वर्तमान में पूरे देश की रेलवे में रोज़ाना लगभग 16 लाख लीटर पानी की मांग रहती है.
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बरूनी से गोंदिया की ट्रेन में बैठकर सरजू सिंह अपने परिवार के साथ छत्तीसगढ़ जा रहे हैं. ट्रेन के आने में देरी है. अगर आप बिहार या उत्तरप्रदेश के सफर पर हैं, तो आपको समझ आएगा कि रेल मौसम देखकर देर से चलती है. मसलन सर्दी आ गई, तो अब लेट होने का मौसम आ गया है. चार बजे बलिया स्टेशन पर आने वाली ट्रेन तीन घंटा देरी से चल रही है. ढेर सारे सामान, दो बच्चे और पत्नी के साथ सरजू सिंह को प्लेटफॉर्म पर इंतजार करते हुए लगभग तीन घंटे बीत चुके हैं. उत्तर प्रदेश के निवासी होकर भी वो रेल पर भरोसा करके जल्दी आ गए थे, या यूं कहिए बड़ी मुश्किल से टिकट जुटाकर कन्फर्म टिकट पाने वाले भारत के विकास का प्रतिनिधित्व करने वाले सरजू सिंह को खुद पर भरोसा कम रहता है. वो हमेशा एक डर के साये में जीते है कि कहीं रेल छूट गई तो वो क्या करेंगे. आगे टिकट कन्फर्म मिलता है या नहीं, टिकट रद्द करवाने का जो मोटा पैसा रेलवे वसूलने लगा है उससे जो उनको चोट पहुंचेगी उसकी भरपाई करने में उनको महीनों लग जाएंगे. इन्ही तमाम उलझनों के बीच सरजू सिंह प्लेटफॉर्म पर इंतजार कर रहे हैं, जो करना उनकी नियति भी है. लेकिन बच्चों को अभी शायद इस बात का इल्म नहीं हो पाया है इसलिए वो बेसब्र हो रहे हैं. छोटा बेटा समोसा खाने की ज़िद कर रहा है, लेकिन सरजू उन्हें टरका देते हैं. इंतजार करते बच्चे अब हर गुजरती हुई छोटी मोटी चीज खरीदने की ज़िद कर रहे हैं, लेकिन हर बार बड़ी ही शांति के साथ कभी सरजू तो कभी उनकी पत्नी बच्चों को बहला देती हैं. यहां तक कि एक खिलौना जिसकी कीमत महज़ पांच रुपए है, वो भी सरजू नहीं लेते हैं, क्योंकि उनके लिए हर रुपये की एक कीमत है. चूंकि त्योहार के समय अपने घर गांव आए हैं तो मम्मी-पापा का प्यार भी साथ में लेकर जा रहे हैं जो ढेर सारे सामान में तब्दील हो गया है.
स्लीपर और जनरल डब्बे में सफर करने वालों के पास किसी भी दूसरे कोच से ज्यादा सामान होता है यानी जिनके पास जगह की कमी है उनके पास सामान भी ज्यादा है. मुश्किल से आ पाते हैं तो गांव से खाने पीने का सामान, अनाज भी साथ ले लेते हैं जो उनके लिए शहर में एक बड़ी राहत होता है. रेल चलेगी तो हवा लगेगी तो चादर या सर्दी के मौसम में कंबल भी डालना होगा. छोटा बच्चा है तो उसकी अपनी ज़रूरतें है. सफर लंबा है और उनके पास उतना ही पैसा है जितने में वो परिवार को अपनी जड़ों से अपने काम की जगह तक ले जा सकते हैं. इसलिए पत्नी ने घर पर ही पूरे सफर के लिए तली हुई ढेर सारी लिट्टी और चटनी रख ली है. तली हुई लिट्टी है तो खराब नहीं होगी और पूरे सफर तक चलेगी. ट्रेन आ चुकी है, तमाम सामान को लेकर सरजू अंदर चढ़ने में जल्दी दिखाते हैं. एक बर्थ पर वो अपना सारा सामान रख देते हैं और बची हुई बर्थ पर पूरा परिवार बैठ जाता है. अंदर बैठते ही बच्चो को भूख सताने लगती है तो सरजू की पत्नी तुरंत सामने रखे हुए बैग से पन्नी के अंदर रखी हुई कागज में लिपटी हुई लिट्टी निकालकर बच्चों को थमा देती है. लेकिन बच्चों को खाने बाद जैसे ही प्यास लगती है तो सरजू तुरंत 15 रू चुका कर बोतल खरीदने में संकोच नहीं करते हैं. लगभग 24 घंटे से ज्यादा चलने वाले इस सफर में (जिसमें ट्रेन के लेट होने के असीमित घंटे शामिल नहीं है) सरजू गिरी से गिरी हालत में 100 का पानी खरीद कर पी ही लेंगे. उन्होंने बच्चों के खिलौने, समोसे का लालच, ऑटो का खर्चा जैसी तमाम बातों को किनारे इसलिए किया क्योंकि प्यास बगैर दाम चुकाए नहीं बुझ सकती है और रेलवे स्टेशन पर प्याउ से चूते नलों के पानी पर उनका भरोसा नहीं रहा. और शायद रेलवे भी यही चाहता है कि लोगों का प्याउ से भरोसा उठ जाए क्योंकि पानी अब उनके लिए एक लाभ का विषय है जो उनके दूसरे घाटों को पूरा करने में सबसे ज्यादा मददगार साबित हो रहा है .
