सुषमा और प्रियंका की ट्रोलिंग पर मैत्रेयी पुष्पा: स्त्री तेरे साथी कहां हैं?
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सुषमा और प्रियंका की ट्रोलिंग पर मैत्रेयी पुष्पा: स्त्री तेरे साथी कहां हैं?

अब क्या हुआ इन पढ़े लिखे लोगों को? राजनैतिक कुर्सियों के ओहदेदारों को? स्त्रियों पर कब तक गालियों अपशब्दों के कोड़े चलवाते रहेंगे? ये ट्रोल सेनायें क्या सोशल मीडिया पर औरतों को पछाड़ने के लिये उतारी हैं? 

सुषमा और प्रियंका की ट्रोलिंग पर मैत्रेयी पुष्पा: स्त्री तेरे साथी कहां हैं?

मैंने कहीं पढ़ा था-बताओ स्त्री के बारे में सच्चाई क्या है? उत्तर आया - “बहुत सी सच्चाइयां ऐसी हैं जिन के बारे में चुप रहना ही बेहतर है. हां अगर तुम औरत के पास जा रहे हो तो अपना कोड़ा साथ ले जाना मत भूलना “ पता नहीं यह कब की कहावत है? कितनी पुरानी? यह सलाह कौन किसको दे रहा होगा? पता लगा कि एक बुढ़िया ही यह बात कह रही थी. स्त्री के लिये स्त्री के ऐसे बोल वचन! बहुत पुराना है यह कथन. बहुत पुराना. मगर लगता है कि इसमें कुछ भी पुराना नहीं क्योंकि आज भी यही इबारत नियम के तहत लागू है. हम स्वतंत्र देश के वासी गरबीली ग़ुलामी को गहनों की तरह अपने वजूद पर सजाये हुये हैं. हमारे देश में क़िस्म किस्म की आज़ादियां हैं. जैसे कि हम मुग़लों से आज़ाद हुये तो अंग्रेज़ों की गिरफ्त में चले गये और अंग्रेज़ों से मुक्त हुये तो अपनों ने कसावटें कस दीं.

हम यानि कि महिलायें अपनों के बंधनों को बंधन नहीं, उनकी प्यार भरी सुरक्षा मान लेते हैं क्योंकि यह रिवाज औरत को जीने की सहूलियत देता है. बेशक हम आधुनिक युग में ही नहीं अत्याधुनिक समय को पार कर रहे हैं और इतने चेतना सम्पन्न भी हो गये हैं कि आज़ादियों की क़िस्में तय कर सकें. यों भी हम लोकतांत्रिक देश के नागरिक खुद को शिक्षा के अधिकार के तहत शिक्षित कर चुके हैं. हम स्त्रियां कहां कहां बाज़ी नहीं मार रहे, हर क्षेत्र में पांव रखा हुआ है. महिलाओं के लिये सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र था राजनीति जहां उनके प्रवेश पर असमंजस रहता था लेकिन हमारी प्रबुद्ध महिलाओं ने उस दरबाजे मे पांव ही नहीं रखा पुरुषों के साथ बराबरी से विजय हासिल कर के राजनीति में प्रवेश किया और अपने पद पर रहते हुये जनता के हित में काम किये और कर रही हैं.

एक बात मैं पहले ही स्पष्ट कर दूं कि धर्म और जाति के आधार पर जिस तरह पुरुष वर्ग अपना वर्चस्व रखना चाहता है, स्त्रियां इन बातों को इतना महत्व नहीं देतीं .इसका कारण यह है कि स्त्रियों की जाति और धर्म स्थाई नहीं होते. वे जिस जाति में पैदा होती हैं ज़रूरी नहीं कि शादी के बाद वह बदले नहीं. ऐसे ही धर्म का मामला है. हमारी कई अभिनेत्रियों ने विवाह के पश्चात अपना धर्म बदला है. कई राजनैतिक दायरे की लड़कियों ने दूसरे धर्म के लड़कों से शादी की है. तब यह तय बात है कि वे जाति धर्म के सवाल पर अड़ियल रुख़ अख़्तियार नहीं करतीं.

