जलालत के तीन साल
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जलालत के तीन साल

वो रात इंसानियत के सीने पर एक भारी पत्थर की तरह हमेशा चुभती रहेगी। मानवीयता के दामन पर एक काले धब्बे की तरह हमें मुंह चिढ़ाती रहेगी। वो रात न कभी भुलाई जा सकती है, न कभी उसका कलंक मद्धम पड़ सकता है। उसका बस मातम मनाया जा सकता है। मातम उस व्यवस्था का भी जो उस जुर्म का गवाह बना और जिसके सामने 16 दिसंबर और उसके बाद न जाने कितनी निर्भयाओं के नसीब में ज़लालत का दर्द लिखा गया।

फाइल फोटो: (प्रतीकात्‍मक तौर पर)

वो रात इंसानियत के सीने पर एक भारी पत्थर की तरह हमेशा चुभती रहेगी। मानवीयता के दामन पर एक काले धब्बे की तरह हमें मुंह चिढ़ाती रहेगी। वो रात न कभी भुलाई जा सकती है, न कभी उसका कलंक मद्धम पड़ सकता है। उसका बस मातम मनाया जा सकता है। मातम उस व्यवस्था का भी जो उस जुर्म का गवाह बना और जिसके सामने 16 दिसंबर और उसके बाद न जाने कितनी निर्भयाओं के नसीब में ज़लालत का दर्द लिखा गया। उनकी ज़िन्दगी या तो लील ली गई या फिर.. जहन्नुम बना दी गई।

निर्भया कांड की हर बरसी पर हम और आप खुद से एक ही सवाल करते हैं कि तब से अब तक बदला क्या? क्या औरतों की सुरक्षा को लेकर वो डर कम हुआ जिसने 16 दिसंबर 2012 के बाद हममें से कइयों को सड़कों पर उतरने पर मजबूर कर दिया था? क्या उन आशंकाओं में कुछ कमी हुई जो शाम ढ़लते ही उन मां-बाप को घेर लेती हैं जिनकी बेटियां घरों से बाहर निकलती हैं, पढ़ती हैं, काम करती हैं। जवाब है नहीं, बिल्कुल नहीं। न माहौल बदला और न आंकड़े। जस्टिस कमेटी रिपोर्ट राजधानी दिल्ली में 2012 के मुकाबले आगे के सालों में रेप के मामले बढ़े हैं। एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक साल 2012 में जहां बलात्कार के 585 मामले दर्ज किए गए थे, वहीं 2013 में ये संख्या बढ़कर 1441 हो गई और तो और साल 2014 में ये आंकड़ा 1813 पर जा पहुंचा। इसी साल यानि 2015 में नाबालिग बच्चियों के साथ बलात्कार के मसले ने खूब तूल पकड़ा। दिल्ली सरकार और केन्द्र सरकार के बीच संवेदना व्यक्त करने और ज़िम्मेदारियों से पल्ला झाड़ने की होड़ भी दिखी। लेकिन इन सबके बीच सच्चाई ये है कि सरकारें अपने-अपने स्तर पर नाकाम हैं और यही इनकी फितरत है क्योंकि निर्भया कांड के तीन साल बीत जाने के बाद भी हालात जस के तस हैं। ताज़ा मामला है दक्षिण दिल्ली के तिगड़ी इलाके का जहां एक 7 साल की मासूम हैवानियत का शिकार हुई और अब असहनीय पीड़ा के बीच ज़िन्दगी की जंग लड़ रही है और चूंकि आरोपी नाबालिग है इसलिए निर्भया की बरसी पर फिर से एक बार हमें वही सवाल आंखें दिखा रहा है जिसका जवाब इन तीन सालों में हम ढ़ूंढ नहीं सके।

