समाजवादी पार्टी के नेता और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जिस तेजी से एक ‘युवा’ नेता के तौर पर उभरे थे, उसी तेजी से वे बसपा और कांग्रेस से गठबंधन करने की संभावनाओं पर सार्वजानिक कोशिश करने के बाद कमजोर पड़ते दिख रहे हैं.
Trending Photos
राजनीति में पूर्ण विराम बहुत जल्दी नहीं लगते. जैसे ही तथाकथित राजनीतिक पर्यवेक्षक निर्णय सुनाते हैं कि कोई राजनेता अब जनता की निगाहों से उतर गया है, या वह शिखर की ओर तेजी से बढ़ रहा है, वैसे ही अलग-अलग घटनाओं से कुछ ऐसे संकेत निकल आते हैं जिनसे नए निष्कर्ष निकलते हैं.
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पिछले साल मार्च में पद संभालने के बाद धमाकेदार शुरुआत की थी, लेकिन कुछ महीने बीतने के बाद ही लम्बे समय तक गोरखनाथ पीठ के महंत रहने का अनुभव प्रदेश की जटिल लालफीताशाही और चालाक अफसरशाही के सामने कमजोर दिखने लगा. समय बीतने के बाद कुछ सख्ती और कुछ नरमी के बर्ताव के साथ आदित्यनाथ ने स्थिति पर नियंत्रण बनाना शुरू किया जिसका एक बड़ा उदाहरण था गत फरवरी में संपन्न हुआ इन्वेस्टर सम्मिट, जिसमे प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और देश के प्रख्यात उद्योगपतियों ने हिस्सा लिया. लेकिन जल्द ही सवाल उठने लगे कि प्रदेश में पिछले कई सालों में हुए ऐसे सम्मेलनों की तरह कहीं यह भी मात्र दिखावा तो बन कर नहीं रह जायेगा? लेकिन पिछले दिनों एक बार फिर उतना ही बड़ा आयोजन करके योगी ने इस धारणा को तोड़ दिखाया है.
जुलाई 28-29 के दो-दिवसीय आयोजन में भी न केवल प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और देश के बड़े उद्योगपति लखनऊ आये, बल्कि तमाम निवेश योजनाओं की शुरुआत भी की गई. इस आयोजन के बाद अब फिलहाल उन चर्चाओं पर विराम लग गया है जो योगी के भविष्य पर सवाल उठा रहीं थीं. कुछ दलों के नेता तो बड़े विश्वास से कहने भी लगे थे कि आने वाले लोक सभा चुनाव के पहले उत्तर प्रदेश में नेतृत्त्व परिवर्तन की पूरी उम्मीद है, और वैकल्पिक नामों का भी उल्लेख होने लगा था. लेकिन अब योगी के न केवल मजबूती से अपने पद पर बने रहने की, बल्कि आगामी लोक सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के राज्य-स्तरीय प्रचार में बड़ी भूमिका निभाने की भी मजबूत सम्भावना है.
