चुनाव से अधिक 'नरेटिव' की हार है विपक्ष के लिए ज़्यादा बड़ा झटका!
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चुनाव से अधिक 'नरेटिव' की हार है विपक्ष के लिए ज़्यादा बड़ा झटका!

पूरा चुनाव मोदी अपनी सरकार के कार्यों से अधिक अपनी बेदाग छवि, या यों कहें कि अपने चौकीदार होने पर लड़ रहे थे, जिनका खुद का परिवार दिल्ली की लाव-लश्कर से दूर गुजरात में एक सामान्य जीवन जीता है. मोदी की यह शैली कोई नई नहीं है.

चुनाव से अधिक 'नरेटिव' की हार है विपक्ष के लिए ज़्यादा बड़ा झटका!

2019 के लोकसभा चुनावों के नतीजे आने के साथ-साथ यह भी साफ हो गया कि जनता ने मोदी को देश की बागडोर संभालने के लिए सबसे उपर्युक्त विकल्प मानते हुए दोबारा उन्ही के हाथों में सत्ता की चाभी देना मुनासिब समझा है. सत्ता-विरोधी (एंटी इनकम्बेंसी) लहर को मोदी लहर ने इस तरह अपने अंदर समाहित कर लिया कि पार्टी को उत्तर प्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में तो बढ़त मिली ही जहां उसके अच्छे प्रदर्शन की आशा की जा रही थी, बल्कि पार्टी को बंगाल एवं ओडिशा जैसे राज्यों में भी भारी सफलता प्राप्त हुई, जिसकी संभावना लगभग न के बराबर थी. इन परिस्थितियों में यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि उनको मिला जनादेश वास्तव में ऐतिहासिक है जो भारतीय लोकतंत्र की इस लंबी विकास-यात्रा में एक मील के पत्थर के रूप स्थापित हो चुका है. ज्ञात रहे कि पंडित नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद मोदी देश के तीसरे (पहले गैर-कांग्रेसी) प्रधानमंत्री हैं जो पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में वापस आए हैं.

ऐसे में इन चुनावों के नतीजों में एक विशेष बात निकाल कर के सामने आई है जो  अब तक हुए चुनावों में शायद ही कभी देखने को मिली हो. देखा जाए तो इस बार विपक्ष केवल चुनाव ही नहीं, बल्कि एक बड़े अंतर से राष्ट्रीय स्तर पर नरेटिव भी हार चुका है. और आने वाले समय में नरेटिव की यह हार उसको चुनाव में सीटों के संदर्भ में मिली हार से कहीं ज़्यादा पीड़ा देने वाली है. नकारात्मक राजनीतिक कैंपेन और किसी व्यक्ति पर निजी हमले करने का क्या नुक़सान होता है, इसका परिणाम इस चुनाव के नतीजों ने अच्छी तरह स्थापित कर दिया है. प्रधानमंत्री मोदी द्वारा स्थापित 'आशा की राजनीति' (politics of hope) कांग्रेस द्वारा दशकों से की जा रही 'पात्रता की राजनीति' (politics of entitlement) से कहीं आगे निकल गई. 

