नई दिल्ली: यूपी चुनाव के नतीजे समाजवादी पार्टी और अखिलेश यादव के लिए किसी सदमे से कम नहीं हैं. अखिलेश यादव की रैलियों में उमड़ती भीड़ को देखकर ही उनपर ओवर कॉन्फिडेंस का खुमार इस कदर चढ़ा कि उन्होंने पहले तो 400+ सीटें जीतने का दावा करने लगे. वोटिंग खत्म होने के बाद उनके दावे में सीटें घटकर 300 पार पहुंच गईं. नतीजे सामने आए तो अखिलेश की सिट्टी पिट्टी गुम हो गई. आपको अखिलेश यादव की उन पांच गलतियों के बारे में जानना चाहिए जिसके चलते उन्हें चुनाव में 'मुंह की खानी' पड़ी.
गलती नंबर 1). 5 साल तक गायब रहे, जब चुनाव आया तो खुली नींद
अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी ने कई सीटों पर भाजपा को कांटे की टक्कर दी. भले ही चुनाव में हार का सामना करना पड़ा, लेकिन इस बार के चुनाव में सीधे भाजपा बनाम सपा (BJP Vs SP) की फाइट देखने को मिली. यदि अखिलेश की पहली गलती का जिक्र करें तो वो है उनका ढुलमुल रवैया..
2017 में अखिलेश यादव की सपा की करारी हार हुई थी, उसके बाद अखिलेश डिएक्टिवेट यानी उदासीन हो गए. अपने हार का ठीकरा कांग्रेस से हुए गठबंधन पर फोड़ दिए. 2019 में लोकसभा चुनाव आया तो उन्होंने नया गठबंधन बनाया. मायावती की हाथी पर साइकिल की सवारी करने वाले अखिलेश को लोकसभा चुनाव में भी हार का मुंह देखना पड़ा.
गठबंधन से मायावती को तो खूब फायदा हुआ, लेकिन अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव ही कन्नौज से चुनाव हार गईं. अबकी बार फिर से ठीकरा बसपा के माथे फूटा. अखिलेश की सपा ने आरोप लगाया कि सपा का वोट बसपा को मिला, लेकिन बसपा के लोगों ने सपा को वोट नहीं दिया. खींचतान की सियासत के बीच फिर से अखिलेश यादव साइलेंट हो गएं. 5 साल तक अखिलेश की पार्टी सोती रही और खुद अखिलेश यादव अपनी हार से उबर ही नहीं पाए. जब चुनाव नजदीक आया तो नई लहर दौड़ पड़ी या फिर यूं कहें कि अखिलेश ब्रिगेड की नींद उस वक्त खुली जब चुनाव नजदीक आया.
निश्चित तौर पर कहीं न कहीं अखिलेश यादव के ढुलमुल रवैये का असर पार्टी कार्यकर्ताओं पर पड़ता है. किसी भी पार्टी का सर्वोच्च नेता ही जब पांच साल गायब रहे तो छोटे-छोटे कार्यकर्ता और नेताओं के जोश और जज्बे पर खासा असर पड़ता है. कोरोना काल से लेकर कई ऐसे जनहित के मुद्दों को अखिलेश भुनाने में पूरी तरह नाकाम रहे और पांच साल की सुस्ती का परिणा चुनावी नतीजों में दिखा.
गलती नंबर 2). सपा की गुंडा वाली छवि बनी गले की फांस
भाजपा की योगी सरकार ने लगातार गुंडे और माफियाओं के खिलाफ बुल्डोजर वाली कार्रवाई की. योगी की गुंडों के खिलाफ एक्शन लेने वाले मुख्यमंत्री के तौर पर होने लगी. वहीं समाजवादी पार्टी की छवि गुंडो का सरोकार करने वाली पार्टी के तौर पर मशहूर होती रही. चुनाव में भी सपा को इसका भरपूर नुकसान देखने को मिला.
