सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही का सीधा प्रसारण - कब दिखेगी न्यायिक क्रांति?
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सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों द्वारा की गयी प्रेस कान्फ्रेंस के बाद आम जनता की न्यायिक मामलों में बढ़ी दिलचस्पी को सीधे प्रसारण की कार्यवाही से अब नया रोमांच मिल सकता है. अदालतों की कार्यवाही के सजीव प्रसारण से सही अर्थों में न्यायिक क्रांति होने के साथ संपूर्ण अर्थों में डिजीटल इंडिया का निर्माण सम्भव हो सकेगा. सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस की बेंच ने सुनवाई के सजीव प्रसारण के पायलट प्रोजेक्ट को हरी झण्डी दे दी है, जिस पर गाइडलाइन बनने के बाद सरकार के सहयोग से अमल होगा.
संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण तो फिर अदालतों को छूट क्योंः संसद की कार्यवाही का प्रसारण 20 साल पहले शुरू हो गया था, तो फिर अदालतें सीधे प्रसारण से लगातार क्यों भाग रही हैं. सुप्रीम कोर्ट की पूर्ण बेंच ने 1997 में प्रस्ताव पारित करते हुए कहा था कि न्याय होने के साथ, न्याय होता दिखना भी चाहिए. सजीव प्रसारण से लोगों को अपने मामले में अदालती कार्यवाही देखने से उनके न्यायिक अधिकार सुनिश्चित होंगे जिन्हें संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत जनता का मौलिक अधिकार माना गया है.
सजीव प्रसारण शुरू होने में और कितना विलम्बः सुप्रीम कोर्ट के भीतर वकील और पत्रकारों को मोबाइल फोन के इस्तेमाल की इजाजत मिलने के बाद अदालती कार्यवाही का लिखित प्रसारण पहले ही होने लगा, पर कई सालों की बहस के बावजूद सजीव प्रसारण का मामला अधर में लटका है. सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में पीआईएल पर अगली सुनवाई 23 जुलाई को होगी. जजों की नियुक्ति के लिए मेमोरण्डम ऑफ प्रोसीजर (एमओपी) पर पिछले तीन सालों से सुप्रीम कोर्ट और सरकार के बीच सहमति नहीं बन पा रही है तो फिर सजीव प्रसारण पर गाइडलाइन्स जारी होने पर भी और समय लग सकता है. डिजीटल के दौर में यू-ट्यूब चैनल तुरन्त शुरू हो जाते हैं पर सरकारी व्यवस्था में टी.वी. चैनल और प्रसारण के नाम पर खासे विलम्ब को रोकना जरूरी है.
निजता को लेकर बेवजह आपत्तिः भारत में ओपन कोर्ट की व्यवस्था है जहां कोई भी व्यक्ति सुनवाई में भाग ले सकता है तो फिर उसके सीधे प्रसारण में आपत्ति क्यों? सुप्रीम कोर्ट में नौ जजों की संविधान पीठ के फैसले के बाद अभी तक संसद ने निजता के बारे में कोई कानून नहीं बनाया तो फिर सीधे प्रसारण से अदालतों में निजता के अधिकार का उल्लंघन कैसे हो सकता है ? कानून के अनुसार रेप, राष्टी्य सुरक्षा जैसे कुछ संवेदनशील मामलों की सुनवाई अदालतों के बन्द कमरे में करने का प्रावधान हैं, तो फिर ऐसे मामलों के सीधे प्रसारण पर खुदबखुद प्रतिबन्ध लग जायेगा. सुप्रीम कोर्ट की तत्कालीन बेंच के जज एके गोयल और यूयू ललित ने प्राइवेसी की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए वीडियो रिकॉडिंग के पक्ष में बोला था, उसके बावजूद सजीव प्रसारण पर बेवजह विलम्ब हो रहा है.
हाईकोर्ट और निचली अदालतों में भी यह व्यवस्था लागू होः संविधान के अनुसार सभी 24 हाईकोर्ट स्वायत्त हैं, जिनके अधीन लगभग 19000 निचली अदालतें काम कर रही हैं. कलकत्ता उच्च न्यायालय के न्यायाधीश अनिरुद्ध बोस ने 15 जुलाई 2015 के आदेश से एक मामले में 45 मिनट के वीडियो रिकॉडिंग की अनुमति दी थी. दिल्ली उच्च न्यायालय के जजों ने इस मामले में सकारात्मक रुख अपनाया पर बाम्बे हाईकोर्ट ने सितम्बर 2011 में इस बारे में प्रतिकूल फैसला दिया. सुप्रीम कोर्ट भी पहले जनवरी 2015 में ऐसे ही मामले पर जनहित याचिका को अस्वीकृत कर दिया था. सुप्रीम कोर्ट की नई पहल के बाद अब हाईकोर्ट और निचली अदालतों की कार्यवाही का सीधा प्रसारण सम्भव नहीं हो सके तो भी वीडियो रिकॉडिंग का बन्दोबस्त तो शुरू ही होना चाहिए. ऐसा होने पर वकील या आम जनता अपने मामलों की कार्यवाही के वीडियो रिकॉडिंग को शुल्क देकर हासिल कर सकेंगे.
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विदेशों में अदालतों की कार्यवाही का प्रसारण और विधि आयोग की रिपोर्टः अमेरिका और आस्ट्रेलिया के विक्टोरिया में न्यायिक प्रक्रिया की ऑडियो रिकॉडिंग को सप्ताह के अन्त में वेबसाईट पर उपलब्ध करा दिया जाता है. कनाडा में सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही का सीधा प्रसारण संसद की प्रेस गैलरी में होता है. विधि मंत्रालय द्वारा जस्टिस डिलेवरी एवं कानून सुधार के राष्टी्य मिशन की सलाहकार परिषद् में प्रस्तुत प्रपत्र और विधि आयोग के रिपोर्ट के अनुसार देश की 500 अदालतों को वीडियो रिकॉडिंग के दायरे में लाने का इरादा है. भारत की कई निचली अदालतें में वीडियो रिकॉडिंग हो चुकी है परन्तु सीधे प्रसारण की शुरूआत होना बाकी हैं.
अदालतों की कार्यवाही के सीधे प्रसारण से अनेक लाभः हजारों किलोमीटर दूर से सुप्रीम कोर्ट में लोग अपने मामले की कार्यवाही देखने के लिए आते हैं और सीधा प्रसारण होने से ऐसे हजारों लोगों को बहुत राहत मिलेगी. चीफ जस्टिस और अटार्नी जनरल ने यह माना कि सीधा प्रसारण होने से वकीलों की जवाबदेही और न्यायिक अनुशासन में बढ़ोत्तरी होगी. सिविल प्रोसीजर कोड में वर्ष 2002 में किये गये बदलाव के अनुसार मामलों में तीन से स्थगन नहीं होने चाहिए, परन्तु कई मुकदमों में 100 से अधिक बार तारीख बढ़ती है जो भारत में 3 करोड़ मुकदमों के बोझ का प्रमुख कारण है. सीधा प्रसारण होने पर गवाह या अभियुक्त को अपना बयान बदलने में मुश्किल होगी. तमाशबीनों की संख्या कम होने से अदालतों में न्यायिक काम और बेहतर तरीके से हो सकेगा. सीधे प्रसारण से इतने सारे फायदों के बाद, भला न्यायिक क्रांति क्यों रुकेगी?
(लेखक सुप्रीम कोर्ट अधिवक्ता और संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)
(डिस्क्लेमर : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं)