क्यों खत्म नहीं होता अयोध्या का विवाद?
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क्यों खत्म नहीं होता अयोध्या का विवाद?

बाबरी ध्वंस की बरसी के ठीक पहले हाशिम अंसारी ने इस विवाद से किसी ना किसी तरीके जुड़े रहे लोगों को हैरत में डाल दिया है। हालांकि हाशिम अंसारी के इस मुकदमे से खुद को अलग करने के बयान पर उनके जानने वालों को हैरानी नहीं हो रही होगी।

क्यों खत्म नहीं होता अयोध्या का विवाद?

वासिंद्र मिश्र
एडिटर (न्यूज़ ऑपरेशंस), ज़ी मीडिया

बाबरी ध्वंस की बरसी के ठीक पहले हाशिम अंसारी ने इस विवाद से किसी ना किसी तरीके जुड़े रहे लोगों को हैरत में डाल दिया है। हालांकि हाशिम अंसारी के इस मुकदमे से खुद को अलग करने के बयान पर उनके जानने वालों को हैरानी नहीं हो रही होगी। हाशिम अंसारी दरअसल अयोध्या के इस विवादित मामले के ऐसे पैरोकार हैं जिसने अयोध्या मामले को करीब से देखा है। दशकों की कानूनी लड़ाई लड़ी है, कभी भी इस मामले की पैरवी करते हुए साम्प्रदायिक रंग में नहीं रंगे हैं और इस मामले का हल निकालने के लिए लड़ते-लड़ते उम्र के पांच दशक गुजार दिए।

अयोध्या मामले में हाशिम अंसारी एकमात्र ऐसे पक्षकार रहे हैं जिन्होंने इस मामले का रंग अपनी निजी जिन्दगी पर कभी चढ़ने नहीं दिया। हाशिम अंसारी कभी भी जेहनी तौर पर भेदभाव की राजनीति में शरीक नहीं रहे, बाबरी विध्वंस के पहले या उस दौरान या फिऱ उसके बाद कभी भी हाशिम अंसारी ने फिरकापरस्तों का साथ नहीं दिया। इस मामले के अपने विरोधी पक्षकार रामचन्द्र परमहंस के साथ ही हाशिम अंसारी एक रिक्शे पर अदालत आते-जाते रहे, उनके साथ ही उनका खाना-पीना होता रहा और ये सिलसिला रामचंद्र परमहंस के निधन के बाद ही खत्म हुआ।

हाशिम अंसारी ने कभी भी अयोध्या के विवादित ढांचे से जुड़े विवाद को संप्रदाय के विवाद से जोड़कर देखा ही नहीं। दरअसल अयोध्या का माहौल ही कभी इतना विषाक्त नहीं हुआ जितना अयोध्या के नाम पर देश भर में हुआ है। हाशिम अंसारी इसी अयोध्या में रहे हैं, ऐसे में हाशिम अंसारी के मुकदमे से अलग होने के बयान पर उनके विरोधियों की सियासत बेमानी लगती है। जहां एक तरफ लोगों ने इस मुकदमे से जुड़कर सियासी और आर्थिक फायदे उठाए हैं वहीं हाशिम अंसारी ने कभी भी इससे ना तो राजनैतिक फायदा उठाया और इतने सालों में ना ही उनकी माली हालत में कोई फर्क आया है।

हाशिम अंसारी का खुद को इस मसले से अलग करने का बयान यही बताता है कि वो इस मसले पर हो रही सियासत से आजिज आ चुके हैं क्योंकि हाशिम अंसारी जानते हैं कि अयोध्या विवाद आम लोगों की पैदाइश नहीं है इस विवाद को वो तबका हवा देता रहा है जिसने इससे राजनैतिक या आर्थिक फायदा उठाया है। अपने फायदे के लिए इन लोगों या राजनीतिक दलों ने कभी भी इस मसले का सर्वमान्य हल खोजने की कोशिश ही नहीं की जबकि देश की आबोहवा में ज़हर घोल देने वाले इस मसले का हल खोजने की पहले भी कई बार प्रयास किए जा चुके हैं। कानूनी दांव-पेंच से परे भी इस मसले का हल निकालने की कोशिश हुई  है।
 
अयोध्या के विवादित ढांचे को गिराए जाने से पहले भी इस मामले का हल निकालने की कोशिश की गई थी। साल 1986 में केंद्र और राज्य दोनों में कांग्रेस सरकार के रहते विवादित परिसर का ताला खुलवा दिया गया था। इससे माहौल में थोड़ी तल्खी घुल गई थी जिसे खत्म करने के लिए 1986 में यूपी के तत्कालीन सीएम वीरबहादुर सिंह ने मामले से जुड़े दोनो पक्षों की दिल्ली में बैठक बुलाई। इस बैठक में मुस्लिम नेता मंदिर के लिए तैयार हो गए थे, सहमति बनी कि मस्जिद के चारों ओर 11 फीट की दीवार बने और मंदिर की शुरुआत रामचबूतरे से हो, लेकिन ये कोशिश नाकामयाब हो गई।

