अपने देश की अधिसंख्य आबादी की बेहद कमजोर माली हालत के कारण अगर विश्व खुशहाली रिपोर्ट में हमारी ऐसी स्थिति बताई गई हो तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए. हमें चाहिए कि खेती किसानी और बेरोज़गारी पर ध्यान देने के काम पर फौरन लग जाएं.
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आज विश्व खुशहाली दिवस है. संयुक्त राष्ट्र्र के सदस्य देश होने के नाते हमें भी इस दिवस पर खुशहाली की चर्चा करनी चाहिए. हालांकि मुख्यधारा के मीडिया में होती दिख नहीं रही है. वैसे पिछले हफ़्ते ही विश्व खुशहाली रिपोर्ट भी जारी हुई है जिसमें अपने देश में खुशहाली बढ़ने की बजाए उसे घटता हुआ बताया गया है. इस तरह की रिपोर्ट जारी होना अभी छह साल पहले ही शुरू हुआ है. आखिर किसी देश की खुशहाली को अलग से मापने की जरूरत क्यों पड़ी? पहले इसका अंदाज़ा कैसे लगाया जाता था? उस पद्धति में क्या कमियां थीं? वे कमियां क्या दूर कर ली गई हैं? इन बातों पर गौर करने का इससे अच्छा और कौन सा दिन होगा?
पहले से क्या करते आए हैं?
अंतरराष्ट्र्रीय स्तर पर बहुत पहले से हम मानव विकास सूचकांक के जरिए किसी देश के नागरिकों की स्थिति का आकलन करते आए हैं. इसके लिए हर देश के औसत नागरिक के जीवन में आ रहा बदलाव देखा जाता था. यानी उसके आर्थिक और सामाजिक जीवन में कितना बदलाव आ रहा है इसे आंका जाता था. इसके लिए हर देश में भोजन, शिक्षा, आवास, चिकित्सा और उर्जा की खपत जैसे संकेतकों को देखा जाता था. लेकिन इसके आकलन के लिए पूरे देश के आंकड़े को जनसंख्या से भाग देकर औसत निकालना ही एक तरीका था.
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इसमें दिक्कत यह थी कि किसी जगह ऊपर के छोटे से तबके के भारी भरकम विकास के कारण औसत नागरिक का विकास भी दिखने लगता था. यानी अधिसंख्य नागरिकों का विकास न होने के बावजूद यह भ्रम बन जाता था कि उस देश के नागरिको का रहन सहन भी बेहतर हो रहा है. इसी कमी को दूर करने के लिए विकास की जगह खुशहाली के आकलन की व्यवस्था सोची गई.
संयुक्त राष्ट्र की नज़र में हमारी खुशहाली का स्तर
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में हमारी खुशहाली की हालत अच्छी निकल कर नहीं आई. विश्व के 156 देशों में सबसे खुशहाल देश इस साल फिनलैंड निकल कर आया. हमारा नंबर 133वां है. पिछले साल हमारा नंबर 122 था. यानी सन 2016 के मुकाबले 2017 में हम 11 अंक और नीचे आ गए. औसत खुशहाल देश से बहुत नीचे. क्या वाकई हमारी हालत ऐसी ही है?
कैसे होता है यह आकलन
बेशक इसके आकलन के लिए आर्थिक स्थिति के अलावा और भी बहुत सारे संकेतक जोड़ दिए गए हैं. फिर भी खुशहाली को मापना किसी मनोवैज्ञानिक तत्व को तौलने जैसा है. अभी ऐसा कोई तरीका ईजाद नहीं हो पाया जो सुख दुख का वास्तविक मात्रात्मक आकलन कर सके.
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फिर भी अपनी सीमाओं में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देशों में खुशहाली की मापन विधि पर हम ज्यादा सवाल खड़े नहीं कर सकते. लिहाज़ा इस विश्व खुशहाली दिवस पर हमें यह विचार करने की जरूरत तो है ही कि देश में खुशहाली का स्तर बढाने के लिए हम कर क्या सकते हैं.
अमीर और गरीब की बढ़ती खाई का सवाल
इसमें कोई शक नहीं कि दुनिया के हर देश के हर नागरिक की स्थिति का लेखा जोखा बनाना संभव नहीं है. एक छोटे से सेंपल का ही सर्वेक्षण संभव है. लेकिन यह सेंपल चुनते समय इस बात का खयाल रख सकते हैं कि उसमें हर तबके के लोग आ जाएं. अगर सिर्फ अपने देश की स्थिति पर नज़र डालें तो गरीबी अमीरी के लिए बहुत सारे वर्गों को बनाने की हमें ज्यादा जरूरत नहीं पड़ेगी. सिर्फ गांव और शहर को अलग अलग करके देख लें तो आसानी से दिख जाएगा कि देश के गांवों में खुशहाली की स्थिति ठीक नहीं है.
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गांव की कुल आबादी आज भी देश की आबादी में आधी से ज्यादा है. शहरों में तो फिर भी मजदूरी और छोटे मोटे कामधंधे के मौके पैदा होते रहते हैं लेकिन गांववालों के पास खेती किसानी के अलावा कोई और काम करने का मौका ही नहीं बन पा रहा है. यह कहने की जरूरत नहीं कि देश में खेती किसानी से गुज़ारा हो पाने में दिक्कत आ रही है. अपने देश की अधिसंख्य आबादी की बेहद कमजोर माली हालत के कारण अगर विश्व खुशहाली रिपोर्ट में हमारी ऐसी स्थिति बताई गई हो तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए. हमें चाहिए कि खेती किसानी और बेरोज़गारी पर ध्यान देने के काम पर फौरन लग जाएं.
(लेखिका, प्रबंधन प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रेनोर हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी हैं)