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नई दिल्ली: रूस ने यूक्रेन पर हमला करके अमेरिका और पश्चिमी देशों को एक्सपोज कर दिया है और ये बता दिया है कि NATO, European Union और संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं और ये सारे पश्चिमी देश और बड़ी-बड़ी महाशक्तियां, असल में लोकतंत्र और शांति के नाम पर सिर्फ टीवी पर इंटरव्यू दे सकते हैं, प्रेस कॉन्फ्रेंस कर सकते हैं और सोमिनार कर सकते हैं. ये सारे डिजायनर देश और संस्थाएं, आज यूक्रेन संकट पर खामोश हैं.
सोचिए, अमेरिका खुद को दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र बताता है. संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्था, दुनिया के 800 करोड़ लोगों के मानव अधिकारों की रक्षा की बात करती है. NATO शांति और सहयोग की बातें करता है. European Union खुद को लोकतंत्र का चैम्पियन बताता है. लेकिन इन सब देशों और संस्थाओं ने अब तक यूक्रेन के लिए क्या किया?
इन देशों ने रूस पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं, जिनका कोई महत्व नहीं है. ये केवल हाथी के दिखाने वाले दांत की तरह हैं. आपको इन पश्चिमी देशों और संस्थाओं का असली चरित्र भी जान लेना चाहिए. सबसे पहले आपको NATO के बारे में बताते हैं.
वर्ष 1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ था, तब NATO ने रूस से वादा किया था कि अगर वो Warsaw (वॉरसॉ) Pact के समझौते को समाप्त कर दे तो NATO, भविष्य में कभी भी पूर्वी यूरोप के उन देशों को अपने सैन्य संगठन में शामिल नहीं करेगा, जो पहले सोवियत संघ का हिस्सा थे.
Warsaw (वॉरसॉ) Pact, NATO की तरह ही सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के देशों का एक Military Alliance था. लेकिन इसके बावजूद रशिया ने 1991 के विघटन के बाद इस Pact को खत्म कर दिया और ये उम्मीद जताई कि NATO भी अपने वादे को पूरा करेगा, लेकिन NATO ने कभी भी इस पर अमल नहीं किया. बल्कि उसने Estonia (एस्टोनिया), Latvia (लातविया), Poland (पोलैंड) और रोमानिया जैसे देशों को अलग-अलग समय पर NATO का सदस्य देश बना लिया, जो एक समय Warsaw (वॉरसॉ) Pact के तहत सोवियत संघ का हिस्सा थे. यानी NATO ने आज तक केवल विश्वासघात किया है और आज यूक्रेन और रशिया के बीच जो युद्ध हो रहा है, उसकी जड़ में भी यही कारण हैं.
इसी तरह वर्ष 2003 में NATO ने जॉर्जिया को ये वादा किया कि वो भविष्य में NATO का सदस्य देश बन जाएगा. NATO ने तो अपना वादा पूरा नहीं किया, लेकिन इससे रशिया और जॉर्जिया के संबंध बिगड़ गए और वर्ष 2008 में रशिया ने जॉर्जिया के तीन टुकड़े कर दिए. NATO की तरह, अमेरिका और ब्रिटेन जैसे डिजायनर देश भी लोकतंत्र और शांति के नाम पर दुनिया को गुमराह करते हैं. लेकिन जब-जब इस तरह के संघर्ष हुए हैं, इन देशों ने पीठ दिखाने के अलावा कुछ नहीं किया.
उदाहरण के लिए वर्ष 1994 में हुए Budapest Memorandum के तहत अमेरिका और ब्रिटेन ने यूक्रेन से ये वादा किया था कि अगर यूक्रेन ने अपने परमाणु हथियार नष्ट कर दिए तो ऐसी स्थिति में कोई भी देश उस पर हमला करेगा तो वो उसकी रक्षा करेंगे. उस समय यूक्रेन दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी परमाणु शक्ति था. यानी सोवियत संघ के विघटन के बाद यूक्रेन को विरासत में सैकड़ों परमाणु हथियार मिले थे. लेकिन Budapest Memorandum के बाद यूक्रेन, अमेरिका और ब्रिटेन के प्रभाव में आ गया और उसने अपने सभी परमाणु हथियार नष्ट कर दिए. लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा करके भी उसे कुछ हासिल नहीं हुआ.
