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एक जानेमाने शायर से किसी ने पूछा। सबसे ज्यादा मजा कैसी शायरी को लिखने में आता है। उन्होंने जवाब दिया- 'जिंदगी के फलसफे को लेकर लिखी गई शायरी'। फिर उनसे पूछा गया। वैसे मसले पर शायरी जिसपर उन्हें दिक्कत होती है या फिर लिखना मुश्किल होता है। शायर ने तपाक से जवाब दिया- 'हां, परिंदे।
उन्होंने फिर आगे कहा 'जब भी मैं परिंदे को लेकर शायरी करना चाहता हूं, कुछ लिखना चाहता हूं तो उनकी चहचहाहट में सबकुछ भूल जाता हूं। उनके हवा में फड़फड़ाते हुए परों के आगे मैं लफ्जों को शायरी में नहीं बांध पाता हूं। मुझे दुख नहीं होता कि मैं उनपर शायरी नहीं लिख पाता बल्कि मुझे खुशी होती है कुदरत के उन अनमोल पलों का दीदार कर पाता हूं जिसमें मैं अपनी शायरी तक भूलकर सही मायने में जिंदगी जीना सीखता हूं'।
परिंदे पर्यावरण के सच्चे प्रहरी कहे जाते है। उन्हें पर्यावरण दूत का भी दर्जा दिया गया है। लेकिन अंधाधुंध शहरीकरण के बीच हमने उनका बसेरा छीन लिया है। अब आसमान में परिंदों के पर फड़फड़ाते है। फिजाओं में उनकी कूक,चींची सुनाई देती है। लेकिन उनके आशियाने को हमने उजाड़ दिया है। या यूं कहे कि हमें फिक्र ही नहीं रही कि हमारी तरह इन परिंदों का भी कोई बसेरा हो। सबसे ज्यादा उन नुकसान घर के आंगन में बरबस फुदकने वाली उस गौरैया के साथ हुआ जिसे आज भी हाउस स्पैरो यानी घर की चिड़िया कहा जाता है। परिंदों के लिए बसेरा उनके लिए सवेरा होने जैसा ही है। इसी कोशिश में दिल्ली के पर्यावरणविद राकेश खत्री की एक नई और अनोखी पहल रंग लाई है जो गौरैया संरक्षण पर पिछले कई वर्षों से काम कर रहे हैं।
राकेश खत्री पिछले कई साल से पर्यावरण के अलग-अलग सेगमेंट में काम कर रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों से वह पक्षियों के संरक्षण पर भी काम कर रहे हैं। फिलहाल वह गौरैया संरक्षण के साथ जल संरक्षण पर भी काम कर रहे हैं। वह देशभर में 15 हजार से ज्यादा घोंसले बना चुके हैं। लेकिन घोसले बनाने की उपलब्धि को राकेश खत्री बड़ा नहीं मानते। उनका कहना है 'जब मैं इन घोसलों को बनाता हूं तो इसके पीछे मेरी एक आस होती है, उम्मीद छिपी होती है और उसको साकार करने के लिए मैं इस कवायद को अंजाम देता हूं। मैं चाहता हूं कि जिस घोसले को बनाऊं उसमें वो पक्षी आकर रहे जिसके लिए यह बनाया गया है।' उनके मुताबिक हर पक्षी के घोंसले में थोड़ा-बहुत फर्क होता है लेकिन आशियाना तो आशियाना होता है। इंसान अपनी पूरी जिंदगी एक आशियाने की खातिर क्या कुछ नहीं करता लेकिन अपने आसपास पर्यावरण के इन दूतों (परिंदों) के बारे में नहीं सोचता। वह चाहते है कि लोग तेज रफ्तार से अपनी भागती दौड़ती कश्मकश से भरी जिंदगी में से थोड़ा वक्त निकाले। क्या उस गौरैया की खातिर एक घोसला भी नहीं बना सकते जो रूठकर हमारे घर के आंगन से चली गई है?
