अखबार के सबसे आखिरी पन्ने पर एक नाटक की खबर है ‘समाज में मां दुर्गा की पूजा लेकिन महिला को मिलता है दोयम दर्जा.‘
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कल शहर में इतने कार्यक्रम थे कि कई जगह आमंत्रित महिलाएं पहुंच भी नहीं पाईं. एक साथ कई-कई कार्यक्रम चल रहे थे, कोई सभागार खाली नहीं था. देख-सुनकर अच्छा लगा कि महिलाओं को लेकर समाज में अचानक सम्मान उमड़ पड़ा है. पर क्या वाकई इतनी अच्छी स्थिति हो गई है या यह एक दिन की रस्म अदायगी भर है. यह देखने के लिए मैंने आज भोपाल से छपने वाले एक अखबार पत्रिका भर को पढ़ लिया और उसमें छपी उन खबरों को नोट कर लिया, जो महिलाओं से संबंधित थीं. याद रखें आज छपी घटनाएं कल आठ मार्च को ही रिपोर्ट की गई हैं.
पेज 3 - ‘एम्स पहुंची गर्भवती, सुबह तक नहीं मिला इलाज, ब्लीडिंग से बच्चे की मौत’
पेज 4- ‘महिलाओं केा राजीनति का पाठ पढ़ाएगी कांग्रेस’
पेज 7-‘रेंजर की पत्नी की मौत, दो माह पहले जली थी’
पेज 11- ‘भीख मांग रही महिला नहीं दे सकी बच्चे की जानकारी’
पेज 14-‘बेटे की चाह में 12 बेटियों को दिया जन्म’
पेज 15- 'पुत्री की मौत, गर्भवती महिला गंभीर’
पेज 15- ‘मोबाइल छीनने पर कर दी महिला की हत्या’
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अखबार के सबसे आखिरी पन्ने पर एक नाटक की खबर है ‘समाज में मां दुर्गा की पूजा लेकिन महिला को मिलता है दोयम दर्जा.‘ अच्छा है कि अखबार ने आखिरी में यह हेडिंग लगाकर जैसे निष्कर्ष ही दे दिया हो. यह केवल एक राज्य का चेहरा है. केवल एक अखबार में दिखाया गया चेहरा है. सारे अखबार देखेंगे तो इनकी संख्या और विविधता जाहिर तौर पर और ही बढ़ेगी.
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एम्स इस वक्त सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की बड़ी उम्मीद की किरण है, लेकिन उसका भी हाल देखिए कि वह सुरक्षित मातृत्व के पैमाने पर असफल है. मध्यप्रदेश में देश में सबसे पहले पंचायती राज संस्थाओं में आरक्षण लागू किया गया था. इस नजरिए से तो यहां महिला नेतृत्व की मिसालें खड़ी हो जानी थीं, लेकिन ऐसी कोशिशें सिर्फ एनजीओज की सफलता की कहानियों में ही नजर आती हैं. यानी नेतृत्व के लिए दोगुनी, चौगुनी कोशिशें की गईं पर जमीन पर महिलाओं का नेतृत्व नजर नहीं आता है.
इसके लिए राजनीतिक दलों को बकायदा अपना पाठ्यक्रम तैयार करवाना पड़ रहा है. संपन्न घरों में भी महिलाएं जलकर मर रही हैं. हर रेड लाइट्स पर अनेक महिलाएं ठीक उसकी तरह से खड़ी हुई हैं और बेटों की चाह में सोचिए कि बारह बच्चे पैदा किए जा रहे हैं. जिस महिला को आशा कार्यकर्ता अस्पताल लेकर आई. उस महिला के साथ उसकी बड़ी बेटी भी वहां मौजूद थी. सोचने की बात है कि वह खुद भी गर्भवती थी. सिंगल कॉलम में परोसी गईं इन खबरों के बीच एक पूरा पन्ना महिलाओं को समर्पित है. जिसमें अखबार ने उन सच्ची कहानियों को पेश किया है, जो महिलाएं इस समाज के लिए मिसाल हैं. अलबत्ता फर्क इतना है कि इस पेज की खबरों को खोजने के लिए अखबार को खूब-खूब मेहनत करनी पड़ी होगी और यह जो खबरें मैंने दस मिनट में नोट कीं. यह अखबार के कार्यालयों तक बहुत रूटीन में पहुंच गई होंगी.
पिछले सालों में मध्यप्रदेश सहित पूरे देश में भारी विकास हुआ है. अखबारों और टीवी में विज्ञापन के मार्फत दिखाई जा रही दुनिया अलग है और आंकड़ों में नजर आने वाली दुनिया अलग है. विज्ञापन पूरे पेज के हैं और घटनाएं विज्ञापनों के अंदर सिंगल कॉलम में दबी चीख रही हैं. केवल मध्यप्रदेश का ही ले लीजिए, यहां 2006 में महिलाओं के खिलाफ 14319 मामले दर्ज हुए थे, दस सालों में इनका अस्सी प्रतिशत विकास हुआ और यह बढ़कर 25731 तक जा पहुंचे हैं. महिलाओं के किडनैपिंग संबंधित अपराधों में इसी अवधि के दौरान 630 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है. बलात्कार के मामलों में इसी अवधि में 80 प्रतिशत का विकास हुआ है. यह सब सरकारी डेटा है. एनसीआरबी की वेबसाइट में दर्ज है. खोजें तो ऐसे तमाम आंकड़े मिल जाएंगे जो हमारी इस एक दिन की रस्म अदायगी को आइना दिखाते हैं. वह अखबार में छपी उस आखिरी हेडलाइन की तरह है. अगले साल जब आप महिला दिवस मनाएं, अखबार को अलग-अलग रंगों से रंगें तो इस बात का थोड़ा लिहाज रखिएगा कि एक दिन तो ऐसा हो जब अखबार को छापने के लिए ऐसी खबरें ही न मिल सकें.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)