चुनावी माहौल में क्यों प्रासंगिक हैं संत रामकृष्ण परमहंस और चैतन्य महाप्रभु

रामकृष्ण परमहंस और चैतन्य महाप्रभु के नाम भारतीय संत परंपरा के आधुनिक युग में सबसे आगे की पंक्ति में खड़े मिलते हैं. इन दोनों की बात इसलिए क्योंकि आज दोनों ही संतों का अवतरण दिवस है. इनकी जयंतियां 18 फरवरी को ऐसे समय में हैं. जब पं. बंगाल में हिंदुत्व आध्यात्म का नहीं राजनीतिक रूप से चर्चा का विषय है.

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : Feb 18, 2021, 02:49 PM IST
  • आज रामकृष्ण परमहंस और चैतन्य महाप्रभु का है अवतरण दिवस
  • दोनों संत आध्यात्मिक नजरिेये से बंगाल सहित देश भर के लिए खास
चुनावी माहौल में क्यों प्रासंगिक हैं संत रामकृष्ण परमहंस और चैतन्य महाप्रभु

नई दिल्लीः यह पं. बंगाल है. यहां आने वाले दिनों में चुनाव (Bengal Election-2021) हैं. इसकी गहमा-गहमी जारी है. सीधा मुकाबला TMC और BJP के बीच है. इस तरह के माहौल में आरोप-प्रत्यारोप से सिर फुटौवल तक जारी है. चुनाव हैं, इसलिए यहीं राम हैं, यहीं कृष्ण भी हैं और मां काली भी. आम बंगाली मानुष की आम जिंदगी का आध्यात्मिक सिरा इन्हीं तीनों की मान्यताओं को साथ लिए चलता है.

आम बंगाली मानुष का नजरिया
राजनीति के सजे हुए मंच से उतर कर देखें तो भारत के पूर्वी सिरे में बसने वाला पं. बंगाल (West Bangal) उस क्षितिज के तौर पर दिखेगा, जहां से दुनिया भर ने योग और आध्यात्म के सूरज को उगते देखा है. राजनेता अपना हित साधने के लिए कहते फिरेंगे कि यह इनकी भूमि है, यह उनकी भूमि है. लेकिन आम बंगाली मानुष कहेगा यह रामकृष्ण परमहंस की भूमि है. यह चैतन्य महाप्रभु की भूमि है.

आज रामकृष्ण परमहंस और चैतन्य महाप्रभु की जयंती
रामकृष्ण परमहंस और चैतन्य महाप्रभु के नाम भारतीय संत परंपरा के आधुनिक युग में सबसे आगे की पंक्ति में खड़े मिलते हैं.

इन दोनों की बात इसलिए क्योंकि आज दोनों ही संतों का अवतरण दिवस है. इनकी जयंतियां 18 फरवरी को ऐसे समय में हैं जब पं. बंगाल (West Bangal) में हिंदुत्व आध्यात्म का नहीं राजनीतिक रूप से चर्चा का विषय है.

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चैतन्य महाप्रभु फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन 18 फरवरी 1486 को जन्मे थे. वहीं रामकृष्ण परमहंस 18 फरवरी 1836 कामारपुकुर, बंगाल में जन्मे थे. दोनों संतों के बीच कालखंड का लंबा फासला है, लेकिन बंगाल को एक धागे में बांधने का सिरा अगर चैतन्य महाप्रभु से निकलता है तो दूसरे सिरे में गांठ लगाने वाले श्रीराम कृष्ण परमहंस ही हैं.

कौन हैं जगाई-मथाई
साल 2019 लोकसभा चुनाव से पहले की बातें हैं. पीएम मोदी (PM Modi) बंगाल के दौरे पर थे. उन्होंने कई सभाओं में जगाई-मथाई शब्दों या यूं कहें कि इन नामों का जिक्र किया. TMC पर इन दोनों जैसा ही व्यवहार करने का आरोप लगाया.

