रंगों की ‘रज़ा' थी कि यादों का उजास कायम रहे
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रंगों की ‘रज़ा' थी कि यादों का उजास कायम रहे

मध्यप्रदेश को इस बात का फ़क्र है कि दुनिया का यह बुलंदपाया चित्रकार इसी सूबे के एक गांव में पैदा हुआ. नर्मदा के किनारे मंडला ज़िले की सरहद में बसा बबरिया देहात रज़ा की जन्मभूमि है.

रंगों की ‘रज़ा' थी कि यादों का उजास कायम रहे

यकीकन, मन में सुगंध की तरह फैलती है धूप. उजले से हो जाते हैं कई धुंधलाए से चित्र. दूर कहीं बजता है वहीं पुराना गीत और भर देता है नए रंग उन्हीं धुंधलाएं चित्रों में. फिर धूप-ध्वनि और रंग में चलता है न जाने कितनी देर लुका-छिपी का खेल... और अंत में रह जाती है बस याद और याद में बसी भीनी सुगंध... स्मृतियों के ऐसे ही रंग-बिरंगे, मासूमियत से महकते, अपने मोह-पाश में सारी कायनात को समोते अंधेरे-उजाले के अहसास जब किसी चितेरे की कूची से रिश्ता बना लेते हैं तो जैसे सारी मनुष्यता को कला की नई जुबां मिल जाती है. आधुनिक चित्रकला के विश्व परिसर में सैयद हैदर रज़ा अपने इसी नायाब हुनर की बदौलत शोहरत की बुलंदियों पर उभरा नाम है...

पंछी उड़ गया, शाख हिलती रही, फूल मुरझा गया, खुशबू बहती रही... कला के फलक पर अपनी फनकारी के अमिट हस्ताक्षर छोड़ रज़ा ने 23 जुलाई को हमेशा के लिए खामोशी की चादर ओढ़ ली. लगभग आधी सदी तक फ्रांस में अपना जीवन गुज़ारने वाले रज़ा की कुछ साल पहले ही अपने वतन (भारत) वापसी हुई थी. वे दिल्ली में बस गए थे. चौरानवे की उम्र में भी रंग और कूची की सोहबत में किसी स्मृति चित्र को उकेरते हुए उन्होंने आखिरी सांस ली.

मध्यप्रदेश को इस बात का फ़क्र है कि दुनिया का यह बुलंदपाया चित्रकार इसी सूबे के एक गांव में पैदा हुआ. नर्मदा के किनारे मंडला ज़िले की सरहद में बसा बबरिया देहात रज़ा की जन्मभूमि है. 22 फरवरी 1922 को इसी बुंदेली माटी में हैदर ने पहली किलकारी भरी. अपने साधारण परिवार की सीमित आमदनी और संसाधनों के बीच रज़ा का लड़कपन बीता. लेकिन जीवन को तरतीब से जीने के जो सबक अपने वालिद और गुरु से उन्हें मिले ताउम्र रज़ा अपने सिर-माथे रख दुनिया की उड़ान भरते रहे. उम्र के एक मुकाम पर रज़ा ने अपने गांव की चौहद्दी लांघी. मुंबई गए और वहां से दुनिया की सर्वश्रेष्ठ कला से आंख मिलाते फ्रांस (पेरिस) की ओर रुख किया, लेकिन बबरिया, मंडला, दमोह की मटियारी यादें सदा सीने से चिपकी रही.

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सेंट्रल प्रॉविंस में मंडला के डिप्टी रेंजर रहे सैयद मोहम्मद रजी के बेटे हैदर ने 12 साल की उम्र में ही कूची थाम ली थी. बाबरिया के स्कूल में ब्लैकबोर्ड पर चाक से बिंदु बनाए जाने के बाद उसे दिनभर देखने की शिक्षक से मिली सजा ने उनमें अमूर्त (बिंदु चित्रकारी) का बड़ा नाम बनने के बीज बो दिए. 13 साल की उम्र में दमोह चले गए. वहां उन्होंने स्कूली शिक्षा प्राप्त की, फिर नागपुर कला विद्यालय (1939-43) तथा जेजे आर्ट विद्यालय बंबई (1943-47) से आगे की शिक्षा ली.