फिर 1989 में राजीव गांधी ने विवादित स्थल के पास शिलान्यास करवाकर इसका हल निकालने की कोशिश की। तत्कालीन गृहमंत्री बूटा सिंह को उन्होंने उस वक्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे नारायण दत्त तिवारी के पास मामले का हल निकालने को भेजा। 5 कालीदास मार्ग पर बैठक हुई जिसके बाद शिलान्यास पर सहमति बनी। हालांकि इसने नए विवाद को जन्म दे दिया और राजीव गांधी की इस रणनीति का देश की सियासत पर दूरगामी असर पड़ा। इसके बाद हुए चुनाव में देश कांग्रेस को अपनी काफी सीटें गंवानी पड़ गईं। केंद्र में सरकार बनी नेशनल फ्रंट की और पीएम बने वीपी सिंह और इसके साथ ही उत्तर प्रदेश में भी मुलायम सिंह यादव को सत्ता में वापसी का मौका मिल गया। तब से सत्ता से बेदखल हुई कांग्रेस दोबारा उत्तर प्रदेश में वापसी नहीं कर पाई और राजनीति के फेर में आकर अयोध्या का मुद्दा कोयले की आंच की तरह धीरे-धीरे सुलगने लगा।
 
1990 केंद्र की सरकार बदली और एक बार फिर सरकार की तरफ से मामले का हल निकालने की कोशिश की गई। नवंबर 1990 में प्रधानमंत्री बनने वाले चन्द्रशेखर ने भी इस मामले को सुलझाने की कोशिश की.. प्रधानमंत्री रहते हुए चंद्रशेखर ने अलग से अयोध्या सेल बनाया लेकिन कामयाबी नहीं मिली। कहा जाता है कि इस दौरान चन्द्रशेखर दोनों पक्षों के सामने ये प्रस्ताव रखा था कि इस मामले का हल सुलह समझौते से हो लेकिन अगर किसी कारण समझौता ना हो सके तो दोनों पक्ष कोर्ट के निर्णय को मानेंगे और फैसला होने तक इस मुद्दे पर कोई आंदोलन नहीं होगा। कहा तो ये भी जाता है कि इसे लेकर दोनों पक्षों ने एक दूसरे को सहमति के कागजात भी सौंप दिए थे लेकिन इसी बीच चन्द्रशेखर की सरकार गिर गई और समझौते की उम्मीद भी टूट गई।

फिर 1 दिसंबर 1990 को वीएचपी और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने बैठक कर इस मामले में समझौते की कोशिश की लेकिन दो चक्र की वार्ताओं के बाद ये कोशिश भी फेल हो गई। ये वो वक्त था जब देश में सियासतदान राजनीति में नए दांवपेंच के ज़रिए अपनी जगह बनाने की कोशिश कर रहे थे। गैर कांग्रेसी दलों के लिए अयोध्या का मुद्दा ऑक्सीजन मास्क की तरह काम कर रहा था। अभियान चल रहा था, कुछ विरोध में थे कुछ पक्ष में, लेकिन सबका मकसद सियासी रोटी सेंकना भर था। इसी बीच मसले का हल निकालने में लगे लोगों की सारी कोशिशों पर पानी फिर गया और 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद का विध्वंस हो गया
इस विध्वंस के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव जैसे सोकर उठे और कहा कि विवादित स्थल पर दोबारा मस्जिद बना दी जाएगी लेकिन उनके इस बयान ने अयोध्या से जुड़े इस मसले को लेकर जल रही आग में घी का काम किया। एक तरफ अदालती कार्रवाई शुरु हुई तो दूसरी तरफ बीजेपी शासित चार राज्यों की सरकारें बर्खास्त कर दी गईं, उत्तर प्रदेश की सरकार शामिल थी।

माहौल थोड़ा शांत होने के बाद नरसिंह राव सरकार ने 3 जनवरी 1993 को विवादित स्थल और उसके आस पास की 67 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया और रामालय ट्रस्ट बनाकर इस भूमि पर मंदिर, मस्जिद पुस्तकालय और संग्रहालय बनाने की घोषणा की। उस वक्त मौलाना वहीउद्दीन ने मुसलमानों को मस्जिद से दावा छोड़ने की सलाह दी थी लेकिन बात नहीं बनी। इसके बाद भी छिटपुट स्तर पर कोशिशें जारी रहीं। फैजाबाद के सांसद रहे विनय कटियार ने भी कई दफे स्थानीय स्तर पर मामला सुलझाने की कोशिश की, 2002-03 में कांची कामकोटि के शंकराचार्य और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के बीच भी दो बार बातचीत हुई लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। मामला अदालत में चल ही रहा है लेकिन फिलहाल विवाद सुलझने की उम्मीद नज़र नहीं आती। विवादित जमीन पर यथास्थिति बनी हुई है तो विवाद भी यथावत ही है।

अदालत से बाहर विवाद सुलझाने की तमाम कोशिशों के दौरान हाशिम अंसारी सकारात्मक ही रहे लेकिन मसले का हल नहीं ढूंढ पाए। इसके पीछे वो लोग या सियासी दल रहे हैं जिनके लिए अयोध्या मामला राजनीतिक संजीवनी साबित होता रहा है। हालांकि अब जब हाशिम अंसारी जैसे भरोसेमंद लोग अगर इस विवाद को दफन करने की बात करते हैं तो राजनीति की रोटी सेंकने वालों पर असर ज़रूर पड़ेगा...।

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