आध्यात्म के सिरे को पकड़ कर चलें तो यह दो नाम चैतन्यमहाप्रभु तक जाते हैं. अगर पीएम मोदी इस नए युग में इनकी बात कर रहे हैं तो जाहिर है कि चैतन्य भी प्रासंगिक हैं और जगाई-मथाई भी.

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जब महाप्रभु ने दिखाई लीला
बात आज के नवादा की है जो चैतन्य महाप्रभु के समय में नवद्वीप हुआ करता था. जगाई-मथाई नवद्वीप के नामी डकैत थे. लूट, डकैती, हत्या, वैश्यागमन जैसे कुकर्मों उनकी पहचान थी. महाप्रभु जब भक्ति के रास्ते पर जनमानस को ला रहे थे तब यह दोनों ही लोगों को परेशान करते और लूट लेते थे. आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर नहीं जाने देते थे. ऐसे में एक दिन महाप्रभु के शिष्य नित्यानंद ने दोनों को उपदेश देने की कोशिश की तो आदतन ही जगाई-मथाई ने उन पर हमला कर दिया.

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कहते हैं कि करुण पुकार सुनकर चैतन्य महाप्रभु अपने अवतार स्वरूप में आ गए. वह साक्षात शंख-चक्रधारी कृष्ण बन गए. यह देख जगाई-मथाई के हाथ से तलवार छूट गई और दोनों ही भक्ति के मार्ग पर आ गए. इस कथा को गौणीय समाज के कई भजनों में वर्णित किया गया है.

ममता का अलग हिंदुत्व, लेकिन कौन सा?
आज भी ग्रामीण बंगाल में कीर्तन बहुत ज्यादा लोकप्रिय है. कहीं 48 घंटा तो कहीं 72 घंटों का अखंड हरिनाम कीर्तन किया जाता है. वैष्णवपंथी दीक्षा ले चुके लोगों की बड़ी संख्या पं. बंगाल के गांवों में बसती है.

जब अमित शाह (Amit Shah) और PM मोदी या फिर BJP लगातार इन सभी लोगों को साथ लेकर आ रही है, श्रीराम का नाम ले रही है तो ममता इस बड़े Point को भूलते हुए कहती हैं कि यह बंगाल का हिंदुत्व नहीं है. वह कहती हैं कि उन्हें रामकृष्ण और विवेकानंद के हिंदुत्व में यकीन है. हालांकि सीएम ममता इसे लेकर कोई व्याख्या नहीं कर पाती हैं. संत रामकृष्ण परमहंस का हिंदुत्व चैतन्य महाप्रभु के हिंदुत्व से कैसे अलग है, यह समझ से परे है.

दोनों संतो से राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश
संत रामकृष्ण परमहंस को पं. बंगाल समेत दुनियाभर में मां काली के उपासक के तौर पर जाना जाता है. बंगाली आध्यात्मिक साहित्य शाक्त परंपरा की धारा से जुड़े हुए हैं. यह शक्ति की देवी को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं. इस आधार पर श्रीराम को शक्ति के स्वरूप मातंगी माता का अवतार माना जाता है तो वहीं खुद श्री कृष्ण काली मां के अवतार हैं.

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इस तरह एक बार फिर दोनों कड़ियां जिन्हें अलग करने की कोशिश की जाती रही है एक बार फिर मिल जाती हैं. स्वामी विवेकानंद ने भी जिनके शिष्य होने का गौरव पाया और विश्व भर में हिंदुत्व और एकत्व की अलख जलाई, उनके बंगाल में उन्हीं के नाम पर सिर्फ राजनीतिक लाभ के लिए आस्था के बंटवारे की कोशिश अलग ही विडंबना है.

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दोनों ही महापुरुषों की जयंती का मौका है. जरूरी है कि कम से कम इस मौके पर राजनीतिक लाभ की कोशिश में जुटे लोग तो इनका अध्ययन करे हीं, लेकिन आम जनमानस को चाहिए कि वह एक बार फिर इसी बहाने अपने आध्यात्मिक आधार को दोहराए, ताकि कम से कम वे बरगलाए जाने से तो बच सकें.

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