भारत हमेशा उनकी कला और दिल के करीब रहा. उनके प्रमुख चित्र अधिकतर तेल या एक्रेलिक में बने परिदृश्य हैं जिनमें रंगों का अत्यधिक प्रयोग किया गया है. इन चित्रों में भारतीय ब्रह्मांड विज्ञान के साथ-साथ दर्शन के चिह्न भी दिखाई देते हैं. रजा को 1981 में पद्मश्री तथा 2007 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया. 10 जून 2010 को वे भारत के सबसे महंगे आधुनिक कलाकार बन गए जब क्रिस्टी की नीलामी में ‘सौराष्ट्र’ नामक एक सृजनात्मक चित्र 16.42 करोड़ रुपयों (34,86,965 डॉलर) में बिका था.

मिट्टी की कसक ही कुछ ऐसी होती है कि आदमी बार-बार उसकी ओर लौटना चाहता है. वे हर साल वसंत के दिनों में खूश्बूदार मौसम की तरह भारत की धरती पर नमूदार होते. अपनी सरज़मी की धूल को माथे पर लगाने गांव जाते. नर्मदा का सुरम्य किनारा और बुंदेलखंड का सौंधा अहसास जीकर रज़ा की धमनियों का रक्त गाढ़ा हो जाता. जाते-लौटते वे भोपाल रुकते. नए कवि-चित्रकारों से मिलते. उनकी पीठ पर शाबासी की मोहर लगाते. हम उम्रों से गपियाते और अपनी नई-पुरानी कलाकृतियों में कौंधते रंगों के रहस्यों पर चर्चा करते. रज़ा से लंबी गुफ्तगू का एक ऐसा ही सौभाग्य-क्षण मेरे हिस्से भी आया. यह वर्ष 1998 की एक सर्द सुबह थी. फरवरी का महीना. रज़ा अपना जन्मदिन मनाने भारत आए थे. भोपाल के होटल जहांनुमा में उनसे हुई बातचीत में जैसे पूरा जीवन ही खिलखिला उठा था. बचपन की स्मृतियों से लेकर फ्रांस तक का सफर किया. अपनी कला के गूढ़ रहस्यों में समाए जीवनबोध से लेकर मौजूदा दौर की बनती-बिगड़ती सांस्कृतिक तस्वीर पर उनकी चिंताओं से बावस्ता होने का वह दुर्लभ अवसर था. इस आलेख के साथ रज़ा से हुए उस विरल संवाद के कुछ अंश संलग्न हैं.

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बहरहाल, रज़ा की सबसे बड़ी खासियत रही उनकी विनम्रता. अहंकार और आत्मज्ञापन की क्षुद्र लालच से परे आत्मीयता का खुला आंचल हमेशा उनकी शख्सियत पर लहराता रहा. सौम्य मुस्कान की आभा हमेशा ही उनके चेहरे पर तैरती रहती और यही मौन आमंत्रण किसी को भी उनकी ओर खींच लेता.

भोपाल से उनकी मैत्री अंत तक कायम रही. बड़े-छोटे सभी आयु के कलाकार-साहित्यकार उनकी दोस्ती में बिंधे रहे. अपनी कलाकृतियों की बिक्री से कमाई पूंजी का एक हिस्सा उन्होंने म.प्र. कला परिषद में जमा किया और युवा कविता तथा चित्रकला के लिए रज़ा पुरस्कार की स्थापना की. कला के मरकज़ भारत भवन में उनकी अनेक चित्रकृतियां संग्रहीत हैं.