इसी सिलसिले में एक अनोखी पहल करते हुए राकेश खत्री ने दिल्ली से नोएडा और नोएडा को दिल्ली से जोड़नेवाले डीएनडी फ्लाइवे पर गौरैया को आमंत्रित करने का फैसला किया। उनके लिए यह एक बड़ी चुनौती थी। डीएनडी फ्लाइवे से रोजाना तकरीबन 25 हजार से भी ज्यादा गाड़ियां गुजरती है। इस शोर के बीच घर के आंगन में कभी फुदकने वाली गौरैया को यहां बुला पाना इतना आसान नहीं था। तकरीबन दो हफ्ते पहले उनकी संस्था की अगवाई में घोसले लगाए गए। मयूर विहार की तरफ डीएनडी पर उन्होंने गौरैया के लिए 18 घोसले लगाए। अगली सुबह जब वह अपनी टीम के साथ यहां पहुंचे तो घोसले में चीं-चीं की आवाज गूंजायमान हो रही थी। सुबह के वक्त सूर्य की प्रतिबिंबित होती लालिमा से भरी किरणों ने फिजाओं में खुशियों के साथ गौरैया की चहचहाहट भी घोली थी। राकेश और उनकी टीम का खुशी का ठिकाना नहीं रहा। सबसे बड़ी बात जो हैरान कर रही थी और वो ये कि गाड़ियों की आवाजाही के बीच हर बर्ड हाउस में गौरैया ने अपना बसेरा बना लिया था। राकेश के मुताबिक इस इलाके में लगभग चार सौ गौरैया रहती है कई जगहों पर यहां देखा जा सकता है।
राकेश जी की पहल से गौरैया को घोसले में आमंत्रण दिया गया। अब वह घोसला, घोसला नहीं रहा गौरैया का घर बन गया है। अलसाई सुबह का वक्त हो या फिर ढलते हुआ सूरज की लालिमा, गौरैया को घोसले में तिनके,घास-फूस लाते हुए देखा जा सकता है। घोसलों की संख्या जरूर 18 है जिसमें अब 18 जोड़े गौरैया रहते है। राकेश जी कहते है 'काम कोई भी मुश्किल नहीं बस आपकी नीयत साफ और हौसले में ताकत होनी चाहिए। आपके हौसले की उड़ान ही इन परिंदों के उड़ान यानी उनके जीवन को जीवंत बनाने और संवारने के काम आएगी।'
गौरैया के घोसले के एक आशियाने में तब्दील होने की कहानी बड़ी दिलचस्प है। राकेश खत्री कहते हैं 'जो घोसला हम बनाकर एक प्रतीक के रूप में इन गौरैयों को देते है। उसे घर के रूप में बदलने की कवायद की सबसे पहली पहल नर गौरैया करता है। वह घोसले में तिनका-घास-फूस सात से आठ दिनों तक लगातार लाता है। इसके बाद उन लाए हुए तिनके-घास-फूस को करीने से संवारने के लिए मादा गौरैया का घोसले में प्रवेश होता है। मादा गौरैया इन बिखरे हुए तिनके को करीने से सजाती-संवारती है और उसे दोनों (नर और मादा गौरैया) के रहने के लिए घर का रूप देती है। अब इस घोसले में दोनों रहने लगते है। जब अंडे देने के बाद मादा गौरेये उसे सेती है और जबतक उसमें से चूजे नहीं निकल जाते , इस दौरान पूरा ख्याल नर गौरैया रखता है। मादा गौरैया घोसले से बाहर नहीं निकलती और उसके खाने-पीने का पूरा बंदोबस्त नर गौरैया ही करता है।' हर घोसला दो गौरैया से गुलजार होता है जिसमें नर और मादा रहते है। अंडे देने उसके सेने का चक्र चलता रहता है इस तरह से गौरैया के परिवार में नए सदस्यों के आगमन का यह सिलसिला चलता रहता है। लेकिन यह सबकुछ आशियाने पर निर्भर करता है। क्योंकि घोसला इनके जीवन में ठीक वही भूमिका निभाता है जो इंसान के जीवन में एक घर का महत्व होता है।
पक्षियों पर संरक्षण के राकेश खत्री के अनोखे और विविध प्रयासों को कई राष्ट्रीय मंच के अलावा अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी सराहना मिली है। 56 वर्षीय राकेश खत्री की संस्था ईको रूट फाउंडेशन को लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड का अवॉर्ड भी मिल चुका है। यह पुरस्कार उन्हें वर्ष 2012 में जलवायु परिवर्तन सबजेक्ट पर सात महीने में देशभर के 17 राज्यों के 240 स्कूलों में 12 भाषाओं में थिएटर करने के लिए मिला था। वर्ष 2013 में राकेश खत्री को गौरैया संरक्षण के लिए लंदनमें प्रतिष्ठित इंटरनेशनल ग्रीन एप्पल अवार्ड से भी नवाजा जा चुका है।
परिंदों से जुड़े कुछ अलफाजों को अगर आप ध्यान से सुने तो बड़ा सुकून मिलता है। इन शब्दों में गजब की ताजगी है जो आपको ऊर्जा से भर देती है। जरा गौर कीजिए। फुर्र-फुर्र, फुदकना, चुगना,चीं-चीं,चहचहाहट,चूं-चूं,चुग्गा,कलरव,फड़फडाना,चोंच आदि। एक नन्ही गौरैया आपके घर के दरवाजे के बाहर बैठी है। वो इस आस में बैठी है कि घर का दरवाजा कभी तो खुलेगा। क्या आप घर का दरवाजा खोलेंगे?