राष्ट्रीय मुद्दों को कमतर आंकने की भूल
भारतीय जनता पार्टी के विपक्ष खड़े दलों ने जो सबसे बड़ी भूल की वो थी राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित विषयो को चुनावी रूप से साधारण/प्रभावहीन मान लेने की, जिसका उनको भारी खमियाज़ा भुगतना पड़ा है. दरअसल लुटियंस दिल्ली, या यों कहें कि खान मार्केट में स्थापित रहने वाले पत्रकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक ख़ास कुलीन वर्ग को कभी भी राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे की महत्ता समझ ही नहीं आती है. अपनी वैचारिक कुंठा से ग्रसित इन लोगों को कभी भारतीय राष्ट्र की परिभाषा से दिक्कत होती है, तो कभी भारत को एक सांस्कृतिक राष्ट्र कहे जाने से. इसीलिए यह लोग मान ही नहीं पाते कि भारत की जनता के लिए राष्ट्रप्रेम अन्य सभी मुद्दों में से सबसे ऊपर हो सकता है, फिर चाहे वो स्थानीय मुद्दे हों, धार्मिक, या जातिगत. ये लोग भारतीय समाज को आज भी उसी चश्मे से देखते हैं जिसमें व्यक्ति की जाति सबसे ऊपर होती है और उसकी सोचने-समझने की प्रक्रिया उसी के इर्द-गिर्द घूमती है. ऐसे में जब भाजपा ने राष्ट्रीय सुरक्षा को चुनावी मुद्दा बनाया तो सामाजिक वास्तविकताओं से पूर्ण रूप से कटा हुआ यह समूह और इनसे सलाह लेने वाले विपक्षी दल इस बात का अंदाज़ा भी नहीं लगा पाए कि जब बात देश की आती है तो जनता उसी मोदी पर भरोसा करती है जिसने आतंक के विरूद्ध सर्जिकल स्ट्राइक करने के लिए सेना को न केवल खुली छूट दी, बल्कि उनको यह भरोसा भी दिलाया कि इसके लिए पूरी सरकार उनके साथ खड़ी रहेगी.

राजनीतिक हिंसा 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के आगे फीकी
बंगाल में भाजपा की आंधी में जिस तरह ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, वाम मोर्चा और कांग्रेस बह गए उससे यह निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि अंग्रेजी ऑपनिवेशिक काल से ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के गढ़ रहे बंगाल में उस भावना की कोई कमी नहीं थी, जरूरत बस उसको एक मजबूत संगठन के सहारे खड़ा करने की थी. ममता बनर्जी ने जिस तरह 'जय श्री राम' के नारे को लेकर उत्पात मचाया उससे यह नारा वहां की जनता के लिए तृणमूल कांग्रेस की गुंडागर्दी के विरोध करने का एक माध्यम बन गया, जिसका फायदा परोक्ष रुप से भाजपा को मिला. यह नारा बंगाली भद्रलोक की उस मठाधीशी के खिलाफ भी था जिसने पूरे बंगाल की जनभावनाओं को कलकत्ता के कुछ फाइव स्टार बुद्धिजीवी वर्ग की विचारधारा के समकक्ष ला के खड़ा कर दिया था. गौरतलब है कि बंगाल में भाजपा को सबसे ज़्यादा समर्थन सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर खड़े उन दलित, पिछड़े एवं आदिवासी समुदायों से मिला जो अपने आप को तृणमूल की हिंसा, तुष्टिकरण और वामदलों के विकास-विरोधी, अव्यावहारिक रवैयों की वजह से ठगा हुआ महसूस कर रहे थे.

साफ छवि बनाम व्यक्तिगत आक्षेप
प्रधानमंत्री मोदी की सबसे बड़ी शक्ति उनकी साफ छवि और जनता के बीच जनता में से एक दिखने की उनकी शैली है. ऐसे में उनके ऊपर लगाए हुए व्यक्तिगत आरोप जनता को न तो पसंद आए और न ही वो इससे कभी भी जुड़ पाई. कांग्रेस द्वारा 'चौकीदार चोर है' और मायावती द्वारा उनकी निजी ज़िंदगी पर कटाक्ष करना बेहद बचकाना था, उस परिपेक्ष में जब विपक्ष के दामन में स्वयं भ्रष्टाचार और परिवारवाद के कई दाग लगे हों. पूरा चुनाव मोदी अपनी सरकार के कार्यों से अधिक अपनी बेदाग छवि, या यों कहें कि अपने चौकीदार होने पर लड़ रहे थे, जिनका खुद का परिवार दिल्ली की लाव-लश्कर से दूर गुजरात में एक सामान्य जीवन जीता है. मोदी की यह शैली कोई नई नहीं है. जो लोग उन्हें जानते है उनको पता है कि मोदी गुजरात में भी विधानसभा चुनाव अपने ऊपर एक जनमत संग्रह कराने के रूप लड़ते थे. प्रत्याशी कोई भी हो, जनता मोदी के नाम पर ही वोट देती थी. यही मॉडल उन्होंने इस चुनाव में भी अपनाया. मोदी सत्ता में रहते हुए भी उस एस्टेब्लिशमेंट का हिस्सा नहीं बने जो देश की जनता से कटा हुआ रहता है. यही खासियत उनको अन्य नेताओं से इतर करती है.