हमारी विदेश मंत्री सुषमा स्वराज का ऐसा ही रुख़ रहा होगा तभी उन्होंने उस नव विवाहित जोड़े तन्वी सेठ और उनके पति मोहम्मद अनस सिद्दीकी के पासपोर्ट के लिये मदद की जो अलग अलग धर्मों से हैं. लडकी हिन्दू है और लड़का मुसलमान. जब वे दोनों पति पत्नी हैं तो उनके रास्ते में रुकावटें पैदा करने का क्या सवाल? मगर सवाल नहीं भी है लेकिन पैदा किया जायेगा क्योंकि एक समूह विशेष को हिंदू मुस्लिम का गठजोड़ सुहाता नहीं. इस तरह का विवाह कई वर्ष से निशाने पर है. हमारी विदेश मंत्री भी निशाने पर आ गयीं. धर्म के आडे आनेवाली विदेश मंत्री को अपमानजनक शब्दों से नवाज़ा गया. यहां लिखें भी तो कैसे लिखें? और फिर फ़ेसबुक ,ट्विटर और व्हाट्एप अभिव्यक्ति की आज़ादी के माध्यम हैं, कोई कर भी क्या सकता है? 

कोई कुछ करे या न करे ग़लत को ग़लत तो कह सकता है .जबाव तो मांग सकता है? निन्दा कर सकता है शर्मिन्दा कर सकता है . लेकिन यह क्या, सब के सब गूंगे हो गये .क्या बहरे भी हो गये और अंधे भी कि कुछ दिखाई सुनाई नहीं दे रहा . नहीं ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, बस वे नज़रअंदाज़ करना चाहते हैं. हमारी आदरणीय विदेश मंत्री को लगातार ट्रोल किया जा रहा है और संगी साथियों के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही , कमाल है . मैंने जब सिन्दूर पर सवाल उठाया था तो हमलावर लोगों की फ़ौजें टूट पड़ी थीं अब वे सेनायें कहां हैं कि देश की मंत्री के मामले पर शतुरमुरगी मुद्रा अपना ली. सुषमा जी ने साथियों का साथ देने के लिये इंतज़ार किया होगा उन्हें नहीं मालूम कि वर्चस्व में जीने वाले हमारे पुरुष वर्ग को स्त्री निचले पायदान की चीज़ लगती है. पदवी तो पदवी होती है ,वह स्त्री को स्त्री से अधिक महत्व नहीं देती. इसलिये ही उन लोगों ने मुल्ला का स्त्रीलिंग मुल्ली बनाया. क्या यह अपमान काफ़ी नहीं है? या और कुछ भी ख़ुलासा किया जाये?

यहीं नहीं रुकते लोग एक और स्त्री को लपेटे में लेते हैं और उसकी बेटी से बलात्कार की मुनादी करते है. कांग्रेस नेता प्रियंका चतुर्वेदी को धमकी आती है कि वह खुद अपनी बेटी को भेज दे, मर्दों को अय्याशी सूझी है. यह हम कहां आ गये हैं, किस कसाईखाने में जालिमों की फ़ौजें खड़ी हो गयी हैं और हमारे आका बग़लों में हाथ दबाये चुपचाप रस्ते से निकलते जा रहे हैं. यह हमारे विकास का चरम काल है, अत्याधुनिक सभ्यता का गर्व भरा उद्घोष, जहां महिलायें अपने सम्मान की ख़ैर मना रही हैं. सोशल मीडिया को अभिव्यक्ति की आज़ादी का माध्यम कहते कहते ट्रोल का ज़रिया बना डाला? बलात्कारों और हत्याओं के वीडियो का जैसे बाज़ार खुल गया है. अपराधों की श्रंखलायें जैसे तमाशा हों. फ़ेसबुक खोलते ही हत्यारी पीढ़ी के नयी उम्र लड़के किसी ग़रीब को पीट पीट कर उसकी जान लेने के करतब दिखाते मिल जायेंगे. किसी लडकी के कपड़े उतारने के ‘शौर्य ‘ का प्रदर्शन करते दिख जायेंगे. किशोर उम्र के बच्चे ऐसे ही बलात्कार करने के अभ्यास में नहीं उतर रहे उनको रोज़ाना ऐसे पैशाचिक आनन्दों की डोज़ दी जा रही है.ये ही लड़के लड़कियों के शिकार के अभ्यस्त होते होते मर्दों में तब्दील होने लगे हैं, ये किसी का साथ क्या देंगे?