रेल नीर से खुल रही है रेलवे की तकदीर
एक अंग्रेजी अखबार की मई में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक इंडियन रेलवे केटरिंग एंड टूरिज्म कॉरपोरेशन यानि आईआरसीटीसी अपने पानी के ब्रांड रेल नीर के प्लांटेशन पर 1000 करोड़ रू लगा कर इस साल के अंत तक देशभर में 11 नए प्लांट लगाने वाला है. इससे वो अपनी ब्रांड रेलनीर के उत्पादन को दोगुने से भी ज्यादा करना चाहता है . वर्तमान में 7 प्लांट के ज़रिये रोज़ाना छह लाख लीटर पानी की बोतल बना कर बेचने की क्षमता रखते हैं.
वर्तमान में पूरे देश की रेलवे में रोज़ाना लगभग 16 लाख लीटर पानी की मांग रहती है . सालाना देश भर में रेलवे प्रांगण में लगभग 600 करोड़ रूपए के पानी की मांग रहती है जो हर साल 10 फीसद के हिसाब के बढ़ रही है. रेलनीर देश भर के 7000 रेलवे स्टेशन औऱ 1000 से ज्यादा गाड़ियों में अपनी पकड़ बनाए रखे हुए है.
रेलवे वेंडर रेलवे प्रांगण में रेल नीर नहीं होने पर ही दूसरे ब्रांड का पानी बेच सकते हैं. (हालांकि इसमें एक हकीकत ये भी है कि आमतौर पर आपको छोटे रेलवे स्टेशन पर रेल नीर नदारद मिलता है औऱ दूसरे ब्रांड वहां पर कब्जा जमाए मिलते हैं इसके पीछे एक वजह पानी की बढ़ती मांग और रेल नीर की उसे पूरा ना कर पाना है साथ ही दूसरे ब्रांड जो चुपके चुपके बेचे जा रहे हैं उनसे रेलवे वेंडर को ज्यादा लाभ मिलता है.)
2017-18 में रेल नीर से आई आर सीटीसी को 170 करोड़ रू की कमाई हुई थी जो उनकी कुल कमाई का 11 फीसद था .आईआरसीटीसी अपने पानी के कारोबार को बढ़ा कर 500 करोड़ तक लाना चाहता है. जिससे टिकट और दूसरे धंधो से होने वाले घाटे की पूर्ति की जा सके.
रेलवे ने कुछ स्टेशनों पर आरओ सिस्टम भी लगा रखा है जिसमें एक रूपए डालने पर वो एक लीटर पानी दे देता है. कुल मिलाकर एक रूपए में खुद की बोतल भरने से लेकर 15 रू की एक बोतल बेचने तक पानी रेलवे के नूर को बचाने में लगा हुआ है. रेलवे के लिए बैजूनाथ जैसे लोग कोई मायने नहीं रखते हैं.
छपरा से चलने वाले बैजूनाथ का कुनबा बनारस जा रहा है, जिसमें उनकी पत्नी, बहु, बेटा एक बड़ी पोती और एक दुधमुंहा बेटा है. उनके पास भी इतना सामान है कि उन्होंने अपनी एक बर्थ सामान के नाम कर दी है. औऱ बेटा टहल टहल कर या कभी बोगी के दरवाजे पर खड़ा होकर अपना वक्त गुज़ार रहा है.
ट्रेन के डब्बों में यहां वहां ऊपर से लटके हुए पैर, कई की झूलती गर्दन, एक बर्थ पर लेटे हुए दो-दो इंसान, नीचे वाली एक बर्थ पर बैठे हुए छह या सात लोग, गुटखों का पाउच से ठुंसा हुआ पानी से लबालब भरा हुआ बेसिन, जिसमें से पानी लेकर लोग बड़ी सहजता के साथ नीचे हाथ धो लेते हैं. स्वच्छ भारत अभियान का प्रतिनिधित्व करता वो शौचालय जिसमें स्लीपर कोच में गंदगी पसरी हुई है औऱ जनरल डब्बे में दो चार आदमी पसरे हुए हैं. क्योंकि उन्हें घर जाना है या काम पर लौटना है. वो ये सोच कर ट्रेन में सवार हुए हैं कि एक या डेढ़ दिन की बात है फिर तो यहां के या वहां के घर पहुंचना ही है.
