मसलन निर्माण कार्य रोकना, पुरानी गाड़ियों को ज़ब्त करना, निगरानी बढ़ा देना, सज़ा के प्रावधान, राजधानी की सड़कों पर वाहनों की भीड़ कम करने के उपाय आदि. यह उपाय खतरनाक श्रेणी के प्रदूषण के लिए तय किए गए थे.

एक नवंबर से शुरू हुए इन खतरनाक श्रेणी वाले उपायों को लागू हुए भी हफ्ता भर हो गया है और आलम यह है कि दिल्ली की हवा की गंदगी कम होने की बजाय बढ़ गई है. और दिवाली के बाद तो आज तक के प्रदूषण के सारे रिकॉर्ड टूटते नज़र आए. बता दें कि ग्रेप नाम के इस उपाय में वायु प्रदूषण की जो छह श्रेणियां बनाई गई हैं उनमें दिल्ली की हवा सबसे निचली श्रेणी यानी छठे दर्जे यानी सीवियर को भी पार कर गई है. सीवियर नाम के इस दर्जे को हिंदी में खतरनाक लिखा जा रहा है. इस समय हालत यह है कि दिल्ली एनसीआर के कई इलाके इस छठे दर्जे की हालत से भी कहीं ज्यादा बदतर हो चले हैं.

पैमाना भी छोटा पड़ा
वायु प्रदूषण को सूचकांक के हिसाब से वर्गीकृत किया जाता है. शून्य से लेकर पांच सौ अकों के बीच अच्छा से लेकर संतोषजनक, सामान्य रूप से प्रदूषित, खराब, बहुत खराब और आखिर में खतरनाक श्रेणी आती है. यानी चार सौ से लेकर पांच सौ सूचकांक वाली खतरनाक श्रेणी से आगे की भयावह स्थिति भी कभी सामने आ सकती है यह बात अभी तक सोची नहीं गई थी. दिवाली के बाद की सुबह दिल्ली में प्रदूषण के सारे रिकॉर्ड तोड़ने वाली रही.

कई जगहों पर वायु प्रदूषण का आंकड़ा 1000 के पार तक चला गया. यह एयर क्वालिटी इंडेक्स की सबसे अंतिम श्रेणी के आंकड़े से भी दोगुना है. सामान्य प्रदूषण से भी दस गुना. अब यह बात ज़रूर सोची जानी चाहिए कि इतने भयावह प्रदूषण को अब किस श्रेणी में रखा जाए. अभी हम 500 से ऊपर के प्रदूषण को भी खतरनाक की श्रेणी में गिन रहे हैं. लेकिन हालात देखते हुए जल्द ही ग्रेडेड रिस्पॉन्स एक्शन प्लान को लागू करने वालों को किसी सातवीं श्रेणी के अति भयावह या जानलेवा प्रदूषण से निपटने का इंतजाम सोचकर लाना पड़ेगा. क्योंकि अभी जो उपाय किए जा रहे हैं उनसे प्रदूषण कम होना तो दूर, उसी स्थिति में थम तक नहीं पा रहा है.

सबसे आखिरी श्रेणी के बड़े से बड़े आपात उपाय भी नाकाफी साबित हो रहे हैं. जब दिवाली के पहले ही अस्पतालों में सांस के मरीज़ों की संख्या 25 फीसद तक बढ़ चुकी थी तो अब 1000 के आंकड़े के पास पहुंचते वायु प्रदूषण से क्या भयावह स्थिति बनेगी इसका अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है.

किसी देश में यह संकट पहली बार आया है?
ऐसा लग रहा है जैसे दुनिया में हमारे ऊपर ही पहली बार यह विपदा आन पड़ी है. खासतौर पर जब इससे निपटने के कोई शोध आधारित उपाय सरकारें नहीं ढूंढ पा रही हैं. उससे तो और लगने लगा है जैसे यह कोई नई विपदा है जिससे निपटने की कोई नज़ीर हमारे नीति निर्माताओं के पास मौजूद नहीं है. दरअसल यह समस्या सिर्फ भारत में ही पहली बार नहीं आई है. विकास और आर्थिक वृद्धि की दौड़ के चक्कर में कई विकसित देश ऐसी स्थितियों से गुज़र चुके हैं. वे देश ठीक इन्हीं स्थितियों से गुज़रे भी हैं और व्यवस्थित, सख्त उपायों से इस समस्या पर काबू पाने में सफल भी हुए हैं.

ऐसे में प्रदूषण नियंत्रण के लिए नीतियां बनाने वाली भारतीय एजेंसियों और सरकारी विभागों को क्यों नहीं जान लेना चाहिए कि विश्व के बाकी देश ऐसी स्थितियों से कैसे निपटे? दूसरे भुक्तभोगी देशों के किए उपाय भारत के लिए भी मददगार हो सकते हैं.

विश्व के दूसरे शहरों ने कैसे पार पाया
जैसी स्थिति आज दिल्ली एनसीआर में है, वैसी चीन के बीजिंग में भी कुछ साल पहले थी. लेकिन चीन ने एक राष्ट्रीय एयर क्वालिटी एक्शन प्लान बनाया. जिसमें आर्थिक विकास की रफ़्तार को कम करके पहले पर्यावरण के सुधार पर लगने को प्राथमिकता पर रखा.

