बाघ के आंगन में ममता की दास्तां: धर्मेंद्र सिंह
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बाघ के आंगन में ममता की दास्तां: धर्मेंद्र सिंह

बाघ के आंगन में ममता की दास्तां: धर्मेंद्र सिंह

यह देवकी के लिए असह्य था. अपनी आठ संतानों को गंवाने के उपरांत जब श्रीकृष्ण पैदा हुए तो देवकी किसी भी ऐसे तर्क को सुनने को तैयार नहीं थीं जो उन्हें उनके पुत्र से वंचित रखकर उनके वात्सल्य को कुंठित कर दे. वह खीझ उठती हैं. अपने पति को उलाहना देती हैं. 'अहो पति, सो उपाय कछु कीजै'... वात्सल्य की करुणा से बेहाल मां का हृदय केवल अपने पुत्र के जीवन को जीता हुआ देखना चाहता है. चाहे जैसे भी हो, मां कहती है..'बुधि-बल, छल-बल,कैसेहु करिके,काढ़ि अनतहीं दीजै' .

 

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'कैसेहु करिके'..यही तो करती है मां. यही करती रही है, मां यही करती रहेगी, मां 'कैसेहु करिके' का यह शब्द मानो रोज ही प्रकृति में प्रतिध्वनिति होता हो. कहीं अभिव्यक्त होकर, कहीं अव्यक्त रहकर. मातृत्व की प्रबल अनुभूतियों से मानवेत्तर जगत भी क्या कम भरा पड़ा है !वह खुलकर जितना हमारे जीवन-जगत में घटा है,उस से कहीं अधिक प्रकृति के अनगिनत जटिल जीवन-रूपों में भी घटता रहता है . वात्सल्य हमारे आंगनों में भी है .वात्सल्य सुदूर वनों में भी है .वनों के वात्सल्य को देर से समझा गया है. लेकिन यह उस से कम भाव-प्रवण कतई भी नहीं है जो मानव-जीवन के सुविज्ञ आंगनों का वात्सल्य है. माएं इस ओर भी हैं, माएं उस ओर भी. दोनों रहस्मय .दोनों प्रणम्य. वन के वात्सल्य में ऐसी ही एक मां है ...बाघिन.

 

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बाघों ने सदियों से मनुष्य को भय और विस्मय के दोहरे आवरण से बांधे रखा है. उसी बाघ के मातृत्व रूप को बहुत बर्षों बाद ही गहराई में जाना जा सका. जंगल में बाघिन को बच्चे जनते हुए शायद आज तक किसी ने भी नहीं देखा. बाघिन के लिए अपने मातृत्व का चयन प्रकृति के कठोर नियमों से बंधा होता है. अपने रहस्यपूर्ण एकाकीपन में विचरते-विचरते मादा किसी सुस्थापित इलाके के शक्तिशाली बाघ के सम्पर्क में आती है. मेटिंग की यह प्रक्रिया दो से तीन दिन चलती है. यह जानना दिलचस्प है कि दोनों दिन में 50 बार से अधिक मेटिंग करते है और प्रत्येक बार यह अवधि 10 से 15 सेकंड से अधिक की नहीं होती. मेटिंग के दौरान दोनों ही प्रायः बनावटी आक्रामकता का प्रदर्शन करते हैं .दोनों फिर एकाकी होकर अपने अपने इलाकों में चले जाते हैं .

 

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मां 100 से 110 दिनों के भीतर बच्चे पैदा करती है. ठीक इसी वक्त से एक मां-बाघ के जीवन का वह चरण आरम्भ होता है जो मुझे वन के वात्सल्य का सबसे चरम रूप प्रतीत होता है. शावक अंधे पैदा होते हैं. एक माह तक जंगल के क्रूर परिवेश में असहाय ,दृष्टिहीन शावक मां को चिंतित रखते हैं .एकाकी मीलों ,स्वतंत्र और निर्भय हो घूम-घूमकर अपना इलाका सुरक्षित रखने वाली मां एक से डेढ़ किलोमीटर के दायरे में सिमट जाती है. धूर्त तेन्दुओं, जंगली-श्वानों,हाथियों,अजगर,भालुओं,और अनगिनत पशुओं से दृष्टिहीन शावकों को बचाये रखना उसकी सबसे बड़ी चुनौती होती है. पहले दो महीने तक बच्चे मां के दूध पे पलते हैं .खतरे की जरा सी आहट पाते ही वह बच्चों को अपने दांतों में दबाकर घने अंधेरों में जाकर अपनी जगह बदल देती है .बच्चों के साथ चलने लायक हो जाने तक वह ऐसा करती ही रहती है.