कुछ इसी तरह का घटनाक्रम बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती के चारों ओर भी उभर रहा है. इस पार्टी का लोक सभा में एक भी सदस्य नहीं है, और राज्य विधान सभा में भी पार्टी विधायकों की संख्या केवल 19 है. लेकिन इसके बावजूद मायावती का नाम अगले लोक सभा चुनाव में प्रस्तावित गैर-भाजपा मोर्चे की नेता और प्रधान मंत्री पद के दावेदार के रूप में लिया जाने लगा है. यह देश और प्रदेश की राजनीति की अप्रत्याशित प्रकृति का एक उदाहारण ही है कि वर्तमान स्थिति के बजाय केवल सालों पहले के सफल राजनीतिक समीकरणों के आधार पर एक राजनेता का नाम इस तरह से अचानक चर्चा में आ गया है. बसपा का उत्तर प्रदेश के बाहर किसी भी राज्य में कोई विस्तृत जनाधार कभी नहीं रहा है,
और किसी भी प्रदेश में इस पार्टी के विधायकों की संख्या 1 से 11 तक ही सीमित रही है. बसपा के पास मध्य प्रदेश विधान सभा में 1998 चुनाव के बाद 11 विधायक थे, और पंजाब में 1992 चुनाव के बाद 9 विधायक थे. इसके अलावा पार्टी के बिहार, झारखण्ड, उत्तराखंड, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू और कश्मीर, राजस्थान और कर्नाटक विधान सभा में अलग अलग समय पर 1 या उससे ज्यादा विधायक रहे हैं. इस वर्ष पार्टी के पास केवल राजस्थान (3), मध्य प्रदेश (4), और कर्नाटक, हरियाणा, झारखण्ड व छत्तीसगढ़ में हर राज्य में 1 विधायक है. राज्य सभा में भी पार्टी के चार सदस्य हैं. इस संख्या बल के बाद भी बसपा की ओर से मायावती को प्रधान मंत्री पद का प्रबल दावेदार बताया जा रहा है, और यही नहीं, लखनऊ में हाल में हुए एक सम्मेलन में तो बाकायदा एक प्रस्ताव में कार्यकर्ताओं से इस दिशा में काम करने की अपील की गई.
गैर-भाजपा दलों में लोक सभा चुनाव के प्रचार शुरू होने से पहले ही किसी एक चेहरे को सामने लाने का दबाव है और इस पद के लिए कांग्रेस के राहुल गांधी के अलावा महाराष्ट्र से शरद पवार, पश्चिम बंगाल से ममता बनर्जी, आंध्र प्रदेश से चंद्रबाबू नायडू और उत्तर प्रदेश से मायावती को सामने पेश करने की पेशकश परदे के पीछे चल रही है. पिछले लोक सभा चुनाव और 2017 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव में ख़राब प्रदर्शन के बाद बसपा काफी दिनों तक नेपथ्य में बनी रही और प्रदेश स्तर पर नेतृत्त्व में फेर बदल का दौर चलता रहा. लेकिन अब मायावती अपनी पिछली उपलब्धियों – संसद की सदस्यता और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर चार बार रहने, और दलित समुदाय की प्रतिनिधि होने - के कारण प्रधान मंत्री बनने की सम्भावना पर गंभीरता से विचार करने लगीं हैं. राजनीतिक तौर पर पिछ्ले तीन सालों से हाशिये पर होने के बावजूद अब अचानक ऐसी महत्वाकांक्षा का उभरना भी राजनीति के अप्रत्याशित होने का एक बड़ा उदाहरण है.
दूसरी ओर, समाजवादी पार्टी के नेता और प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव जिस तेजी से एक ‘युवा’ नेता के तौर पर उभरे थे, उसी तेजी से वे बसपा और कांग्रेस से गठबंधन करने की संभावनाओं पर सार्वजानिक कोशिश करने के बाद कमजोर पड़ते दिख रहे हैं. हालांकि इसका एक कारण यह हो सकता है कि अगले लोक सभा चुनाव के बाद उनके लिए राष्ट्रीय परिदृश्य पर तो कोई बड़ी भूमिका बनती नहीं दिख रही है, और प्रदेश में विधान सभा चुनाव तो 2022 में ही होने हैं जब वे प्रदेश की सत्ता पाने की फिर से कोशिश करेंगे. तब तक वे प्रासंगिक बने रहने के लिए बसपा और कांग्रेस से अपने को जोड़े रखेंगे. यहीं मायावती और अखिलेश की रणनीति में बड़ा अंतर साफ़ दीखता है – मायावती अपनी कमजोरी के बावजूद अपने को बड़ी लड़ाई के लिए आगे कर रहीं हैं, और अखिलेश इस लड़ाई में अपने लिए कोई जगह नहीं बना पा रहे.
(रतनमणि लाल वरिष्ठ लेखक और स्तंभकार है)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)