आज विश्व जल दिवस है और अब गर्मी अपने चरम पर होगी. पांच जून को हम पर्यावरण दिवस मनाएंगे और उसके बाद मानसून ही हमें कुछ राहत देगा. इस बीच में पानी के ऐसे भयावह संकट से हम सभी को दो चार होना है. इसी बीच पर्यावरण की चिंता भी होनी है, तमाम आंकड़े हम पेश कर सकते हैं कि पानी धरती में नीचे रसातल में चला गया है.
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नर्मदा से कई सौ किलोमीटर दूर यह बात सुनकर मैं भौंचक रह गया था कि लोग अपनी पानी की जरूरत के लिए नर्मदा का नाम ले रहे हैं. बात पिछली गर्मियों की है और सूखे की रिपोर्टिंग के लिए मैं बघेलखंड के इलाके में था. सतना के मझगवां ब्लॉक के गांव में किसी आदिवासी परिवार के मुंह से यह सुनकर चौंकना और दोबारा सवाल करना तो बनता ही है, मैंने पूछा कि नर्मदा का पानी यहां, इतनी दूर कैसे आएगा. क्या यह संभव है. जैसे वह जवाब की तैयारी करके ही बैठे हों, हां जब नर्मदा भोपाल—इंदौर को पानी पिला सकती है, तो हमें क्यों नहीं मिल सकता.
सचमुच यदि नदी सभी की है तो क्या पास, क्या दूर, वह अपेक्षा तो कर ही सकता है, आखिर हमने मॉडल ही ऐसे खड़े किए हैं. छोटे—छोटे विकल्प, छोटे—छोटे मॉडल, छोटी—छोटी दुनिया की बजाय हमने ऐसी विशाल विनाशकारी परियोजनाएं बनाई हैं जो दिखती तो भव्य हैं, लेकिन उनकी नींव में कई छोटे—छोटे संसार का रक्त शामिल होता है. नर्मदा की कहानी इससे कहां अलग है, और यदि इसी पृष्ठभूमि में सतना जिले का कोई आदिवासी पानी के लिए नर्मदा—नर्मदा कहने लगे तो क्या दोष उसी का है.
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आज विश्व जल दिवस है और अब गर्मी अपने चरम पर होगी. पांच जून को हम पर्यावरण दिवस मनाएंगे और उसके बाद मानसून ही हमें कुछ राहत देगा. इस बीच में पानी के ऐसे भयावह संकट से हम सभी को दो चार होना है. इसी बीच पर्यावरण की चिंता भी होनी है, तमाम आंकड़े हम पेश कर सकते हैं कि पानी धरती में नीचे रसातल में चला गया है. पानी भाप बनकर उड़ गया है. पानी नहीं हैं. सच भी है पानी किसी कारखाने में नहीं बन सकता, तो इस पर ईमानदारी से सोचने की जरूरत भी है.
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पर जब इसी पृष्ठभूमि में यह चिंता मन में आती है तो ख्याल आता है चतरसिंह जाम जी का. एक मीडिया सम्मेलन में उनकी कही बातें कुछ यूं दर्ज हैं जो कुदरत के इस संकट का चुटकी में हल सुझाती हैं. बकौल चतरसिंह उनके इलाके में 11 सेमी बारिश होने पर भी वह कभी घबराते नहीं, क्योंकि वह पानी को चलाते नहीं पानी को रमाते हैं. उन्होंने अपने लोकविज्ञान को इतना मजबूत किया है कि बाड़मेर के रेगिस्तानी इलाके में भी वह फसल ले लेते हैं, यहां तक कि उनके इलाके की बकरियों तक ने समझ लिया है कि पानी के संकट से कैसे निपटा जाना चाहिए. यह विरासत उस इलाके ने बचाकर रखी है. बिना किसी नदी को तालाब में बदलने के उन्होंने अपनी छोटी—छोटी कोशिशों, छोटे—छोटे तालाबों से पानी के संकट पर जीत हासिल कर ली. इसी काम का लेखा—जोखा तो अनुपम मिश्रजी की किताबों और उनकी कही बातों में हमें मिलता है.
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उनका कहा माना गया होता तो आज नर्मदा की यह हालत नहीं होती. पानी की यह हालत नहीं होती. नर्मदा की बीसियों सहायक नदियां सूख चुकी हैं, और नर्मदा की सांसें भी कई जगह टूट चुकी हैं, इसके बावजूद कि मुख्यमंत्री ने पूरी नर्मदा पर एक यात्रा निकाल दी और दस साल तक राज कर चुके पूर्व मुख्यमंत्री नर्मदा परिक्रमा कर ही रहे हैं, यह वही दौर है जब नर्मदा सबसे ज्यादा संकट में है. दावे के साथ यह कहा जा सकता है कि यह कुदरत का बनाया संकट नहीं है. यह हमारी ही नीतियों, लापरवाहियों और लालचपने की कहानी है. अब जब खुद नदी ही तिल—तिल कर अपने सूखते जाने को खामोश देख रही है तो वह लोगों को कहां से पानी लाएगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)