अपने से छोटे और शक्ति की दृष्टि से अधीनस्थ जानवरों से तो वह खतरे की स्थिति में अपने बच्चों के लिए किसी भी हद तक भिड़ जाती है,लेकिन दूसरे शक्तिशाली नर-बाघों से सुरक्षा उसके सामने सबसे बड़ी चुनौती रहती है .मां फिर भी लड़ती है .बच्चों का पिता -बाघ अपने स्वभावानुरूप अकेला विचरता है .वह सुरक्षा के लिए नियत तो होता है, लेकिन खतरों की दशा में हमेशा साथ मौजूद नहीं मिलता.

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(सभी तस्वीरें लेखक धर्मेंद्र सिंह से साभार)

प्रकृति में संघर्ष ने जीवन और मृत्यु की जो अनिश्चितता पैदा की है, उसी के अनुरूप ही हर बाघ अपने स्वयं की संतति-विस्तार के लिए दूसरे की संतति को जीवित नहीं छोड़ता .बाघिन मां अपने शावकों को बचाए रखने को बेचैन रहती है .'बुधि-बल, छल-बल,कैसेहु करिके....' अपने-अपने बच्चों को बचाए रखने का यह उपक्रम वनों की माओं को भी उसी तरह मां सिद्ध करता है जैसे मानवों की मां को . हमारे दर्शन में भी तो प्रकृति मां के रूप में कल्पित है .हम बिगड़ैल बच्चे जरूर सिद्ध हुए हों .शरारती और कभी कभी हद से ज्यादा शैतान .शावक भी क्या कम नटखट होते हैं ! मां से चिपटते,खेलते, उस से सीखते,शिकार की नकल करते .पंद्रह महीने होते-होते दूध के दांत गिर जाते हैं .अगले पांच महीने तक ही मां के साथ रहते हैं .यह विच्छेद की अवधि होती है .बड़े हो रहे शावक मां का साथ छोड़ने की प्रवृत्ति दर्शाने लगते हैं .मां भी उन्हें अक्सर दूर चले जाने के लिए प्यार भरी डपट देती है .प्रकृति ने उन्हें एकाकीपन के लिए अभिशप्त किया है .यही शक्तिशाली होने का श्राप है जो सभी को भुगतना होता है, मानवों को भी, बाघों को भी .

लेकिन मातृत्व की यह यात्रा कभी नहीं रुकती. जैविक संदर्भो में यह सभी बातें कुछ फैक्ट्स मात्र लगती हैं .पशुओं के जीवन हम प्रायः हिकारत से ही उच्चारित करते हैं. मातृत्व का विराट रूप लेकिन मानव और मानवेत्तर दोनों ही जीवन-रूपों को एक पुल की भांति जोड़ देता है .मां का अभाव भी बड़ा है, प्रभाव भी ,वन में भी, आंगन में भी. 

"चीटियाँ अंडे उठा कर जा रही हैं 

और चिड़ियाँ नीड़ को चारा दबाए
थान पर बछड़ा रंभाने लग गया है
टकटकी सूने विजन पथ पर लगाए

थाम आँचल थका बालक रो उठा है
है खड़ी माँ शीश का गट्ठर गिराए
बाँह दो चुमकारती-सी बढ़ रही हैं 
साँझ से कह दो बुझे दीपक जलाए

शोर डैनों में छिपाने के लिए अब
शोर माँ की गोद जाने के लिए अब
शोर घर-घर नींद रानी के लिए अब
शोर परियों की कहानी के लिए अब

एक मैं ही हूँ कि मेरी साँझ चुप है 
एक मेरे दीप में ही बल नहीं है 
एक मेरी खाट का विस्तार नभ-सा
क्योंकि मेरे शीश पर आँचल नहीं है"(सर्वेश्वर दयाल सक्सेना द्वारा रचित कविता)

(धर्मेंद्र सिंह भारतीय पुलिस सेवा के उत्तर प्रदेश कैडर के अधिकारी हैं)

डिस्क्लेमर : (इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं) 

 

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