पीएम मोदी के हाथ में जो अस्थि कलश है, उस महानायक की कहानी आपको रुला देगी
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पीएम मोदी के हाथ में जो अस्थि कलश है, उस महानायक की कहानी आपको रुला देगी

आज 4 अक्टूबर को पीएम मोदी ने एक फोटो शेयर किया, जिसमें वो हाथ में किसी का अस्थि कलश लिए हुए हैं. उनके साथ कुछ विदेशी भी हैं. 

पीएम मोदी के हाथ में जो अस्थि कलश है, उस महानायक की कहानी आपको रुला देगी

आज 4 अक्टूबर को पीएम मोदी ने एक फोटो शेयर किया, जिसमें वो हाथ में किसी का अस्थि कलश लिए हुए हैं. उनके साथ कुछ विदेशी हैं. मोदी जी ने अपने ट्वीट में इस फोटो के साथ श्याम जी कृष्ण वर्मा को याद किया है. 

महानायक थे श्याम जी कृष्ण वर्मा
कौन थे श्याम जी कृष्ण वर्मा? और उनकी अस्थियों से पीएम मोदी से क्या नाता है? पीएम मोदी ने पिछली 'मन की बात' में कहा था कि देश की आजादी की 75वीं सालगिरह पर उन गुमनाम नायकों को याद करने की जरूरत है, जिनकी वजह से देश आजाद हुआ. समझ लीजिए श्यामजी कृष्ण वर्मा उन्हीं उपेक्षित नायकों में से एक हैं, वो नायक नहीं बल्कि महानायक हैं.

श्याम जी कृष्ण वर्मा ने 30 मार्च 1930 को आखिरी सांस ली
तारीख थी 30 मार्च 1930. वक्त था रात के 11.30 बजे. जेनेवा के एक हॉस्पिटल में भारत मां के इस सच्चे सपूत ने आखिरी सांस ली और उसकी मौत पर लाहौर की जेल में भगत सिंह और उसके साथियों ने शोक सभा रखी, जबकि वो खुद भी कुछ ही दिनों के मेहमान थे. श्यामजी कृष्ण वर्मा की अस्थियां जेनेवा की सेण्ट जॉर्जसीमेट्री में सुरक्षित रख दी गईं. बाद में उनकी पत्नी का जब निधन हो गया तो उनकी अस्थियां भी उसी सीमेट्री में रख दी गईं. उस व्यक्ति ने अपनी मौत से पहले ही उस अस्थि बैंक से ये कॉन्ट्रैक्ट किया हुआ था कि उनकी व पत्नी की अस्थियां वो 100 साल तक सुरक्षित रखेंगे, जब भारत आजाद होगा तो कोई भारत मां का सपूत आएगा और उन्हें विसर्जन के लिए ले जाएगा.

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श्याम जी कृष्ण वर्मा

श्याम जी कृष्ण वर्मा की अस्थियों को भारत लाने में नेहरू ने नहीं दिखाई रुचि
इस घटना को 17 साल गुजर गए, 1947 में देश आजाद हो गया, किसी को याद नहीं था कि उनकी अस्थियों को भारत वापस लाना है. यूं ही पचपन साल और गुजर गए, पीढियां बदल गईं. लेकिन कोई नहीं आया जबकि देश के पहले प्रधानमंत्री को भी इसकी जानकारी थी. पंडित नेहरू ने तो अपनी आत्मकथा में श्याम जी और उनकी पत्नी का जिक्र किया है, और साथ ये बताया है कि उनसे श्याम जी ने कुछ मदद मांगी थी, लेकिन उन्होंने नहीं की.

