इस तरह के काल्पनिक सवालों के जवाब तो होते नहीं हैं, लेकिन इसी तरह के विषयों पर डॉक्टर साहब ने अपने जीते-जी तो बातें कहीं थीं, उन्हें अगर दोबारा पढ़ा जाए तो उनके विचारों का कुछ अंदाजा लग सकता है.
Trending Photos
14 अप्रैल को डॉ. भीमराव आंबेडकर की 127 वीं जयंती है. इस बार जयंती इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि देश में दलित उत्पीड़न कानून में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से किए गए संशोधनों पर न सिर्फ बहस बल्कि उग्र आंदोलन चल रहे हैं. पहले विपक्ष और बाद में सत्ता पक्ष दोनों की ही राय है कि दलित उत्पीड़न कानून में से तत्काल गिरफ्तारी वाला प्रावधान लचीला किया जाना, दलित हितों पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा. इस फैसले के बाद दलित चिंतकों की तरफ से न्याय पालिका में आरक्षण की मांग भी उठाई जाने लगी है.
उनका मानना है कि अगर न्याय पालिका में दलितों का उचित प्रतिनिधित्व होता तो इस तरह के फैसले न आते. ऐसे में सवाल उठता है कि अगर डॉ. आंबेडकर इस वक्त होते तो इस फैसले पर क्या प्रतिक्रिया देते? इस तरह के काल्पनिक सवालों के जवाब तो होते नहीं हैं, लेकिन इसी तरह के विषयों पर डॉक्टर साहब ने अपने जीते-जी तो बातें कहीं थीं, उन्हें अगर दोबारा पढ़ा जाए तो उनके विचारों का कुछ अंदाजा लग सकता है.
यहां डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर संपूर्ण वांग्मय खंड -10 के असहाय स्थिति अध्याय का उद्धरण पेश किया जा रहा है. यह पुस्तकर भारत सरकार के सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के अधीन काम करने वाले डॉ. आंबेडकर संस्थान द्वारा प्रकाशित है. नीचे के वाक्य डॉ. आंबेडकर की कलम से लिखे गए हैं-
1. मजिस्ट्रेटों के वर्ग से सवर्ण हिंदुओं का नाता सगे-संबंधी जैसा है. अस्पृश्यों के प्रति वे भी सवर्ण हिंदुओं की भांति भावनाओं और पूर्वाग्रहों से ग्रस्त रहते हैं.
2. यदि कोई अस्पृश्य किसी पुलिस अधिकारी के पास सवर्ण हिंदू के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने जाता है तो सुरक्षा के स्थान पर उसे ढेर सारी गालियां सुननी पड़ती हैं. या तो उसे शिकायत किए बिना ही भगा दिया जाता है या रिपोर्ट ऐसी झूठी दर्ज की जाती है कि उससे स्पृश्य हमालावरों को बच निकलने का मार्ग मिल जाता है.
3. यदि वह मजिस्ट्रेट की अदालत में अपराधियों के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराता है तो उस पर क्या कार्रवाई होगी, यह पहले से ही मालूम हो जाता है. किसी अस्पृश्य को कोई हिंदू गवाही देने के लिए नहीं मिलेगा, क्योंकि गांव में पहले ही षड़यंत्र रच दिया जाता है कि कोई भी अस्पृश्य की हिमायत नहीं करेगा, चाहे सच कुछ भी क्यों न हो.
4. यदि गवाह के रूप में अस्पृश्यों को पेश करेगा तो मजिस्ट्रेट उसकी गवाही स्वीकार नहीं करेगा, क्योंकि वह आसानी से कह देगा कि वह तो उसका हितैषी है, इसलिए इसे स्वतंत्र गवाह नहीं कहा जा सकता.
5. यदि वे स्वतंत्र गवाह हैं भी तो मजिस्ट्रेट के सामने एक आसान सा तरीका यह कह देना है कि उसे अस्पृश्य के पक्ष में गवाह सच्चा प्रतीत नहीं होता.
6. वह निडर होकर ऐसा फैसला सुना देगा, क्योंकि वह भली भांति जानता है कि उसके ऊपर की कोई अदालत, उसके इस फैसले को नहीं बदलेगी, क्योंकि यह एक स्थापित नियम है कि अपील सुनने वाली अदालत मजिस्ट्रेट के फैसले में दखल न दे, जो गवाहियों पर आधारित है और जिसकी उसने जांच की है.
7. अपने इन तर्कों के समर्थन में डॉ. आंबेडकर सीधे महात्मा गांधी और सरदार वल्लभ भाई पटेल के आचरण पर सवाल उठाने वाला उदाहरण पेश करते हैं. इसके लिए वे 8 अगस्त 1937 में बंबई प्रांत के कवीथा गांव में हुई दलित उत्पीड़न की घटना का उदाहरण देते हैं. पेश है डॉ. आंबेडकर की कलम से लिखा उद्धरण-
8. इस मामले में सबसे अजीब पक्ष श्री गांधी और उनके सहयोगी वल्लभ भाई पटेल की भूमिका का है. श्री गांधी ने यह पूरी घटना जानते हुए कि कवीथा गांव में सवर्ण हिंदुओं ने अस्पृश्यों पर क्या-क्या अत्याचार और जुल्म किए थे, अस्पृश्यों को केवल यही सलाह देना काफी समझा कि अस्पृश्य गांव छोड़ दें. उन्होंने तो इतना भी सुझाव नहीं दिया कि उपद्रवियों को अदालत के कटघरे में खड़ा किया जाए.
9. उनके सहयोगी वल्लभ भाई पटेल की भूमिका तो और विचित्र रही. वह सवर्ण हिंदुओं को यह समझाने गांव गए कि वे अस्पृश्यों पर जुल्म न करें. लेकिन सवर्णों ने उनकी एक न सुनी. फिर भी इन्हीं महाशय ने अस्पृश्यों की इसी बात का विरोध किया कि हिंदुओं पर मुकदमा दायर किया जाए और अदालत में इन्हें सजा दिलाई जाए. उनके विरोध की परवाह न करते हुए अस्पृश्यों ने शिकायत दर्ज कराई. लेकिन अंतत: श्री पटेल ने अस्पृश्यों को विवश किया कि वे सवर्ण हिंदुओं के खिलाफ अपनी शिकायत वापस ले लें. उन्होंने एक प्रकार के वायदे का नाटक रचा कि हिंदू छेडछाड़ नहीं करेंगे. यह एक ऐसा वायदा था जिसे अस्पृश्य कभी लागू नहीं करवा सकते थे.
10. नतीजा यह हुआ कि अस्पृश्यों ने अत्याचार सहा और उन पर अत्याचार करने वाले लोग श्री गांधी के मित्र श्री वल्लभभाई पटेल की मदद से बचकर साफ निकल गए.