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मुझे यहां बरसों पुरानी बात याद आ रही है. हमारे इन्टर कॉलेज की बात है. प्रिंसिपल साहब का दिल चलायमान हो गया. अपने ऊपर क़ाबू न रख सके. जिस तरह की हरकत अपनी छात्रा के साथ नहीं करनी चाहिये थी, बेधड़क करने के इरादे कर लिये. इतवार को एक्स्ट्रा क्लास के लिये बुला ली, वह मैं थी. भरपूर विरोध किया, हाथा-पायी की और साहब गिर पड़े. मैं भी बाहर की ओर गिरी. मैं रोई मगर हारी नहीं. दूसरे दिन सोमवार था मैंने साथ में पढ़ने वाले लड़कों को सारी बात बता दी. वे लड़के कौरववशी नहीं थे जो चुप रह जाते. उसी दिन से कॉलेज की ईंट से ईंट बजा दी. कॉलेज बन्द,  टटोल स्ट्राइक. प्रिंसिपल साहब को कुछ दिन बाद तबादला ले कर जाना पड़ा. ऐसे होते हैं साथी. शायद वे इसलिये निर्भीक थे कि उनको राजनीति के शहद का चस्का नहीं था. शायद वे इसलिये जांबाज़ थे कि इंसाफ़ के हिमायती थे. शायद वे इसलिये भिड़ गये थे कि लडकी की इज़्ज़त करना जानते थे. और वे इस लिये मेरे अपने थे कि वे मेरे लिये लड़े थे .

अब क्या हुआ इन पढ़े लिखे लोगों को? राजनैतिक कुर्सियों के ओहदेदारों को? स्त्रियों पर कब तक गालियों अपशब्दों के कोड़े चलवाते रहेंगे? ये ट्रोल सेनायें क्या सोशल मीडिया पर औरतों को पछाड़ने के लिये उतारी हैं? न्याय क्या है , न्याय कैसे होगा यह क्या ये उपद्रवी तय करेंगे? अगर इनके मन मुताबिक़ नहीं होगा तो ये ही सज़ा तय करेंगे? नहीं साहब यह तो अत्याचार है और लोकतंत्र की हत्या है क्योंकि हम इंसाफ़ के पक्ष में कुछ कहने का हक़ खो बैठे हैं .हमें भेड़ों की तरह हांकने की तैयारी है .हम किसी भी पद के लालच में नाइंसाफ़ी पर मुहर नहीं लगा सकते . हमें तो यह जानना है कि स्त्री के मुद्दे पर धर्म और जाति का घमासान क्यों मचने लगता है? उसकी देह के टुकड़े टुकड़े करने के बाद वीडिओ किस आनन्द लिये बनाकर डाला जाता है? अर्थात स्त्री केवल भोग की वस्तु है ,ज़िन्दा  भी और मुर्दा भी. अब आगे कहने को क्या रह गया है?

फिर भी हमारा दावा है कि विचार किया जाये, विचार होना चाहिये कि इस इक्कीसवी सदी का दूसरा दशक ख़त्म होने को है और हम चौदहवीं सदी में लौटने को आतुर लग रहे है पूरे आधुनिक हरबे हथियारों के साथ. हम विकास के दावे करते हैं या ख़ाली बातें ही हैं कि हमने तकनीकी युग पैदा कर लिया है. हमने लड़कियों को आसमान में उड़ाया है. राजनैतिक दुनिया में उठने बैठने दिया है. बहुत कुछ ऐसा कर लिया जिस पर हम फ़ख़्र से भर उठते हैं. इस सब के बावजूद यह भी कहिये कि हमने स्त्री को उस क़द से ऊपर नहीं उठने दिया जिस पायदान पर हम उसको देखना चाहते हैं. जिस स्तर से हमारी भाषा उसके लिये उतरती है और स्त्री  हमारी दबिश में रहती है. उसकी आज़ादी का रूप ऐसा ही है. स्त्री की आज़ादी यही है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं) 

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