भारतीय बच्चों के लिए अपनी सारी संपत्ति दान कर दी
नेहरू ने लिखा है कि वो जब 1927 में जेनेवा में अपनी पत्नी और बहन कृष्णा के साथ छुट्टियां मनाने गए थे, तब श्यामजी कृष्ण वर्मा से उनकी मुलाकात हुई थी. उनके पास बहुत पैसा था, लेकिन ट्राम के पैसे भी बचाने के लिए पैदल चलना पसंद करते थे और काफी शक्की थे. श्यामजी ने उनसे कहा था कि मेरी सारी संपत्ति से एक ट्रस्ट बना दीजिए, आप ट्रस्टी बन जाइए और जो भारतीय बच्चे विदेश में पढ़ना चाहते हैं, उनकी उससे मदद हो. श्यामजी की पत्नी के बारे में भी उन्होंने लिखा है कि कैसे वो महिलाओं की मदद के लिए काफी पैसा देना चाहती थीं.

नेहरू ने श्याम जी कृष्ण वर्मा की संपत्तियों का ट्र्स्ट बनाने का आग्रह नहीं माना
पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू ने ये बताया है कि उनको काफी शक होता था कि ब्रिटेन के जासूस उनके पीछे लगे हैं, तो उन्हें ये डर था कि कहीं उनके ट्रस्ट में उन पर पैसों की गड़बड़ी का आरोप ना लग जाए, इसलिए उन्होंने उनकी कोई मदद नहीं की. लेकिन नेहरू ने ना उनकी मौत के बाद और ना ही 17 साल तक देश का पीएम बने रहने के बाद, उनकी अस्थियों को लाने की कोई पहल की. सभी को पता था कि उनकी अस्थियां स्विटरलैंड की अस्थि बैंक में रखी हैं.  

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आजादी के 55 साल बाद इस गुजराती क्रांतिकारी की अस्थियों की सुध ली एक दूसरे गुजराती ने. गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने. 

22 मई 2003 को श्याम जी कृष्ण वर्मा की अस्थियों को गुजरात लाए मोदी
आजादी के 55 साल बाद इस गुजराती क्रांतिकारी की अस्थियों की सुध ली एक दूसरे गुजराती ने. गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने. 22 अगस्त 2003 को गुजरात के सीएम नरेन्द्र मोदी ने ये एक बड़ा काम किया. जेनेवा की धरती से श्यामजी और उनकी पत्नी भानुमति की अस्थियां लेकर भारत आए. उसी समय की अस्थि कलश के साथ की तस्वीर आज ट्वीट में उन्होंने शेयर की है. मोदी मुंबई से श्यामजी कृष्ण वर्मा के जन्म स्थान मांडवी तक भव्य जुलूस के साथ उनका अस्थि कलश राजकीय सम्मान के साथ लेकर लाए थे. इतना ही नहीं, वर्मा के जन्म स्थान पर भव्य स्मारक क्रांति-तीर्थ बनाया, जिसकी वेबसाइट का लिंक उन्होंने आज की ट्वीट में शेयर भी किया है. उसी क्रांति तीर्थ के परिसर के श्यामजी कृष्ण वर्मा कक्ष में उनकी अस्थियों को सुरक्षित रखा गया. मोदी ने क्रांति तीर्थ को भी हूबहू बिलकुल वैसा ही बनाने की कोशिश की, जैसा कि श्याम जी कृष्ण वर्मा का लंदन में ‘इंडिया हाउस’ होता था, उसके बाहर पति पत्नी की मूर्तियां भी लगवाईं.