प्रख्यात चित्रकार सचिदा नागदेव चालीस साल पुरानी यादें साझा करते हुए बताते हैं कि मेरी और मेरे चित्रकार दोस्त सुरेश चौधरी की आर्ट एग्जीबिशन जहांगीर आर्ट गैलरी में चल रही थी. अचानक गेट से ही रज़ा साहब और उनकी पत्नी आते दिखे. वे मेरे गुरु और भीमबैठका की खोज करने वाले विष्णु श्रीधर वाकणकर के घनिष्ठ मित्र भी थे. उन्होंने एग्जीबिशन देखी. फिर हमसे बात की. हमने कहा- रज़ा सर आप मुंबई आते हो वापस चलते जाते हो, भोपाल में कला को लेकर काफी गतिविधियां चल रही हैं. आएंगे तो नए कलाकारों को मार्गदर्शन मिलेगा. उन्होंने तपाक से कहा कि आप बुलाओगे तो हम आ जाएंगे भाई. तभी हमने कहा- हम आपको अभी आमंत्रित करते हैं. यह जानकारी भोपाल कला परिषद में अशोक वाजपेयी को दी, जो उस वक्त कला परिषद के सचिव थे. एक महीने बाद ही रज़ा साहब भोपाल आए. कला परिषद में उनका लेक्चर हुआ और कविता पाठ भी. यह उनकी भोपाल में पहली यात्रा थी और मध्यप्रदेश से दोबारा जुड़ने की भी. फिर उनका अक्सर भोपाल आना-जाना लगा रहा. उनकी एग्जीबिशन जब कला परिषद में होनी थी, तब हम रात को उनकी पेंटिंग के फ्रेम तैयार करने में जुटे थे. एग्जीबिशन के बाद वे मेरे घर गए. हमारा भीमबैठका जाने का प्लान हुआ. हमने उनसे पूछा कि क्या खाएंगे? उन्होंने कहा कि पेरिस में पूड़ी-सब्जी बहुत मिस करता हूं. उनके लिए पूडी-भाजी बनाकर हम भीमबैठका पहुंचे. वहां उन्होंने कविताएं सुनाई और मैंने गाना. उन्होंने कहा, 'मैं इस मिट्टी से दूर हूं, लेकिन उसकी खुश्बू से नहीं.' और उनकी इसी फितरत और ख्वाहिश के चलते उनका नश्वर शरीर 24 जुलाई की सुबह उनके पैतृक गांव में अपने पिता की कब्र के पास खाक में मिला दिया गया.

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रज़ा के प्रमुख चित्र अधिकतर तेल या एक्रेलिक में बने परिदृश्य हैं जिनमें रंगों का अत्यधिक प्रयोग किया गया है.

रज़ा की ज़ुबां में लरजते गुजिश्ता लम्हें...
'बम्बई से मुझे डर लगता था मैं तो दमोह से बाहर गया ही नहीं था और बम्बई में आया देखा बड़ी-बड़ी बिल्डिंग हैं. जब पेरिस में गया तो, उस वक्त सत्ताईस बरस की उम्र थी कॉन्फिडेन्स कुछ बढ़ गया था और पेरिस मुझे बहुत पसंद आया. हमेशा पेरिस के अपने कमरे में ऐसा ही लगता है मुझे कि मैं देश में हूं. मैं कहीं नहीं गया. मैं हमेशा कहता हूं कि मैं यहीं रह रहा हूं. मानिए, मैं कहीं नहीं गया. इट टेक्स एट अवर टू फ्लाई ओवर. इट इज एक्सट्रीमली शॉर्ट. मगर दि इमेज एण्ड वेल्यूस ऑफ इंडिया इन माई हार्ट, आई एम वर्किंग. देश में कई लोग इन चीज़ों को भूल भी जाते हैं.'

बचपन के तेरह सालों में बसी है सारी जिंदगी
'जन्म होने के बाद के पहले दस साल मेरे विचार से बहुत महत्वपूर्ण है. इन्हीं दस सालों में कहना चाहिए कि सारा जीवन बन जाता है. दस-बारह साल की जिंदगी में लगता है कि लाइफ इज स्टाप्ड आउट. और बाद में हम इस बात को भूल जाते हैं मगर फिर अगर सालों के बाद हम अपने बचपन की ओर जाएं तो ऐसा लगता है कि जो कुछ भी इस समय हुआ है बबरिया में, इन तेरह सालों में सारी जिंदगी बसी लगती है. जो भी आज मैं चित्र बना रहा हूं, मुझे लगता है उस जीवन का जिसको मैंने बचपन में शुरू-शुरू में बिताया है क्रिस्टलाइजेशन है, या यह उसका फल है, उसका नतीजा है. जैसे कि दरख्त के बढ़ते-बढ़ते बाद में उसमें फूल और फल आते हैं उसी तरह बाद में छोटी-छोटी सी बातें, जो हमें छोटी लगती हैं वो छोटी नहीं हैं, वह एक नया विस्तार पाती हैं.वहाँ पर पक्षी थे, जानवर थे, वृक्ष थे, पौधे थे, आम-इमली के पेड़ थे, हाथी थे, और कभी-कभी एक बहुत बड़ा हाथी आता था तो हम बच्चे डरते थे और वह बहुत ही पहाड़ की तरह पावरफुल लगता था. हम लोग पौधे और बीज लगाते थे. एक बगीचा था. मेरे पिताजी को बगीचे का शौक था. और हम लोग भी उसको पानी देते थे. मैं भूल गया इन बातों को. मगर बाद में जब मैंने फिर कोशिश की कि अपने बचपन की ओर जाऊं, ये बातें फिर से मन में आईं. नर्मदा जी, बहुत ही सुन्दर नदी, सतपुड़ा के पहाड़, विन्ध्याचल, अमरकंटक जहां हम गए नहीं मगर उसकी छवि तो मन में थी. ‘शेर तिलमिल’ वहां के आदिवासी का नाच है. सच कहता हूं उस समय समझ में नहीं आता था कि क्या है? ये क्यों आग लगाते थे बीच में. एक ओर स्त्रियां दूसरी ओर मर्द और वो गा के आगे बढ़ते हैं और फिर उसमें समझ में नहीं आता था परंतु बहुत ही सुंदर लगता था. वो लोग पिता जी को जानते थे और पिता जी उसको जानते थे. उन्होंने इन आदिवासियों के ऊपर बहुत कुछ लिखा है.देखिये मैं कहता हूं बचपन में मैंने लिखा भी इन चीजों को तो उसका एक अजीब सा प्रभाव होता है. और यह होता है कि चित्रों में क्यों न किया जाए कि सृष्टि एक नया रूप ले सके? मैं मध्यप्रदेश के जंगलों को, जैसी आंखें देखती हैं उस प्रकार से नहीं बनाना चाहता हूं.'