दोषी को सज़ा देने के पीछे दो मकसद सबसे अहम होते हैं। एक ये कि पीड़ित को इंसाफ़ मिले और दूसरा ये कि उस सज़ा से सबक लेकर आगे से कोई और शख्स उसी अपराध को अंजाम देने से पहले सौ बार सोचे। यही वजह है कि भारत में बढ़ते बलात्कार के मामलों को हम अक्सर लचर कानून और सज़ा में सुस्ती से जोड़कर देखते हैं। इसलिए ये सवाल डराता है कि अगर निर्भया जैसे चौतरफ़ा चर्चित मामले में भी इंसाफ का इंतज़ार लंबा होता जाए तो उन असंख्य दूसरे मसलों में त्वरित न्याय की उम्मीद कैसे की जा सकती है जो न टीवी-अखबारों में जगह बना पाते हैं, और न जिनकी हमें भनक लगती है। हाल ये है कि निर्भया के माता-पिता बुझी आंखों से हर रोज़ बेटी के इंसाफ की बाट जोह रहे हैं लेकिन जो हो रहा है वो किसी मज़ाक से कम नहीं है। रेप और हत्या के नाबालिग आरोपी की सज़ा ख़त्म हो गई है और से रिहा किया जाना है। रिहाई के लिए 20 दिसंबर की तारीख तय की गई है। हालांकि रिहाई के विरोध में दायर की गई याचिका की सुनवाई में केन्द्र सरकार ने उसे कुछ और दिन बाल सुधार गृह में ही रखने की अपील की है।

सवाल ये है कि आखिर निर्भया को इंसाफ दिलाने की होड़ में सबसे आगे दिखने की कोशिश करने वाली सभी राजनीतिक पार्टियां मिलकर एक ऐसी व्यवस्था विकसित करने में तत्परता क्यों नहीं दिखा रहीं हैं जहां क्रूर वारदातों को अंजाम देने वाले नाबालिगों को सज़ा दिलाई जा सके। ख़ासकर तब जब दुनिया के कई देशों में ये व्यवस्था पहले से लागू है। यहां जानना ज़रूरी है कि जुवेनाइल जस्टिस बिल 2015 इसी साल मई महीने में लोकसभा से पारित कर दिया गया था। अब राज्यसभा में बिल के पारित होने का इंतज़ार है। नए बिल में कहा गया है कि रेप, मर्डर, एसिड एटैक जैसे ख़तरनाक अपराधों में शामिल नाबालिगों पर आम अदालतों में केस चले और बालिगों के लिए कानून के मुताबिक ही सज़ा हो। एक तरफ कानून में बदलाव की कोशिश अपनी सुस्त प्रक्रिया के साथ आगे बढ़ रही है तो दूसरी तरफ बाकि चार आरोपियों की सज़ा का इंतज़ार भी लंबा होता जा रहा है। वारदात का मुख्य आरोपी रामसिंह पहले ही तिहाड़ जेल में खुदकुशी कर चुका है।

जघन्य वारदात के तीन साल पूरे होने पर निर्भया के परिजनों ने न सिर्फ नाबालिग की रिहाई की आशंकाओं पर हताशा जताई है बल्कि एक इंटरव्यू में कहा है कि हम हार गए अब इंसाफ़ की कोई उम्मीद नहीं है। अगर वाकई निर्भया के माता-पिता हारा हुआ महसूस कर रहे हैं तो ये हार सिर्फ उनकी नहीं हो सकती। ये हार हम सबकी होगी जो उसी समाज का हिस्सा हैं जहां कुत्सित मानसिकता फलती-फूलती है। व्यवस्था की होगी जहां डर अपराधियों के नहीं बल्कि आम लोगों के ज़हन में है। इसलिए इस 16 दिसंबर जब निर्भया को श्रद्धांजली देने का ख्याल मन में आए तो सोचिएगा ज़रूर कि बेहतर देश और बेहतर दुनिया के निर्माण में योगदान देने के जो रास्ते आपके सामने हैं क्या उसमें से एक रास्ता भी आपने अख्तियार किया है? अगर नहीं तो शुरूआत करिए, यही निर्भयाओं को असली श्रद्धांजली होगी। (इस आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखिका के निजी विचार हैं)

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