भारत की आजादी की लड़ाई के लिए लंदन में खोला इंडिया हाउस
आखिर क्या था ये इंडिया हाउस? विदशी सरजमीं पर सक्रिय रहे भारतीय क्रांतिकारियों की चर्चा करते ही इंडिया हाउस की चर्चा जरूर होती है. लंदन के मंहगे इलाके में श्याम जी कृष्ण वर्मा ने इंडिया हाउस खोला और उसमें 25 भारतीय स्टूडेंट्स के लिए रहने-पढ़ने की व्यवस्था की, ताकि वो वहां रहकर लंदन में अपनी पढ़ाई पूरी कर सकें. इसके लिए श्याम जी कृष्ण वर्मा ने बाकायदा कई फेलोशिप भी शुरू कीं. ऐसी ही एक शिवाजी फेलोशिप के जरिये वीर सावरकर भी लंदन हाउस में रहने आए. इसी लंदन हाउस में सावरकर ने क्रांतिकारी मदन लाल धींगरा को हथियार चलाने की ट्रेनिंग दी, जिसने बाद में अंग्रेज अधिकारी वाइली की लंदन में ही गोली मारकर उसकी हत्या कर दी. साफ है कि इंडिया हाउस युवा क्रांतिकारियों का गढ़ बनता चला गया.

गुजरात के कच्छ इलाके में हुआ था श्याम जी कृष्ण वर्मा का जन्म
श्यामजी कृष्ण वर्मा का जन्म 4 अक्टूबर 1857 को कच्छ के मांडवी में हुआ था. पिता की जल्दी मृत्यु के बाद उनकी पढ़ाई मुंबई के विल्सन कॉलेज से हुई. संस्कृत से उनका नाता यहीं जुड़ा, जो बाद में ऑक्सफोर्ड यूनीवर्सिटी में संस्कृत पढ़ाने के काम आया. उनकी पत्नी भानुमति एक संपन्न परिवार से थीं, इसी दौरान उनका संपर्क स्वामी दयानंद सरस्वती से हुआ और वो उनके शिष्य बन गए. पूरे देश में श्यामजी ने उनकी शिक्षाओं को प्रसारित करने के लिए दौरे किए. यहां तक कि काशी में उनका भाषण सुनकर काशी के पंडितों ने उन्हें पंडित की उपाधि दे दी, ऐसी उपाधि पाने वाले वो पहले गैर ब्राह्मण थे.

सात साल लंदन में रहने के बाद 1885 में भारत वापस लौटे
उसके बाद वो ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ने लंदन चले गए, जहां संस्कृत के प्रोफेसर मोनियर विलियम्स ने उन्हें अपना असिस्टेंट बना लिया. वहां से श्यामजी ने ग्रेजुएशन किया और एमए और बार एट लॉ ऑक्सफोर्ड से करने वाले वो पहले भारतीय बने. इस दौरान वो एशियाटिक सोसायटी के सदस्य बन गए, बर्लिन कांग्रेस ऑफ ओरियंटलिस्ट में भारत का प्रतिधित्व किया और सात साल लंदन रहने के बाद वो 1885 में भारत लौट आए.

कांग्रेस की याचना की नीति के आलोचक थे
ये वही साल था जब देश में कांग्रेस की स्थापना हुई थी, लेकिन वो कांग्रेस के, उसकी याचना की नीतियों के हमेशा आलोचक बने रहे. भारत आकर उन्होंने बतौर वकील अपना काम शुरू किया. बहुत जल्द उनको रतलाम स्टेट का दीवान बना दिया गया लेकिन तबियत खराब रहने के चलते उन्होंने वहां से विदा ले ली. उस दौर के उस छोटे से समय की नौकरी की ग्रेच्युटी उन्हें बत्तीस हजार रुपए मिली थी. उन्होंने अपनी रकम कॉटन के बिजनेस में लगा दी और खुद अपने गुरू स्वामी दयानंद के प्रिय शहर अजमेर में बस गए और बिटिश कोर्ट में प्रेक्टिस करने लगे. इसी दौरान वो दो साल तक उदयपुर स्टेट के काउंसिल मेम्बर भी रहे. फिर वो गुजरात में जूनागढ़ स्टेट के दीवान भी बने. लेकिन एक ब्रिटिश एजेंट से इस कदर उनका झगड़ा हुआ कि ब्रिटिश सरकार के प्रति उनका मन नफरत से भर गया और उन्होंने इस नौकरी से भी इस्तीफा दे दिया.