धरती बहुत महत्वपूर्ण है, कलाकार के लिए भी
'मैंने बचपन की बहुत सारी बातें की हैं कि पहले दस-बारह साल में सारी जिंदगी बन जाती है और जो अपने बचपन की ओर जाता है वह मेच्युरिटी की स्टेज में, बुढापे में मेरे ख्याल से बहुत सम्पूर्णता से अपनी अभिव्यक्ति को पा सकता है. यह बचपन की बात है. बेनीप्रसादजी, गौरीशंकरजी लहरी ये शिक्षक थे मेरे स्कूल के और उन्होंने कुछ दोहे बहुत ही लगन से हम लोगों को सुनाए थे और हम देखते थे उनके चेहरे पर सुख दिखाई देता था. लहरी जी कविता जब सुनाते थे तो मजा आता था और हम लोग शाला के बाद भी उनके घर इन बातों को सुनते थे. क्यों न इन विचारों को लेकर यानी सेण्टीमेण्टल तरीके से नहीं, गहराई से अपने चित्रों में काम किया जाए. मेरा पहला चित्र ब्लैक रहेगा. दूसरे चित्र में नीचे ब्लैक होगा और वहां से ब्लैक से ग्रे की ओर जाते हुए सफेद तक और ऊपर बीच में एक श्वेत-बिंदु. जिस प्रकार कि एक मनुष्य की जागृति होती है. अंधकार से प्रकाश की ओर. तो तीसरा चित्र हो सकता है जो ग्रेज के कन्सट्रेप्शन हों. देखिये जमीन, धरती बहुत ही महत्वपूर्ण है. उसको मैं नहीं देख रहा हूं जो जमीन के ऊपर है. धरती के अंदर भी बहुत कुछ है. होरिजेण्टल लाइन्स ‘अर्थ इन दि कैनवास’ और उसको कन्सट्रेप्ट करना और कहे कि हां, यह चित्र है. और उसमें जो डिटेल्स आएं, उसमें जो मेन कम्पोजीशन हों उसके ऊपर ध्यान करते हुए ज्यॉमिस्ट्रिकल फॉर्म्स आए. यहां पर सृष्टि में, जीवन में मुझे मालूम है कि प्रकृति-पुरुष का बहुत ही महत्व है. दे आर प्रेजेण्ट एवरी वेअर इन मेजर, इन एनीमल लाइफ, ह्यूमन लाइफ, इट इज प्रेजेण्ट कन्सेप्चुअली इन पोएट्री, म्यूजिक. अब मुश्किल यही है कि इसको चित्रों में किस प्रकार लाया जाय और इसीलिए मैंने त्रिभुज की बात की. ए ट्राइंगल विद ए प्वाइंट ब्लो इज द फीमेल एंटिडी एण्ड एट ए प्वाइंट अप इज द मेल एंटिटी. हो सकता है कि एक चित्र ऐसा बनाया जाय जिसमें कि बीच में महायोनि और आसपास वहीं त्रिभुज आएं जो सारी सृष्टि को एक प्रकार से एक्सप्रेस कर सकें.'

