अब लड़कियां बोलने लगीं हैं, वो अपने साथ हुई बदतमीजी के लिए खुद को ज़िम्मेदार नहीं मानती हैं.
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दिल्ली में 23 साल की लड़की ने बस में गंदे तरीके से घूरने वाले एक शख्स को अपनी बहादुरी और हिम्मत की बदौलत पुलिस के हवाले कर दिया. ये खबर हर जगह चल रही है. मेरी नज़रों के सामने से भी गुज़री, ठहरकर पढ़ी तो लगा कि ये तो हम लड़कियों के लिए बहुत ही आम सी बात है. घर से जब हम काम करने के लिए निकलते हैं तो ना जाने कितनी निगाहें गंदे तरीके से हमारे जिस्म को घूरती हैं. ऐसे लगता है कि वो हमारे कपड़ों के भीतर झांक रही हैं. लेकिन हमें तो आदत है इन सब बातों की. हमें यही सिखाया जाता है कि कोई कुछ कहे तो चुप रहो जबरन का तमाशा नहीं करना. लड़की जात हो, एक बार बदनामी हो गई तो कौन शादी करेगा. लेकिन ये छोटी-छोटी बातें, छोटी छोटी अनदेखियां ही बड़ी-बड़ी वारदातों की नींव होती है.
दिल्ली की बस मे सफ़र करने वाली लड़की कहती है कि उसके सामने खड़ा शख्स उसे इतने गंदे तरीके से घूर रहा था कि घिन आ गई. लड़की कहती है कि उसने भी पलटकर घूरना शुरू कर दिया ताकि वो कुछ डरे लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. लड़की ने इस घटना की अनदेखी करने के बजाय पुलिस को फोन लगा दिया. लड़की को पुलिस से बात करते देख आरोपी मांफी मांगने लगा. लेकिन लड़की ने बस ड्राइवर को गाड़ी न रोकने के लिए कहा. ड्राइवर ने बस तो रोक ली लेकिन दरवाज़े नही खोले.
हैरानी की बात ये है कि जब एक लड़की उसके साथ बदतमीजी करने वाले शख्स को सज़ा दिलवाने की हिम्मत कर रही थी तो बस में मौजूद तमाम यात्रियों को अपनी अपनी फिक्र हो रही थी कि कहीं वो दफ्तर, या घर जाने में लेट न हो जाएं. यात्रियों ने उस लड़की की मदद करने के बजाय बस का दरवाज़ा खुलवाने की ज़िद की. आखिरकार ड्राइवर ने बस का पिछला दरवाज़ा खोल दिया. लड़की खुद दरवाज़े के पास खड़ी रही ताकि आरोपी भाग न निकले. जब पुलिस आई तो आरोपी को पकड़ लिया गया. वो शराब के नशे में था. पूछताछ में मालूम चला कि वो बीएसएस कॉन्स्टेबल है. सब लड़की की हिम्मत की दाद दे रहे हैं लेकिन उस बस में किसी ने बोलना ज़रूरी नहीं समझा. हां जब आरोपी पुलिस के साथ चला गया तो कुछ महिलाएं कह रही थी कि वो उन्हें भी यहां वहां छू रहा था.
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बस, ट्रेन, शेयरिंग ऑटो, बाज़ार जैसे भीड़भाड़ वाले इलाकों में बहुत आम है कि कोई आदमी लड़की के जिस्म को टटोलता हुआ, उसे छूता हुआ निकल जाए. लड़कियां थोड़ी असजह होती हैं लेकिन फिर सब भूल आगे बढ़ जाती है. लेकिन अब लड़कियों ने विरोध करना, खुलकर बोलना शुरू कर दिया है. इस घटना के बाद से मुझे बचपन की एक बात याद आती है. दीदी की एक दोस्त है. वो जब ऑटो से सफ़र कर रही थीं तो एक शख्स बगल में बैठे हुए कोहनी मार रहा था, काफी देर तक इग्नोर करने के बाद दीदी की दोस्त उठीं और उस आदमी की गोद में बैठ गईं और बोली कि लो अब कर लो जो करना है. वो आदमी जो बड़ी बेशर्मी से कुहनी मार रहा था अचनाक से दीदी के इस रवैये से हड़बड़ा गया और भाग गया.
बस में मेरे साथ भी ऐसा कई बार हुआ कि बगल में बैठा हुआ शख्स कुहनी मारने लगा. ऐसे में मैं खड़ी हो जाती थी और कहती थी कि भाईसाहब शायद आपको जगह कम पड़ रही है इसलिए पूरी सीट पर आप ही बैठ जाएं. अगर थोड़ा भी शर्म वाला बंदा होगा तो तमीज़ से बैठ जाएगा. ऐसे बहुत से वाकिये होते हैं हम सबकी ज़िंदगी में जहां हमें बोलना ज़रूरी होता है. अब ये मानना छोड़ देना होगा कि किसी के घूरने से क्या होगा, कोई छूकर निकल गया तो क्या हो गया. लड़कियों का शरीर कोई पब्लिक प्रॉपर्टी नहीं है जो कोई भी छूकर निकल जाए.
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दरअसल लड़कियां इतनी मज़बूती से विरोध कर पाएं, हिम्मत दिखा पाएं इसके लिए ज़रूरी है कि शुरुआत घर से की जाए. बेटियों की परवरिश इस तरह की जाए कि वो खुद को किसी से कमतर ना आंके, फिर चाहे वो शारीरिक रूप हो या फिर मानसिक रूप से. लड़कियों के लिए शारीरिक मज़बूती तो ज़रूरी है ही लेकिन उससे भी ज़रूरी है उनमें ये भरोसा, यकीन पैदा करना कि तुम कमज़ोर नहीं हो, तुम्हें कोई ज़ुल्म सहना नहीं है. तुम बोलो, खुलकर बोलो हम साथ हैं. माता-पिता को चाहिए कि वो अपनी बेटियों का साथ दें. उनसे कहें कि तुम किसी ज़ुल्म, नाइंसाफ़ी, बत्तमीज़ी को बर्दाश्त नहीं करना. दिल्ली में जो हिम्मत लड़की ने दिखाई वो हिम्मत हर लड़की को दिखानी चाहिए. खुशी इस बात की भी है कि अब लड़कियां बोलने लगीं हैं, वो अपने साथ हुई बदतमीजी के लिए खुद को ज़िम्मेदार नहीं मानती है, न ही उस पर शर्म करती हैं. तो ज़रूरी है कि अब खुलकर विरोध किया जाए, बोला जाए और सरेआम बदतमीजी करने वालों को मुंह की खानी पड़े.
लड़कियों तुम चुप नहीं रहोगी तो ज़ुल्म, ज्यादती भी कम होगी. हालांकि मां-बाप को चाहिए कि वो अपने बेटों को भी सिखाएं कि लड़कियों की इज़्ज़त कैसे करते हैं. लड़कियां सिर्फ़ जिस्म नहीं होती हैं वो तुम्हारी तरह ही इंसान हैं. माता-पिता की ये ज़िम्मेदारी है कि वो सिर्फ़ बेटियों को ही सीख न दें बल्कि बेटों को भी ज़िम्मेदार बनाए और उन्हें बताएं कि जिस तरह उनकी बहन-मां की इज़्ज़त है ठीक उसी तरह सड़क पर चलने वाली हर लड़की की इज्ज़त होती है.
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(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक विषयों पर टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)