कांग्रेस के गरम दल को पसंद करते थे श्याम जी कृष्ण वर्मा
श्यामजी कृष्ण वर्मा कांग्रेस के गरम दल को पसंद करते थे. लोकमान्य तिलक उनके आदर्श थे. 1890 में ‘एज ऑफ कंसेंट बिल’ वाले विवाद में तिलक का उन्होंने जमकर साथ दिया, पुणे के प्लेग कमिश्नर रैंड की हत्या के केस में भी वो चापेकर बंधुओं का समर्थन करने से पीछे नहीं हटे. लेकिन उनको लग गया था कि देश में रहकर अंग्रेजों का विरोध करना आसान नहीं, ये काम लंदन में रहकर थोड़ा आसानी से हो सकता है. 1900 में उन्होंने लंदन के पॉश इलाके हाईगेट में एक मंहगा घर खरीदा और उसका नाम 'इंडिया हाउस' रख दिया. फिर तो वो घर भारत से लंदन आने वालों की सराय बन गया, गांधी से लेकर भगत सिंह, लाला लाजपत राय से लेकर तिलक और गोखले भी इंडिया हाउस में रुके, एक बार लेनिन भी.

श्याम जी कृष्ण वर्मा ने इंडियन सोशियोलॉजिस्ट नाम का अखबार शुरु किया
शुरुआत में 25 भारतीयों को उस इंडिया हाउस में बतौर हॉस्टल रुकने का ठिकाना दिया गया, जो वहां रहकर पढ़ रहे थे. बाद में दुनिया के कई शहरों में इंडिया हाउस शुरू किए गए. पेरिस, सैनफ्रांसिस्को और टोक्यो में भारतीय क्रांतिकारियों ने अपनी रणनीतियां बनाने के लिए इनका उपयोग किया. इसके साथ ही श्याम जी कृष्ण वर्मा ने इंडियन सोशियोलॉजिस्ट नाम का अखबार शुरु किया, जिसकी कॉपियां पूरे यूरोप में भेजी जाती थीं और बाद में इंडियन होमरूल संगठन की भी स्थापना की.
 
भीकाजी कामा, वीर सावरकर, मदन लाल ढींगरा, वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय को इंडिया हाउस में मिली शरण
इंडिया हाउस ने कई क्रांतिकारियों को शरण दीं, जिनमें भीखाजी कामा, वीर सावरकर, मदन लाल ढींगरा, वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय आदि प्रमुख थे, बाद में लाला हरदयाल भी जुड़ गए और अमेरिका से भगत सिंह के गुरू करतार सिंह सराभा और विष्णु पिंगले की अगुआई में अमेरिका से गदर आंदोलनकारियों का जत्था 1915 में एक बड़ी क्रांति के लिए भारत भी आया, एक गद्दार की वजह से वो योजना फेल हो गई. उस गदर क्रांति को भी लाला हरदयाल और श्यामजी कृष्ण वर्मा ने सहायता दी थी. 

सरकार विरोधी रुख से अंग्रेजों के निशाने पर आए
‘इंडियन सोशियोलॉजिस्ट’ में उनके लिखे अंग्रेज सरकार विरोधी लेखों को लेकर श्यामजी अंग्रेजों के निशाने पर आ गए और साथ में उनका इंडिया हाउस भी. सीक्रेट सर्विस के एजेंट उन पर नजर रखने लगे. यहां तक कि उन पर कई तरह की पाबंदियां लगा दी गईं. इधर वीर सावरकर वहां आकर रहने लगे और कई साल तक रहे भी.