शहर के आसपास कोयले से संचालित सभी संयंत्र बंद करा दिए गए. वाहनों पर क्रमिक पाबंदी लगा दी गई. जन परिवहन को और बेहतर बनाने में निवेश किया गया. प्रदूषण स्तर बढ़ने पर स्थानीय सरकारों से जुर्माना लेना शुरू किया. और उद्योगों को पर्यावरण संगत तरीके अपनाने के लिए प्रोत्साहन देने के कार्यक्रम बनाए गए.

फ्रांस की राजधानी पेरिस में कई ऐतिहासिक और केन्द्रीय स्थानों पर वाहनों के जाने पर पाबंदी है. नियमित स्तर पर ऑड-ईवन के उपाय को उपयोग में लाया जाता है. प्रदूषण बढ़ाने वाले कार्यक्रमों और त्योहारों के दौरान जन यातायात को मुफ्त कर दिया जाता है. मनोविज्ञान की भाषा में इसे टोकन पद्धति कहते हैं. इसी तरह नीदरलैंड्स में राजनीतिकों द्वारा 2025 तक सभी डीजल और पेट्रोल से चलने वाली गाड़ियों की बिक्री पूरी तरह से बंद कर दिए जाने का प्रस्ताव दिया गया. जिसके क़ानून बनते ही सिर्फ हाइड्रोजन और बिजली से चलने वाली नई गाड़ियां ही खरीदी जा सकेंगी.

जर्मनी के फ्राईबर्ग शहर में 500 किलोमीटर लंबे बाइकवेज़ और ट्रेमवेज़ लोगों के लिए बनाए गए हैं. पनिशमेंट की बजाए टोकन पद्धति से वहां जन यातायात बेहद सस्ता है. फ्राईबर्ग में जिस व्यक्ति के पास गाड़ी नहीं होती है उसे सस्ते घर, मुफ्त सरकारी यातायात जैसे लाभ दिए जाते हैं. कोपेनहेगन ने 2025 तक खुद को कार्बन न्यूट्रल बनाने का लक्ष्य तय किया है. जिसके लिए वहां की सरकार और लोग पूरी गंभीरता से लगे हुए हैं. वहां इस समय साइकिलों की संख्या वहां की जनसंख्या से ज्यादा हो चुकी है.

फ़िनलैंड की राजधानी अपने सरकारी यातायात को बेहतर बनाने में भारी निवेश कर रही है जिससे नागरिकों को निजी गाड़ियों के इस्तेमाल की ज़रुरत ही ना महसूस हो. ज़्यूरिक ने एक समय में शहर की सभी पार्किंग की जगहों में कितनी गाड़ियां दाखिल हो सकती हैं इसकी एक सीमा निर्धारित कर दी है. उनके भरते ही नई गाड़ियों को न तो शहर में प्रवेश दिया जाता है न ही शहर के अंदर की गाड़ियों को कहीं पार्क करने की जगह दी जाती है. इस उपाय से वहां चमत्कारिक रूप से प्रदूषण के स्तर और ट्रैफिक जैम में गिरावट देखी गयी है.

दक्षिणी ब्राज़ील के शहर क्युरिचीबा (बनतपजपइं) में इस समय दुनिया के सबसे लम्बे और सबसे सस्ते बस सिस्टमों में से एक लोगों के लिए उपलब्ध है. वहां की 70 फीसद आबादी जन यातायात का उपयोग कर रही है. ऐसे कई देशों के उदहारण और परखे हुए उपाय उपलब्ध हैं. भारत अगर चाहे तो अपनी समस्या के लिए विश्व के इन देशों की ओर देख सकता है.

सभी देशों के उपाय में क्या समानता है!
विश्व के सभी देशों ने सबसे पहले आर्थिक वृद्धि और विकास की दर के आंकड़े की चिंता को पीछे छोड़ा तब वहां प्रदूषण से निपटने के उपाय कारगर हो पाए. आर्थिक विकास और सतत विकास के फ़र्क को समझे बिना प्रदूषण से निपटना हमेशा मुश्किल रहेगा. इन देशों के उपायों में अपने लिए देखने की बात यह है कि उन देशों में इस समस्या को आर्थिक रूप से प्राथमिकता की सूची में किस स्थान पर रखा गया? और इससे निजात पाने के लिए किस स्तर का निवेश इन देशों ने किया?

मसलन वहां उद्योग संयंत्रों को बंद करना, सरकारी यातायात को निजी से बेहतर बनाना या डीजल पेट्रोल के वाहन न इस्तेमाल करने पर सस्ते घर और दूसरी आर्थिक सुविधाओं जैसे लाभ देने के लिए भारी सरकारी निवेश की ज़रूरत पड़ी होगी. समझने की बात यह है कि सिर्फ कड़े कानून और सजा के प्रावधान से जनभागीदारी नहीं बढ़ाई जा सकती. और जनभागीदारी के बिना प्रदूषण नियन्त्रण का कोई भी उपाय कारगर नहीं हो सकता.

(लेखिका, मैनेजमेंट टेक्नोलॉजी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)

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