पंडित जी का उदय उस काल में हुआ जब नेहरू युग अपनी प्रचंडता के शिखर पर था. उस समय के बौद्धिक वर्ग ने उनके साथ न्याय नहीं किया. अब भी जब उनकी बात चलती है तो ऐसे बहुतेरों का जी घूमने लगता है, मितली आने लगती है तो क्या करिएगा .
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मुगलसराय जंक्शन अब पं.दीनदयाल उपाध्याय के नाम से जाना जाएगा. यह सुनते ही कई योद्धा विचलित हो गए. कह रहे हैं इतिहास को भगवा रंग ओढाया जा रहा है हम इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते. यह मुगलों का सराय था और मुगलों का सराय ही रहेगा. मैंने एक लेख के जरिए पूछा कि जब यहां मुगल नहीं थे तब क्या था..? वे सनातनी तो हैं नहीं. बारहवीं सदी में मारकाट, लूटपाट करने आए थे. उससे पहले इस इलाके को किसी न किसी नाम से तो जाना ही जाता रहा होगा. मुगलों ने जिस तरह उसे मिटाकर अपना सराय बना लिया वैसे ही हम भी मिटाकर अपना नाम दे दें तो क्या हर्ज….?
एक बौद्धिक ने तर्क दिया इतिहास कोई पेंसिल से लिखी इबारत तो नहीं कि इरेजर से मिटाकर अपने हिसाब से लिख दिया जाए. मैंने कहा सही बात है पर मिटाने की जगह जैसे उन आक्रांताओं ने हमारे इतिहास के पन्ने फाड़े और हमारी सांस्कृतिक विरासत को अरब सागर में डूबोने की कोशिश की तो अब वो पुरानी स्थिति बहाल क्यों नहीं की जा सकती, जो उनके आने से पहले थी. इतिहास तो विजेता की दासी होता है, अकबर की तरह वह उसे अपने हिसाब से लिखवा लेता है. इतिहास हमेशा तलवार या सत्ता की जूती के नोक पर लिखवाया जाता है. मैं कभी उसे यथार्थ नहीं मानता.
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बहरहाल बहस को हल्का करते हुए मैंने कहा- कि यदि विक्टोरिया टर्मिनल शिवाजी के नाम से, दादर लोकमान्य तिलक के नाम से, पटना जंक्शन राजेन्द्र बाबू के नाम से और तमाम देशभर के संस्थान, हवाई अड्डे गांधी-नेहरू के नाम से हो सकते हैं तो ये जंक्शन पं.दीनदयाल जी के नाम से क्यों नहीं? ये सीधी सहज बात भी बहुतों को नहीं भाई और मुझे सीधे दक्षिणपंथी, सांप्रदायिक, दकियानूस, अज्ञानी घोषित करने में मिनट भर का वक्त नहीं जाया किया. अपने देश में मुश्किल यह है कि ज्यादातर बौद्धकों की या तो बांई आंख फूटी है या दांयी. दोनों आंखों से देखने वाले विरले हैं.
खैर जीवनभर एक फटा दुशाला ओढ़े देशभर में घूम घूमकर भारतीय संस्कृति और एकात्म मानव दर्शन की अलख जगाने वाले इस महाव्रती के नाम से कुछ करिए या न करिए उसकी महानता पर क्या फर्क पड़ता है? फर्क तो हम कृतघ्न लोगों में पड़ना चाहिए जिन्होंने उन्हें अब तक उन्हें वक्त के कूडेदान में डाल रखा था. मुगलसराय में पंडित जी का पार्थिव शरीर मिला था. समय का पहिया घूमता तो अपने हिसाब से है पर किसको कहां लाकर पटक दे किसी के बस की बात नहीं. पंडित जी के पिता रेल में थे. शैशवकाल में ही उनका साया उठ गया. मामा ने पाला वो भी रेलवे में थे. पंडित जी के जमाने की राजनीति का नारा ही था-एक पांव रेल में, एक पांव जेल में. जिंदगी का सफर रेल के साए से शुरू हुआ रेल के ही आगोश में खत्म.
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पंडित जी का उदय उस काल में हुआ जब नेहरू युग अपनी प्रचंडता के शिखर पर था. उस समय के बौद्धिक वर्ग ने उनके साथ न्याय नहीं किया. अब भी जब उनकी बात चलती है तो ऐसे बहुतेरों का जी घूमने लगता है, मितली आने लगती है तो क्या करिएगा . उस काल में जब संविधान और लोकतंत्र से लेकर अर्थनीति, संस्कृति, शिक्षा और जीवन के सभी प्रसंगों के दृष्टांन्त यूरोप और सोवियत से लिए जा रहे थे तब पंडित जी ने सनातनी संस्कृति को युगानुकूल अंगीकार करने की बात की थी. वे मानते थे कि हमने यदि अपने आदर्श अपने ही अतीत और संस्कृति से नहीं ढ़़ूढे तो देश भटक जाएगा. वे जियो पॉलिटिक्स की नहीं वरन राष्ट्र के सांस्कृतिक भूगोल की बात करते थे.