भारत अब इंटरनेशनल कांसेप्ट की कॉपी नहीं कर रहा
'जो भारत में हो रहा है वह मुझे बहुत महत्वपूर्ण लगता है और मैं चाहूंगा कि उसके बारे में आपसे दो बातें कहूं. मैं कह रहा था कि भारतीय प्रसंग में मुझे बात महत्वपूर्ण लग रही है कि यूरोपियन अप्सेशन को हम भूल जाएं. मैं चाहूंगा कि आजकल के भारतीय कलाकार युवा या हमारी पीढ़ी के यह देखें कि भारतीय कला एक ऐसे स्तर पर पहुंच गई है कि जहां पर वह स्वतंत्र है. अब हम लोग इंटरनेशनल कांसेप्ट की कॉपी नहीं कर रहे हैं. उसके प्रिंसिपल को समझकर हम कुछ नई बात करना चाहता हैं. विश्वास कीजिए कि जो महत्वपूर्ण चित्रकार हैं आजकल भारत के, वे इतना सुंदर काम कर रहे हैं जो कि दुनिया के किसी भी बड़ी म्यूज़ियम में प्रदर्शित किए जा सकते हैं, गर्व से. अब जो खोज हो रही है कुछ दिशा में, कुछ सेक्टर्स में वह यही है अध्यात्मिक खोज. मानिए यह मार्ग बहुत ही कठिन है. हमारे विद्वान हिमालय की ओर जाते थे दुनिया को छोड़कर और वहां पर या तो मैडीटेशन करते थे या पूजा करते थे या लिखते थे. उसी प्रकार से हो सकता है कि आजकल इस डायरेक्शन में, इस दिशा में कुछ काम किया जाए, हालांकि इस दिशा में भारत में शुरुआत हुई है. मैं कहूंगा इस बारे में. मेरे मित्र गायतोण्डे बहुत ही महत्वपूर्ण चित्रकार हैं और उन्होंने इस दिशा में काम किया है. दूसरी ओर अन्य चित्रकार काम कर रहे हैं जो नसरीन मोहम्मदी ने काम किया है, युसुफ कर रहे हैं. सीमा घुरैया से मिला, चित्र देखा, सुंदर चित्र है. उनकी निजी आध्यात्मिक खोज है ऐसा मुझे लगता है कि यह काम हो रहा है और मैंने खुद ऐसी कोशिश की है पिछले साल अधिकतर मैंने ब्लैक एण्ड व्हाइट, व्हाइट एण्ड ऑफ व्हाइट चित्र बनाए हैं. एक बिंदु भी, प्योर श्वेत बिंदु जिसको कि यहां मैंने शान्ति कहा है या शान्ति बिंदु कहा है, मैं यह नहीं सोच रहा हूं कि ये बिकेंगे या न बिकेंगे, किसको पसंद आएंगे, इस दिशा में काम हो रहा है. और अगर मुझे शब्दों पर काबू होता तो मैं इसके अलावा, चित्रों के अलावा उसके बारे में कुछ कह सकता.'

आध्यात्मिक खोज को सबसे अधिक महत्व
'मेरे ख्याल से चित्रकार या कवि हमारे आज के कठिन समय के बारे में बहुत कुछ सोच सकते हैं. मेरे ख्याल से वो इसके लिए पूरी ओर से समर्थ हैं आज कल तीन प्रश्न होते हैं- यूरोप से देखा जाए. वहां पर पहला ऑब्सेशन है, पैसा. दूसरा है पॉवर और तीसरा है सेक्स. ये तीन मोटीवेशन्स हैं जिससे सत्यानाश हो रहा हैं जो अध्यात्मिक खोज थी वह पीछे रह गई है. जो आइडियालिज्म है,वह भी पीछे रह गया है. यूरोप में नहीं, यहां भी हो रहा है. मगर भाग्य से कुछ लोग हैं जो उसके बारे में सोच रहे हैं, काम कर रहे हैं और आपके प्रश्न का उत्तर देने के लिए मैं यही कहूंगा कि कुछ चित्रकार मैं भी उनमें से हूं, जो अध्यात्मिक खोज को सबसे अधिक महत्व दे रहे हैं.'

(लेखक वरिष्ठ कला संपादक और मीडियाकर्मी हैं.)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)

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