उस समय अगर यूक्रेन ने सही फैसला लिया होता और अपने परमाणु हथियार अमेरिका और ब्रिटेन के कहने पर नष्ट नहीं किए होते तो शायद युद्ध की मौजूदा स्थिति अलग होती और यूक्रेन आत्मविश्वास के साथ आज अपना बचाव कर पाता. लेकिन आज उसके पास परमाणु हथियार है ही नहीं.
NATO और पश्चिमी देशों की तरह European Union भी एक ऐसा संघ है, जो नैतिक मूल्यों की तो बड़ी-बड़ी बातें करता है. लोकतंत्र और संवैधानिक व्यवस्था पर भारत को लेक्चर देता है, लेकिन असल में ये संघ, एक Toothless Body की तरह है. European Union यूरोप के देशों का सबसे बड़ा संगठन है, लेकिन जब विपत्ति आती है तो European Union अमेरिका की तरफ देखने लगता है और अमेरिका इस बात का इंतजार करता है कि European Union कुछ करेगा. यानी शांति और लोकतंत्र के नाम पर ये संगठन दुनिया का मजाक बनाते हैं और जब आग ठंडी हो जाती है तो कहते हैं कि वो इस आग को बुझाने के लिए तैयार हैं.
संयुक्त राष्ट्र का इतिहास भी इस तरह के दोहरे मापदंडों से भरा पड़ा है. वर्ष 1960 से 2015 के बीच दुनिया के अलग-अलग कोनों में छोटे-बड़े 170 से ज्यादा युद्ध लड़े जा चुके हैं. दुनिया के 7 से ज्यादा देशों में इस समय गृह युद्ध के हालात हैं. इनमें सीरिया, यमन और लेबनान जैसे देशों में स्थिति काफी खराब है. म्यांमार में पिछले 3 महीने के सैन्य शासन में सैकड़ों लोगों की हत्या की जा चुकी है. इजरायल और फिलिस्तीनियों के आतंकवादी संगठन हमास के बीच खूनी संघर्ष जारी है. चीन, ताइवान की सम्प्रभुता को लगातार चुनौती दे रहा है. भारत के साथ चीन का सीमा विवाद जारी है. लेकिन इस सबके बावजूद, आज तक किसी भी विषय में संयुक्त राष्ट्र कोई प्रभावी फैसला नहीं ले पाया है.
संयुक्त राष्ट्र की निष्क्रियता को आप इसी बात से समझ सकते हैं कि आज अफगानिस्तान की तालिबान सरकार का प्रधानमंत्री, मुल्ला मोहम्मद हसन अखुंद है. ये वही आतंकवादी है, जिसका नाम संयुक्त राष्ट्र की घोषित आतंकवादियों की सूची में है. लेकिन इसके बावजूद आज भी ये खुलेआम अफगानिस्तान की सरकार चला रहा है और संयुक्त राष्ट्र इसका कुछ नहीं बिगाड़ सकता.
पुतिन के पास मिसाइल है, पश्चिमी देशों के पास खोखले शब्द हैं. राजनीति करने के अलग-अलग माध्यम होते हैं. संधि के जरिए होती है, संगठनों के जरिए होती है, आपसी बातचीत के जरिए होती है. लेकिन कई बार राजनीति शस्त्रों से भी होती है. इस खेल में हर देश अपने स्वार्थ के हिसाब से चल रहा है. अमेरिका अपने स्वार्थ के हिसाब से चल रहा है, NATO अपने स्वार्थ के हिसाब से चल रहा है.
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