बंगाल में ज्यादातर लोगों से सरकार किसकी बनेगी पूछने पर एक ही जवाब सुनने को मिलता है वो है. 'बोलते पारबो ना'. इसका अर्थ है कि मैं इस बारे में कुछ नहीं बोल सकता. अब हमारा दूसरा सवाल ये होता है कि क्यों नहीं बोल सकते? तो लोग कहते हैं कि मामला 50-50 का है इसीलिए 'बोलते पारबो ना'.
Trending Photos
बंगाल चुनाव के कवरेज के दौरान जब मैं उत्तरी बंगाल के उत्तरी दिनाजपुर इलाके में हाइवे पर चाय पीने के लिए रुका तो सोचा वहां बैठे लोगों से चुनाव को लेकर बात की जाए. दुकान पर चाय के साथ-साथ नाश्ते की भी व्यवस्था थी. दुकान पर दो महिलाएं सुबह-सुबह आलू की सब्जी और पराठा बनाने में लगी हुई थीं. मैंने पूछा दीदी इस बार वोट किसको? महिला बोली 'बुझते पारबो ना'.... फिर मैंने कहा मोदी या दीदी? दूसरी महिला ने कहा 'बोलते पारबो ना' लेकिन मैंने वहां बैठे बाकी लोगों से पूछा कि ये दोनों बोल क्यों नहीं रही हैं, तो लोगों ने कहा कि 2018 पंचायत चुनाव में सत्तारूढ़ दल के लोगों द्वारा की गई राजनीतिक हिंसा के बाद अब लोग बोलने से डरते हैं. एक ने कहा कि बोल कर कौन लफड़ा लेगा... हमें जो करना है हमने तय कर लिया है. ये बात सिर्फ दिनाजपुर तक सीमित नहीं रही. जंगलमहल, दार्जलिंग, नादिया या फिर मालदा, बंगाल के लगभग हर इलाके की यही कहानी है. बंगाल में लोग खुलकर बात करने से बचते या फिर डरते दिखे.
इसीलिए मुझे लगता है कि बंगाल के चुनाव में साइलेंट वोटर (Silent Voter) एक अहम रोल निभाने वाला है. शायद यही वो वजह है कि बड़े से बड़ा राजनीतिक पंडित भी बंगाल चुनाव का आंकलन करने से डर रहा है. ये डर इन्हीं साइलेंट वोटरों की वजह से है.
करीब 1 महीने से ज्यादा बंगाल घूमने के बाद और तमाम लोगों से बात करने के बाद ऐसा लगा कि कुछ लोग ऐसे हैं जो न तो खुलकर बीजपी के पक्ष में वोट डालने की बात कर रहे हैं, न ही ममता बनर्जी की सरकार को एक और मौका देने की बात करते हैं.
लेकिन बंगाल में ज्यादातर लोगों से सरकार किसकी बनेगी पूछने पर एक ही जवाब सुनने को मिलता है वो है. 'बोलते पारबो ना'. इसका अर्थ है कि मैं इस बारे में कुछ नहीं बोल सकता. अब हमारा दूसरा सवाल ये होता है कि क्यों नहीं बोल सकते? तो लोग कहते हैं कि मामला 50-50 का है इसीलिए 'बोलते पारबो ना'.
ये भी पढ़ें- बंगाल: 21 में 'राम' और 26 में 'वाम' का नारा किसका है?
दरअसल, बंगाल में ज्यादातर लोग राजनीतिक हिंसा के शिकार हो चुके हैं और ये डर ही बंगाल के लोगों को कुछ भी नहीं बोलने को मजबूर कर रहा है. 2018 के पंचायत चुनाव में बंगाल के लोगों ने जबरदस्त हिंसा का सामना किया. करीब 80 लोग इस चुनाव के दौरान मारे गए और न जाने कितने लोग घायल हुए होंगे. भारतीय राजनीति के इतिहास में शायद ये पहला चुनाव था, जहां लोगों को नॉमिनेशन तक नहीं करने दिया जा रहा था, वोट करने की बात तो दूर. चुनाव आयोग के दखल के बाद भारतीय राजनीति में पहली बार ऑनलाइन नॉमिनेशन की इजाजत दी गई.
इस राजनीतिक हिंसा में बीजपी, लेफ्ट और कांग्रेस सभी दलों के कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया. लेकिन सबसे ज्यादा कार्यकर्ता बीजपी के मारे गए. इस गुस्से का इजहार बंगाल के साइलेंट वोटरों ने 2019 के लोक सभा चुनाव में किया. किसी को अंदाजा भी नहीं था कि बीजपी बंगाल में 40 फीसदी वोट के साथ 42 में से 18 लोक सभा सीट जीत जाएगी. लेकिन बंगाल के साइलेंट वोटरों की वजह से नामुमकिन बात मुमकिन हो पाई.
आज 2021 के विधान सभा चुनाव को लेकर भी बड़े-बड़े राजनीतिक पंडित अलग-अलग समीकरण का हवाला देकर बंगाल में BJP या TMC की सरकार बनने की बात कर रहे हैं. लेकिन इस बार भी 2019 के लोक सभा चुनाव की तरह हैरान करने वाले नतीजे आ सकते हैं, क्योंकि बंगाल में सत्तारूढ़ दल के डर की वजह से ज्यादातर लोग कुछ बोलने से बच रहे हैं.
'बोलते पारबो ना' तो हमने सबसे ज्यादा लोगो को बोलते सुना, लेकिन बंगाल में कुछ लोगों में डर इस कदर समाया हुआ है कि वो हिंदी नहीं समझने का बहाना बनाकर ये कहते हैं कि 'बुझते पारबो ना' यानी उनको कुछ समझ नहीं आ रहा है कि मैं उनसे पूछना क्या चाहता हूं.
अब शायद आप समझ गए होंगे कि 'बोलते पारबो ना' या फिर 'बुझते पारबो ना' कहने वाले लोग TMC के समर्थक या वोटर तो हो नहीं सकते, क्योंकि उन्हें आखिर किस बात का डर है. उनकी तो बंगाल में सरकार है. इसीलिए ये कहा जा सकता है कि बंगाल के ये साइलेंट वोटर इस विधान सभा चुनाव में ममता बनर्जी सरकार के सारे गणित बिगाड़ सकते हैं.
2019 के लोक सभा चुनाव में ममता बनर्जी की पार्टी को करीब 43% वोट मिले थे, जबकि बीजपी को करीब 40% वोट. ऐसे में 1 से 2% वोट का स्विंग किसी का भी खेल बना या बिगाड़ सकता है. यानी बंगाल चुनाव में असली खेला तो साइलेंट वोटर खेलेगा.
(लेखक रवि त्रिपाठी ज़ी न्यूज़ में सीनियर स्पेशल करस्पॉन्डेंट हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)