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जातिगत राजनीति बनाम 'सिर्फ़' जातिगत राजनीति
जो टिप्पणीकार इस जनादेश को जनता द्वारा जातिगत राजनीति को नकारने के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं वे पूरी तरह से सही नहीं हैं. इसमें कोई दो राय नहीं है कि जनता ने जाति विशेष के नाम पर राजनीति करने वाले दलों को नकार दिया है, लेकिन भाजपा ने भी चुनाव जीतने के लिए जातिगत समीकरणों का विशेष ध्यान दिया था. यहां भाजपा और विपक्षी दलों में दो बड़े अंतर हैं जिन्होंने जीत और हार का अंतर पैदा किया. पहले यह कि हर चुनाव क्षेत्र के हिसाब से भाजपा ने जातिगत समीकरणों में ध्यान में रख कर टिकट तो बांटे, लेकिन इसके अलावा चुनाव प्रचार में सरकार की कल्याणकारी योजनाओं, विकास कार्यों, प्रधानमंत्री मोदी की लोकप्रियता को भी बराबर से महत्व दिया. दूसरा कारण था भाजपा का हिंदुत्व कार्ड जिसका कोई उत्तर विपक्षी दलों के पास नहीं था. पिछड़े वर्ग से आने वाले प्रधानमंत्री की छवि ने मंडल और कमंडल दोनों को एक साथ साध लिया जिससे हिंदी भाषी क्षेत्रों में वोट जातियों में न बंट कर एकमुश्त भाजपा की झोली में गिरा.

लोकतंत्र को बचाने की दुहाई 
लोकतंत्र को बचाने और संस्थाओं को सुरक्षित करने के नाम पर कांग्रेस और विपक्षी दल इस चुनाव को 1977 के चुनाव की तरह प्रस्तुत करना चाह रहे थे जिसमे इंदिरा गांधी को आपतकाल के बाद हार का मुंह देखना पड़ा था. लेकिन वो यह बात समझ ही नहीं पाए कि न तो उनके पास जयप्रकाश नारायण जैसा कोई कुशल नेतृत्व है जो विरोधाभासी विचारधाराओं को मानने वाले अलग-अलग दलों को भी एक साथ एक मंच पर ला कर खड़ा कर सके और न ही मोदी इंदिरा गांधी हैं जिन्होंने देश के लोकतंत्र के साथ इतने बड़ा अन्याय किया हो. मोदी को 'लोकतंत्र-विरोधी' बताने वाला narrative बस मीडिया और एकेडमिक जगत में ही बंध कर रह गया. जनता का इससे कोई सरोकार नहीं हो पाया. विपक्ष की उम्मीदों के इतर उन्हें लोकतंत्र में और लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास पहले जैसा ही दिखा.

कांटो का ताज है नया जनादेश
भाजपा को मिला यह जनादेश जहां एक ओर प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह के लिए अत्यंत आनंद का विषय है, वहीं दूसरी ओर यह कांटो का ताज भी है. नई सरकार के लिए नई और पुरानी दोनों चुनौतियां तो हैं ही, नए और पुराने वादों को पूरा करने का अतिरिक्त बोझ भी है. बदलते वैश्विक परिवेश में नई सरकार के लिए अमरीका-चीन के बीच चल रहे व्यापार युद्ध से भारतीय अर्थव्यवस्था को बचाने, पश्चिमी एशिया में ईरान-अमरीका के बीच बढ़ रहे तानव और उसके कारण ख़तरे में पड़ती भारत की ऊर्जा-सुरक्षा, अर्थव्यवस्था में पनप रही मंदी को समाप्त करना और नौकरियों को बचना आदि अनेकों चुनौतियों का तत्कालीन और त्वरित समाधान निकालना बेहद आवश्यक होगा. ऐसे में देश किस दिशा में जाएगा इसका उत्तर तो समय के गर्भ में ही निहित है.

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज के शोधार्थी हैं.)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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