बच्चे चंदा मांगने आए, पर ‘होली’ का नहीं!
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बच्चे चंदा मांगने आए, पर ‘होली’ का नहीं!

नन्हें बच्चों ने ऐसे सारे लोगों की मदद के लिए अपने समूह को खोल दिया है जिन्हें वास्तव में कठिन वक्त में जरूरत होती है. बुजुर्ग, विधवा महिलाएं, विधवा महिलाओं के बच्चे, दिव्यांग बच्चे.

बच्चे चंदा मांगने आए, पर ‘होली’ का नहीं!

यह होली की अगली दोपहरी थी और मैं परिवार संग भोजन का आनंद लेकर एक नींद मारने के चक्कर में था. हॉल में नींद को आंखों में समेटने की कोशिश कर ही रहा था कि पुट्टू ने भौंककर जगाया. गेट से एक के बाद एक कई बच्चे दाखिल होने से उसे कुछ अजीब सा लगा, हालांकि वे सारे चेहरे उसके परिचित थे और उसे आते-जाते छेड़ जाते थे, इसलिए अंदर आने में भयभीत भी नहीं थे. कई को उसका नाम भी मालूम था, सो उन्होंने नाम लेकर पुट्टू को चुप कराया और आवाज लगाई. दहलान में आराम कर रही दादी से उनका सामना हुआ. उन्होंने भरोसे के साथ कहा चंदा चाहिए. इस बीच मैं सोफे से उठकर दहलान में पहुंच चुका था. कोई बारह-पंद्रह बच्चे सामने खड़े थे. चेहरों पर भरोसे वाली मुस्कान और एक विश्वास लिए. कुछ के हाथों में तख्तियां थीं जिस पर उन्होंने स्लोगन लिख रखे थे. दो बच्‍चों के हाथों में एक-एक डिब्बा था, जिसे उन्होंने किसी खाली डिब्बे से रंग पोतकर गुल्‍लक जैसा बना दि‍या था. एक बच्ची के हाथ में रजिस्टर और पेन था, जि‍समें वह हि‍साब दर्ज कर रही थी. सबसे बड़ी बात सबके चेहरों पर कुछ नया, अनूठा और कुछ जरूरी करने का भाव था.

‘भाई होली तो निकल गई! अब किस बात का चंदा?’ मैंने पूछा.

‘हम होली का चंदा मांगने नहीं आए हैं!’ एक बच्‍ची ने वि‍श्‍वास के साथ जवाब दि‍या, आश्चर्य में पड़ने की बारी मेरी थी.
‘तो’ मेरे मुंह से नि‍कला.
‘हमने एक आर्थिक सहायता समूह बनाया है.‘
‘अच्छा! किसलिए?’
‘इससे हम गरीब बच्चों की मदद करेंगे. ऐसे लोगों की मदद करेंगे जो सक्षम नहीं हैं.'
‘अरे वाह!’  मेरी उत्सुकता बढ़ गई थी.
‘जैसे गांव की कोई लड़की स्कूल नहीं जा पाती, या दसवीं के बाद नहीं पढ़ पाती, उसके पास फीस के लिए पैसे नहीं हैं तो हमारा समूह उसकी मदद करेगा.'
‘अरे वाह, यह तो बहुत अच्छा है. और…?
‘…और कोई बीमार पड़ा तो पैसों की अचानक जरूरत है, लेकिन उसके पास इलाज के लिए पैसे नहीं है तो हमारा समूह उसको भी मदद करेगा.'

इसके साथ उन्होंने एक पर्चा मेरी और बढ़ा दिया. पर्चे में बिंदु देखकर मैं चौंक गया.

नन्हें बच्चों ने ऐसे सारे लोगों की मदद के लिए अपने समूह को खोल दिया था जिन्हें वास्तव में कठिन वक्त में जरूरत होती है. बुजुर्ग, विधवा महिलाएं, विधवा महिलाओं के बच्चे, दिव्यांग बच्चे.