सपा और अखिलेश की दूसरी गलती का जिक्र होगा तो गुंडे वाली छवि का विचार जेहन में आ ही जाएगा. सपा ने अपनी इस छवि को सुधारने के लिए कोई भी ठोस कदम नहीं उठाया. अतीक अहमद से सपा की हमदर्दी किसी से नहीं छिपी है. अखिलेश ने बची खुची कसर मुख्तार के परिवार पर रहम दिखाकर पूरी कर दी.
नाहिद हसन को लेकर भी सपा और अखिलेश को पूरे चुनाव में भाजपा ने जमकर घेरा. मुख्तार अंसारी के बेटे और उसके भतीजे को टिकट देकर अखिलेश ने इसपर मुहर लगा दी कि जीतने के लिए वो कुछ भी करेंगे. लेकिन यूपी की जनता को योगी का बुल्डोजर ज्यादा पसंद आया. अखिलेश यादव ने जिस चाचा शिवपाल यादव से गुंडागर्दी वाली छवि सुधारने के बहाने नाता तोड़ा, उनको भी साथ ले आए. ऐसी ढेर सारी वजहें हैं जिसके चलते सपा की गुंडा वाली छवि अखिलेश के गले की फांस बन गई.
गलती नंबर 3). बागियों पर भरोसा दिखाना पड़ा भारी
वो कहते हैं न घर का भेदी लंका ढाए.. बागियों को अपनाना अखिलेश के अपने नेताओं को घर का भेदी बना दिया. अखिलेश ने तो बीजेपी के नेताओं और योगी सरकार के मंत्रियों को ये सोचकर सपा में शामिल कराया था कि इससे उनकी पार्टी को चुनाव में मजबूती मिलेगी. लेकिन हुआ वो जो अखिलेश यादव ने सोचा भी नहीं था.
जिस स्वामी प्रसाद मौर्य ने खुद ओबीसी समाज का रहनुमा बताया वो खुद अपनी सीट नहीं बचा पाए. जनाब को कुछ ऐसा हश्र हुआ कि वो ना तो घर के रहे और ना ही घाट के रहे. अखिलेश यादव ने मौर्य को पडरौना से फाजिलनगर सीट पर चुनाव लड़ने के लिए ये सोचकर भेजा था कि जनाब अपनी विधायकी बचा लेंगे. स्वामी प्रसाद मौर्य को खुद इस बात का डर था कि कहीं पडरौना से उनके खिलाफ भाजपा आरपीएन सिंह को ना खड़ा कर दे. फाजिलनगर सीट को सेफ सीट समझकर वो वहां से चुनाव लड़ रहे थे. मगर सेफ सीट पर भी उनकी भद्द पिट गई.
स्वामी प्रसाद मौर्य के अलावा दारा सिंह चौहान और ओमप्रकाश राजभर जैसे कई नेताओं ने सपा की साइकिल की सवारी करने की कोशिश की. उन्हें ऐसा लगा कि सपा की सरकार आएगी तो उनको मंत्री पद का ताज पहनने को मिलेगा. वो खुद को सियासत का मौसम वैज्ञानिक समझने लगे थे. किसी तरह से इन दोनों नेताओं ने अपनी सीट तो बचा ली, लेकिन सपा के कार्यकर्ताओं में ये गुस्सा आ गया कि बागियों के लिए अखिलेश अपनों को नजरअंदाज कर रहे हैं. यहीं से अखिलेश को खुद भी ओवर कॉन्फिडेंस हो गया. इसी ओवर कॉन्फिडेंस ने सपा और अखिलेश की लुटिया डुबो दी.
गलती नंबर 4). मुस्लिम-यादव समीकरण के भरोसे चुनाव लड़ना
पूरे चुनाव में अखिलेश यादव ने सबसे पहले मुस्लिम-यादव समीकरण की जुगलबंदी करने की कोशिश की. वक्त बीतने के साथ अखिलेश ने इस समीकरण का विकास किया. M+Y समीकरण में एक और तबका जोड़ने की कोशिश की गई. B यानी ब्राह्मण..