पं.दीनदयाल विचार प्रकाशन की एक पत्रिका को संपादित करते हुए उपाध्याय जी पर थोड़ी बहुत सामग्री पढ़ने को मिली. सन् 56 के आसपास दिए गए भाषणों और आलेखों के आधार पर मैंने दो पुस्तिकाओं का संपादन किया. पहली पुस्तिका थी..अखंड भारत क्यों.? और दूसरी .बेकारी की समस्या... अखंड भारत पंडित जी का सपना था. लेकिन न राजनीतिक आधार पर और न ही तलवार की नोकपर. वो सभी भारतवासियों को चाहे वह किसी पंथ, संप्रदाय का हो एक ही कुल का मानते थे. वह कुल जो सनातन से हमें सांस्कृतिक डोर में बांधे हुए है. वे धर्म को अंग्रेजी का रिलीजन नहीं मानते थे. हमारा धर्म वह जो सनातन की संस्कृति के साथ चला आ रहा है. वे जो बाहर से आए और यहां के हवा पानी में रचबस गए उन्हें भी आत्मसात करने की बात करते थे.
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वे मानते थे कि भारत में रह रहे मुसलमान भी अपने ही सांस्कृतिक कुल के अभिन्न हिस्से है. यहां तक कि ..हमारे खून से ही उनका खून..है. वे कहते थे कि यदि भारत से माता का शब्द विलोपित कर दिया जाए तो यह सिर्फ जमीन का एक बेजान टुकड़ा भर रह जाएगा. पंडित जी ने विकट गरीबी, उपेक्षा देखी. जीवन भर अपने सिध्दांतों की स्थापना के लिए संघर्ष किया. वे जनसाधारण के प्रतिनिधि थे. गांधी को छोड़ प्रायः राजनेताओं ने भारत को पढकर जाना, वहीं पंडिज्जी ने उसी भारतीयता को जी कर महसूस किया. इसी महसूसियत से ही अंत्योदय निकला.
मार्क्स जिन्हें सर्वहारा कहते थे. गांधी के लिए जो दरिद्रनारायण थे वही उपाध्याय जी के लिए अंत्योदयी थे. सभ्यता और विकास की पंक्ति में आखिरी छोर पर खड़े जन. जिस दिन इनका उदय होगा उसी दिन भारत सबल होगा. उनकी अर्थनीति बिल्कुल गांधी के ग्रामस्वराज के निकट थी. पर उनका यह दर्शन था कि शरीर,आत्मा,मन,बुद्धि में से यदि एक भी अतृप्त रहा तो मनुष्य को सच्चा सुख नहीं मिल सकता.
राज्य का प्रयोजन यदि मानव के कल्याण से है तो इन चारों का विकास होना चाहिए क्योंकि मनुष्य इसी का समुच्चय है. यही एकात्म मानव दर्शन है. दीनदयाल जी किसी वाद के प्रवर्तक नहीं अपितु मनुष्य के जीवन दर्शन के प्रवाचक और उद्घोषक थे. यह दर्शन बताता है कि वे श्रीमद्भगवतगीता से कितने गहरे तक जुड़े या डूबे थे. लोकमान्य तिलक के गीता रहस्य और कर्मयोगशास्त्र के ..सुख दुख विवेक.. प्रकरण में उनके एकात्म मानव दर्शन के सूत्र मिल जाएगे.
पंडित जी ने ग्रंथ के बजाए फुटकर ज्यादा लिखा. उनके भीतर एक प्रखर संपादक भी था. राष्टधर्म, पांचजन्य, और स्वदेश.. मासिक, साप्ताहिक, व दैनिक पत्र निकाले. इनमें समय,समय पर जो संपादकीय और टिप्पणियां लिखी ज्यादातर वही उपलब्ध है. पार्टी अधिवेशनों में उनके द्वारा ड्राफ्ट किए गए प्रस्तावों से ही निकलकर एकात्म मानव दर्शन सामने आ पाया.
उपेक्षा और अपेक्षा से परे पंडित जी की मेधा के साथ उनके जीते जी न्याय नहीं हुआ. अभिजात्य राजनीति ने उन्हें और उनके दर्शन को कभी महत्व नहीं दिया. वे राजनीतिक दल के अगुवा होते हुए भी राजनीतिक प्रपंचों से दूर रहे. उनमें जनसामान्य को इतना दीक्षित करने की अभिलाषा थी कि चुनावी लोकतंत्र में वह अपना भला बुरा समझ सके. वे हठी थे और सिध्दांतों की राजनीति में खुद को होम कर देने की पराकाष्ठा तक जाने का माद्दा रखते थे.
उनका सरल जीवन और संघर्ष आखिरी छोर पर खड़े मनुष्य का जीवन संघर्ष रहा. वे कागद् लेखी से ज्यादा आंखन देखी पर विश्वास करते थे. भले ही उनके नाम पर बड़े उपक्रम हों, या न हों पर उनके जीवनदर्शन को जनजन तक पहुंचाने का यत्न होना चाहिए. यही उनके प्रति हम सबकी सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और टिप्पणीकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)