बच्चों ने तय किया था कि हर त्योहार पर वह घर-घर जाकर अपने कोष के लिए मदद मांगेंगे और अपने कोष को बड़ा बनाएंगे.

मुझे लगा तो मैंने बच्चों से बातचीत का एक छोटा-सा वीडियो बनाया, एक बच्ची ने अपने मोबाइल फोन से मेरी इस गतिविधि का एक प्रतिवीडियो शूट किया.

मैंने अपनी ओर से एक सौ रुपए का नोट बच्चों के डिब्बे में डाला. और उन्हें शाबासी देकर विदा किया. दादी ने भी अपनी खटिया पर बैठे-बैठे उनकी इस कोशिश से हामी मिलाई और उन्हें शाबासी दी.

मुझे लगा कि कहां से आई इन बच्चों में इतनी ताकत जो समाज के सबसे ज्यादा उपेक्षित लोगों के लिए छोटी सी लेकिन कितनी बड़ी पहल कर रहे हैं. क्या बच्चों की इस छोटी सी कोशिश से मैं आश्वस्त हो सकता हूं कि मेरे गांव की किसी भी लड़की की पढ़ाई केवल रुपए न होने की वजह से रुक नहीं जाएगी, मेरे गांव में किसी भी वजह से घर में रह गया कोई भी बुजुर्ग भूखे पेट नहीं सोएगा, किसी भी विधवा महिला के पास अपने बच्चे की फीस के लिए सहायता की एक रोशनी तो है या कोई भी दिव्यांग बच्चा अपने आप को इतना असुरक्षित और उपेक्षित नहीं मानेगा क्योंकि उसके अपने गांव के बच्चे उसके प्रति सम्मान का भाव रखते हैं, उसे आगे बढ़ाने और साथ चलाने का भाव रखते हैं, वह पिछड़ा नहीं है.

सच तो यही है कि हमारे समाज के यही बच्चे बड़ों को रोशनी दिखा सकते हैं पूरी ईमानदारी से, क्योंकि हम बड़ों का समाज तो बुजुर्गों की जरा सी पेंशन रोक देने में गुरेज नहीं करता, क्योंकि उसके पास एक आधार कार्ड नहीं होता है, गरीबों का राशन महीनों नहीं मिलता, और मिलता है तो उसमें डंडी मार दी जाती है. पेंशन के लि‍ए लोगों (सरकारी भाषा में हि‍तग्राहि‍यों) को बार-बार बैंकों के, पोस्‍ट आफि‍स के चक्‍कर लगाने पड़ते हैं. कि‍सानों को अपनी बेची गई फसल का भुगतान पाने के लि‍ए लंबा इंतजार करना पड़ता है.   

इन बच्चों से बहुत बड़ी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए. उनका कोष कोई लाख-दो लाख वाला भी नहीं होने वाला है, लेकिन इनकी एक छोटी सी कोशिश उन्हें इस समाज का संवेदनशील इंसान जरूर बनाएगी.

उनके हौसले को उनका परचा भी बयान करता है लिखा था...

जीवन में हमारे असली उड़ान बाकी है, हमारे इरादों का इम्तिहान अभी बाकी है
अभी तो नापी है सिर्फ मुट्ठी भर जमीन हमने, अभी तो सारा जहान बाकी है.

(यह ब्‍लॉग पढ़कर जि‍न्‍हें मेरे गांव के बारे में जानने की इच्‍छा हो उन्‍हें यह बता दूं कि‍ मेरा गांव हि‍रनखेड़ा मध्‍यप्रदेश के होशंगाबाद जि‍ले की सि‍वनी मालवा तहसील में आता है. गांव की आबादी तकरीबन दो हजार है. गांव में बारहवीं तक स्‍कूल है और यह सब बच्‍चे गांव में ही प्राथमि‍क और माध्यमि‍क कक्षाओं में पढ़ते हैं.)

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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