MYB यानी मुस्लिम यादव ब्राह्मण समीकरण बनाने की कोशिश में जिटे अखिलेश को ये अच्छे से मालूम था कि यूपी में 12 फीसदी ब्राह्मण और करीब 20 फीसदी मुस्लिम वोटर्स हैं. इसके अलावा 10 फीसदी यादव वोटर्स तो उनकी जेब में हैं. ऐसे में तकरीबन 42 फीसदी वोट का जुगाड़ हो जाए तो अखिलेश को सीएम बनने से कोई नहीं रोक सकता. मगर अखिलेश को क्या मालूम था कि जोड़-तोड़ की सियासत का अब अंत हो रहा है. ऐसे में उनका ये दांव धराशायी हो जाएगा.
यूपी चुनाव में बीजेपी की प्रचंड जीत के बाद PM Modi ने कहा कि 'कुछ लोग ये कहकर यूपी को बदनाम करते हैं कि यहां के चुनाव में तो जाति ही चलती है. 2014 के चुनाव नतीजे देखें, 2017, 2019 के नतीजे देखें और अब फिर 2022 में भी देख रहे हैं, हर बार यूपी के लोगों ने विकासवाद की राजनीति को ही चुना है.'
बीजेपी ने अपने कुछ मुख्य एजेंडे को ही भुनाया, लाख ब्राह्मण Vs ठाकुर के नाम की आग फैलाने की कोशिश होती रही, लेकिन कुछ नहीं हुआ. हालांकि अखिलेश यादव को पीएम मोदी की इस बात से कोई लेना देना नहीं था. यूपी में जातिवाद की राजनीति करने वाली पार्टियां भी हैं. जैसे अखिलेश यादव ने मुस्लिम यादव समीकरण साधने की कोशिश की, वैसे ही ओमप्रकाश राजभर अपनी जाति के लोगों के रहनुमा बनने की कोशिश करते हैं. स्वामी प्रसाद मौर्य ने जब भाजपा छोड़ा था तो सबने सुना था कि उन्होंने कैसे मौर्य समाज को साधने की बात कही थी.
गलती नंबर 5). देर से गठबंधन करना और टिकट वितरण में गड़बड़ी
अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी का गठबंधन हुआ तो सभी ने सोचा कि यूपी में बदलाव के लिए ये गठबंधन अहम भूमिका अदा करेगा. लेकिन नतीजे आए तो इस सोच पर गहरी चोट हुई. अखिलेश यादव ने जयंत चौधरी की पार्टी RLD पर आंख बंद कर भरोसा किया. कभी RLD के घोर सियासी दुश्मन मानी जाने वाली सपा ने चुनाव से ठीक पहले गठबंधन किया.
ओमप्रकाश राजभर कभी ओवैसी से गले मिलते नजर आए तो कभी चंद्रशेखर रावण से बैठक करते दिखे. लेकिन राजभर की सुभासपा और अखिलेश की सपा के बीच समझौता हुआ चुनाव के ठीक पहले.. अखिलेश के चाचा की ही बात कर लें तो ऐन वक्त पर चाचा और भतीजे के बीच मिलन समारोह हुआ. चाचा को मिलाकर अखिलेश ने सोचा कि अब काम पूरा हो चुका है, बस नतीजों में तब्दील होना बाकी है.
अखिलेश को ये समझ नहीं आया कि उन्होंने जो गठबंधन बनाया वो बनाने में काफी देरी हो गई. इस देरी का ही नतीजा था कि अखिलेश को जनता ने नकार दिया. इसके अलावा टिकट वितरण में भी अखिलेश की गलतियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
अखिलेश यादव की पार्टी के कई सारे ऐसे नेता थे, जिनको पूरी उम्मीद थी कि क्षेत्र में लोगों के लिए मैंने काम किया है तो टिकट तो मिलेगा ही मिलेगा. जब टिकट वितरित किया गया, तो बखेड़ा शुरू हो गया. रोने-धोने का सिलसिला शुरू हो गया.
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कहीं न कहीं अखिलेश के अपने ही उनके दुश्मन बन गए. ऐसे और भी कई कारण हैं, जिसके चलते अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा. या फिर यूं कहें कि चुनाव में 'मुंह की खानी' पड़ी.
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