यूरोप में रहकर भारतीय क्रांतिकारियों की मदद करते रहे
श्यामजी ने इंडिया हाउस की जिम्मेदारी वीर सावरकर को सौंपी और वो 1907 में पेरिस निकल गए. हालांकि अंग्रेजी सरकार ने उनको वहां भी परेशान किया लेकिन श्याम जी ने कई फ्रांसीसी राजनेताओं से संपर्क बना लिया और वो वहीं से पूरे यूरोप के भारतीय क्रांतिकारियों को एकजुट करने, उनको मदद करने, कई भाषाओं में अखबार छपवाने आदि में मदद करने लगे. लेकिन ब्रिटेन और फ्रांस के बीच एक सीक्रेट समझौते के चलते उन्होंने पेरिस को भी छोड़ना बेहतर समझा और वो प्रथम विश्व युद्ध से ठीक पहले स्विटजरलैंड की राजधानी जेनेवा के लिए निकल गए. हालांकि वहां उन पर थोड़ी पाबंदियां थीं, फिर भी वो जितना हो सकता था, यूरोप में सक्रिय भारतीय क्रांतिकारियों की मदद करते रहे.

ब्रिटेन में इंडिया हाउस बना भारतीय क्रांतिकारियों का गढ़
श्याम जी कृष्ण वर्मा को ये बाद में पता चला कि जिस प्रो इंडिया कमेटी के प्रेसीडेंट डॉक्टर ब्रीस से वो सबसे ज्यादा बातचीत करते थे, वो एक ब्रिटिश सीक्रेट एजेंट था. इसलिए नेहरू का उन्हें शक्की समझना गलत था. इधर मदन लाल ढींगरा ने जैसे ही भारत सचिव वाइली की हत्या की, इंडिया हाउस अंग्रेजी सरकार के निशाने पर आ गया और 1910 में इसे बंद कर दिया गया. लेकिन आज इंडिया हाउस को श्याम जी की बजाय वीर सावरकर की वजह से ज्यादा जाना जाता है, इंडिया हाउस की सामने की दीवार पर ही लिखा हआ है, “Veer Sawarkar- Indian Patriot and Philosopher lived here”.

मरने से पहले अस्थिकलश भारत पहुंचाने का करार किया
इधर जेनेवा में श्याम जी कृष्ण वर्मा की तबियत खराब रहने लगी थी. उन्होंने लोकल प्रशासन और सेंट जॉज सीमेट्री के साथ अपनी और पत्नी की स्थियां सौ साल तक रखने का करार किया, इसके लिए उन्होंने फीस भी चुकाई. इस करार में ये भी था कि इस दौरान देश आजाद होता है तो उनकी अस्थियां उनके देश वापस भेज दी जाएं, वो वतन की मिट्टी में ही मिलना चाहते थे. देश आजाद हुआ तो किसी को उनकी सुध ही नहीं रही. इंदिरा गांधी के समय जरूर पेरिस के एक भारतीय विद्वान प्रथवेन्द्र मुखर्जी ने कोशिश की, लेकिन कामयाब नहीं हो पाए. 2003 में तत्कालीन सीएम नरेन्द मोदी उनकी अस्थियों को वापस भारत लाए और उनका शानदार स्मारक इंडिया हाउस की शक्ल में ही मांडवी में बनवाया.

श्याम जी कृष्ण वर्मा से बेहद प्रभावित रहे हैं पीएम मोदी
पीएम मोदी अपने गुजराती क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा से इतने ज्यादा प्रभावित रहे हैं कि ये माना जाता है कि जो दाढ़ी वाला लुक मोदी का है, वो दरअसल श्याम जी कृष्ण वर्मा के ही लुक से प्रभावित होकर रखा गया है. सच पीएम मोदी ही बेहतर जानते होंगे लेकिन वो अपने इस काम के बारे में लिखने बोलने से बचते रहे हैं. आज भी इतने सालों बाद उन्होंने वो फोटो तो शेयर किया लेकिन कहानी नहीं लिखी.

(डिस्क्लेमर: इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)

(लेखक ने इतिहास की दो किताबें लिखी हैं-'गुमनाम नायकों की गौरवशाली गाथाएं' और  'इतिहास के 50 वायरल सच'.)

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