विश्व खाद्य दिवस: क्या पेट भर राशन मिलना अब भी मुश्किल है
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विश्व खाद्य दिवस: क्या पेट भर राशन मिलना अब भी मुश्किल है

रोजगार और आजीविका के संकट से जूझते समाज के लिए यह राशन कितना महत्वपूर्ण है. 

विश्व खाद्य दिवस: क्या पेट भर राशन मिलना अब भी मुश्किल है

यदि देश की एक पंचायत में किए गए सामाजिक संपरीक्षा यानी सोशल आॅडिट के नतीजों को सही मान लिया जाए तो देश में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत लोगों के हकों पर बहुत बड़ा डाका डाला जा रहा है. मध्यप्रदेश के रीवा जिले की घूमन पंचायत में खाद्य सुरक्षा कानून 2013 के तहत दिए गए प्रावधानों के तहत अप्रैल माह में किए गए सोशल आॅडिट के मुताबिक केवल एक माह में तकरीबन 26 किलो अनाज का अंतर पाया गया.

यदि गरीबों की खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने वाली देश की तकरीबन 5 लाख 29 हजार राशन दुकानों में यही मान लिया जाए तो हर माह सवा करोड़ क्विंटल से ज्यादा का हक मारा जा रहा है. वह भी तब जबकि सरकार ने डिजिटल माध्यमों से तकरीबन तीन लाख राशन दुकानों को आधुनिक बना दिया है.

विचित्र बात यह है कि इतने बड़े घपले के बाद भी इससे संबंधित उपभोक्ता मामले खाद्य सुरक्षा और सार्वजनिक वितरण प्रणाली विभाग को 2015 से 2017 तक के तीन सालों में केवल 3013 शिकायतें ही प्राप्त हुई हैं, इससे यह माना जा सकता है कि व्यवस्था के इस दोष को लोगों ने अपनी नियति ही मानकर उसे जीवन के एक अनिवार्य हिस्से के रूप में स्वीकार कर लिया है.

खाद्य सुरक्षा पर व्यापक समाज में बड़ी बहस देखने को मिलती है. एक तबका यह मानता है कि सरकार द्वारा सस्ता राशन दिया जाना देश का बड़ा नुकसान है और यह व्यवस्था उन्हें आलसी बनाती है. जनकल्याणकारी शासन की व्यवस्था में अंतिम व्यक्ति के उत्थान के लिए और उसको बुनियादी अधिकार दिए जाने के दृष्टिकोण से भारत की शासन व्यवस्था ने हमेशा से इसे एक अहम हिस्सा माना है और उस पर खर्च किया जाता रहा है. अलबत्ता इसे फिजूल खर्च करने की दृष्टि से देखने वाले लोगों को एक बार जाकर उन लोगों की जिंदगी में जरूर झांकना चाहिए जिन्होंने इसके जरिए मिलने वाले अनाज से अपने जीवन को बचाया है.

रोजगार और आजीविका के संकट से जूझते समाज के लिए यह राशन कितना महत्वपूर्ण है. इसको इस नजरिए से भी देखना चाहिए कि वैश्विक नजरिए से ताजातरीन ग्लोबल हंगर इंडेक्स में इस बार भारत ने और खराब प्रदर्शन करते हुए अपनी रैंकिंग गिरा दी है. शर्म की ही बात है कि खाद्यान्न उत्पादन में रिकॉर्ड बनाने वाला देश इस सूची में 103 वें स्थान पर है. भारत से पिछले केवल 15 देश ही हैं. पिछले साल भारत इस रैंकिग में 100वें स्थान पर था. साल 2014 में भारत 55वें पायदान पर था और इसके बाद रैंकिंग लगातार खराब होती गई है. विचित्र बात यह है कि कई राज्यों में चुनाव हो रहे हैं और भारत में भूख कोई बड़ा मुद्दा नहीं है.

पर क्या इस भ्रष्टाचार को नियति मान लिया जाना चाहिए. देखा जाए तो कानून इसमें सोशल आॅडिट की ताकत देता है, लेकिन व्यवस्था का सडांध ऐसे प्रावधानों को लील जाती है, और जमीनी स्तर पर सब कुछ देखते हुए भी उसे अनदेखा कर दिया जाता है.

व्यवस्था का भ्रष्ट हो जाना एक पक्ष है, लेकिन अधिकारों से वंचित हो जाना एक दूसरा बड़ा पक्ष है. घूमन ग्राम पंचायत में कुल 803 परिवार का संपरीक्षण किया गया. इस दौरान कुल 59 परिवार ऐसे मिले जिन्होंने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून 2013 में पात्रता के लिए लिखित में आवेदन किया है तथा 67 परिवार ऐसे मिले जिन्होंने मौखिक रूप से सचिव तथा रोजगार सहायक को नाम जुडवाने के लिए कहा है, लेकिन अभी तक इनमें से किसी एक परिवार का भी नाम पात्रता सूची में शामिल नहीं किया जा सका है. यह बात चौंकाने वाली है और बताती है कि अब भी बड़ी संख्या में लोग राशन कार्ड और राशन से ही वंचित हैं.

इस कानून के तहत कम से कम 75 प्रतिशत शहरी आबादी और 50 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को कवर किया जाना है, लेकिन वास्तव में अब भी बड़ी संख्या में लोग राशन से वंचित हैं. केवल राशन कार्ड ही नहीं राशन कार्ड को भी आधार कार्ड से जोड़ने का काम तकरीबन 81 प्रतिशत तक ही पूरा हुआ है. 23 करोड़ राशन काड्र में से अब तक 18.89 करोड़ राशन कार्ड ही अधार कार्ड से जुड़ पाए हैं, इस वजह से भी लोगों को राशन मिलने में मुश्किल हो रही है, हालांकि आधार कार्ड नहीं होने की वजह से राशन देने से वंचित नहीं किया जा सकता है, लेकिन यह संदेश जमीन तक पूरी तरह नहीं पहुंच पा रहा है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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