ये वो लोग है जिनसे चंद डब्बों के फासले पर विकास को लिखनेवाले और लिखवाने वाले सफर करते हैं और उनसे कुछ ही डब्बों के फासले पर जो सही मायने मे इनसे कोसों दूर है, एक एक बोगी में वो ‘विषय’ ठुंसे है जिनके आधार पर देश के विकास की नीतियां तय की जाती है.
इन्हीं विषयों में से एक विषय बैजूनाथ भी हैं. बैजूनाथ के बाल जिस कदर सफेदी धारण किये हुए हैं उससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि जेठ की दुपहरी में भी इतनी ताकत नहीं है कि वो उन्हें सफेद कर पाए.
स्टेशन आते ही बैजूनाथ हाथ में पकड़ी दो लीटर की खाली सॉफ्ट ड्रिंक की बोतल को उठाते हैं औऱ नीचे उतर जाते हैं. वो ट्रेन में चढ़े नहीं है, ट्रेन थोड़ी सी सरकती है तो उनकी बहू के माथे पर चिंता की लकीर खिंच जाती है . वो बर्थ पर बैठे बैठे ही गर्दन इधर उधर करके बाबूजी को देखने की कोशिश कर रही है. वो अपनी जगह से हिल नहीं सकती है क्योंकि गोद में बेटा अभी दूध पीकर सोया है. तभी बैजूनाथ डब्बे के दरवाजे पर रखे हुए बैग और लोगों को लांघते हुए अपनी बर्थ तक पहुंच जाते हैं. उनको देखते ही बहू की चिंता मुस्कान में बदल जाती है, वो अपनी दो लीटर की बोतल को पानी से भरकर ले आए हैं.
बैजूनाथ ट्रेन में सफर करने वाले उन 10-15 फीसद लोगों में से हैं जो आज भी प्याऊ का पानी पीते हैं. हालांकि उनके बहु-बेटे बोतल ही खरीदने पर विश्वास रखते है. बैजूनाथ पूछने पर बताते हैं कि अब प्याऊ पर पानी लेने में दिक्कत नहीं होती है क्योंकि ज्यादातर लोग तो बोतल ही खरीदते हैं. पानी के खराब होने की बात पर वो रेलवे पर भरोसा जताते हुए कहते हैं कि हर रेलवे स्टेशन पर रेलवे विभाग की खुद की बोरिंग होती है और ज़मीन से पानी खनिज पदार्थों के साथ मिलता है. ये बोतल औऱ आरओ के पानी में तो कुछ हैये ही नही.
उनको देखकर मुझे अपने पिताजी की याद आ गई, उन्हें सफर करना बिल्कुल पसंद नहीं है. लेकिन जब मजबूरी में बाहर निकलना होता है तो उनको एक अलग से झोला तैयार करना होता है, जिसमें तंबाकू, चूना, लौंग, सुपारी जैसे ‘बेहद जरूरी’ सामान के साथ दो लीटर की दो सॉफ्ट ड्रिंक की बोतल भी होती है, जिन्हें सफर से पहले भर कर ठंडा करने की जिम्मेदारी मम्मी की होती है. उन्हें पानी पीने की बहुत आदत है लेकिन बोतल खरीद कर पीना उन्हें पैसे की बरबादी लगती है. बैजूनाथ या पिताजी जैसे 10-15 फीसद लोग फिल्म ‘गॉड्स मस्ट बी क्रेज़ी’ के उस किरदार की तरह है जिसके गांव के ऊपर उड़ते विकसित सभ्यता के हेलिकॉप्टर ने ‘ठंडे’ की बोतल गिरा दी है. कांच की ये बोतल गांव के आदमी के सिर पर गिरी है और वो बेहोश हो गया. बोतल को शैतानी आत्मा मानकर कहानी का नायक बोतल को गांव से दूर छोड़कर आने के सफर पर निकल पड़ा है. ये उस विकास की बानगी को पेश करता है जो पानी को ब्रांड बनाती है और उसकी बोतल को थामे उसमें पानी भरते बैजूनाथ जैसे लोग असली भारत है. ये लोग वो हैं जो अपने हाथ में थामी हुई बोतल को कहीं दफनाना तो चाहते हैं, लेकिन जिस सफर में वो निकले हैं वहां हर बोगी में ठुंसे हुए विकास के कंधो पर एक पिट्ठू लदा देख रहे हैं जिसके किनारे पर उन्हें एक जाली का पॉकेट नज़र आ रहा है जिसमें पानी एक ब्रांड के रूप मे जनरल के सफर पर निकल पड़ा है.
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार और वाटरएड इंडिया के फेलो हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)