नई दिल्ली: भारत में बॉलीवुड के कई ऐसे एक्टर हैं जिन्होंने प्रसिद्धि पाने के बाद न केवल नाम बदला बल्कि वही नाम ताउम्र उनकी पहचान बन गया. भारत कुमार के नाम से जाने जाने वाले मनोज कुमार (Manoj Kumar) का असली नाम बेहद कम लोग ही जान पाए हैं. आपको भी यही लगता होगा कि मनोज ही इनका असली नाम हैं बता दें कि इनका असली नाम हरिकिशन गिरि गोस्वामी है. देशप्रेम से ओत-प्रोत इनकी फिल्में आज भी लोग बड़े चाव से देखते हैं. ये 24 जुलाई 1937 को गुलाम भारत में पैदा होने वाले 'भारत कुमार' हैं.
रिफ्यूजी कैंप से फिल्मों का सफर
माता-पिता ने अपने इस सपूत का नाम हरिकिशन गोस्वामी रखा. गुलाम भारत के ऐबटाबाद में पैदा होने वाले इस शख्स ने भारत पाक बंटवारे का दर्द सहा और आजादी के बाद भारत को चुना. दिल्ली के एक रिफ्यूजी कैंप में रहने के बाद ये राजेंद्रनगर शिफ्ट हो गए.
हरिकिशन से कैसे बन गए मनोज कुमार
हरिकिशन उस वक्त एक्टिंग और एक्टर्स काफी प्रभावित थे. अशोक कुमार, दिलीप कुमार और कामिनी कौशल के जबरदस्त फैन हुआ करते थे. फिल्मों का ही कमाल था कि खुद से ही अपना नाम हरिकिशन गोस्वामी से बदल कर मनोज कुमार रख लिया. फिर जहां भी जाते तो अपना नाम मनोज कुमार ही बताते.
एक्टिंग का अनोखा सफर
हिंदू कॉलेज से ग्रेजुएशन के दौरान इन्हें थिएटर में फिल्में देखना का चस्का लग गया. ये चस्का गर्लफ्रेंड शशि की बदौलत लगा. ये चस्का जुनून में बदला और मुंबई लेकर आया. अच्छी हाइट और गुड लुक्स की बदौलत मुंबई का सफर अच्छा रहा. 1957 में 'फैशन' फिल्म से डेब्यू किया. मनोज का रोल भले ही ज्यादा बड़ा नहीं था पर एक्टिंग से उन्होंने सबको इंप्रेस कर दिया था. 1960 में उनकी 'कांच की गुड़िया' बड़े पर्दे पर रिलीज हुई. लीड एक्टर के तौर पर ये उनकी पहली फिल्म थी. बस फिर क्या 'उपकार', 'पत्थर के सनम', 'रोटी कपड़ा और मकान', 'संन्यासी' और 'क्रांति' जैसी कमाल की फिल्में इन्हीं की ही देन हैं.
शहीद भगत सिंह की मां ने कह दी थी ऐसी बात
मनोज किुमार की फिल्म 'शहीद' की शूटिंग चल रही थी. इस दौरान मनोज भगत सिंह के पूरे परिवार से मिलने गए. भगत सिंह की मां उस वक्त अस्पताल में भर्ती थीं. जब भगत सिंह की मां ने मनोज को देखा तो बोल उठीं कि ये तो मेरे भगत जैसा लगता है. फिर मनोज की गोद में सिर रखकर रोने लगीं. फिल्म 'शहीद' 1965 में रिलीज हुई और फिल्म को भी उतना ही प्यार दिया गया.
लाल बहादुर शास्त्री के कहने पर फिल्म बनाई
1965 का दौर भारत के लिए बेहद मुश्किल था. भारत-पाकिस्तान युद्ध जारी था. युद्ध खत्म होने के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने मनोज कुमार से मुलाकात कर उन्हें युद्ध से पनपने वाली समस्याओं से जुड़ी फिल्म बनाने के लिए कहा. इसके बाद 'जय जवान जय किसान' से संबंधित 'उपकार' फिल्म बनकर आई. फिल्म जब रिलीज हुई तो फिल्म को खबू प्यार मिला. मनोज कुमार को बेस्ट डायरेक्टर के लिए फिल्म फेयर और बेस्ट एक्टर के लिए नेशनल अवॉर्ड से सम्मानित किया गया.
इमरजेंसी की स्क्रिप्ट को देख भड़के
1975 का दौर था, इमरजेंसी से लोग काफी परेशान थे. मनोज कुमार के तमाम नेताओं से अच्छे संबंध थे. इंदिरा गांधी से भी उनकी अच्छी जान-पहचान थी लेकिन फिर भी ये इमरजेंसी के विरोध में थे. एक दिन सूचना और प्रसारण मंत्रालय से इन्हें डॉक्यूमेंट्री डायरेक्ट करने का प्रस्ताव दिया गया. कहानी अमृता प्रीतम ने लिखी थी. डॉक्यूमेंट्री इमरजेंसी के समर्थन में थी फिर क्या फोन पर ही ऑफर ठुकरा दिया.
अमृता प्रीतम को इन्होंने फोन कर कह दिया कि क्या लेखक के रूप में आपने समझौता कर लिया है. अमृता प्रीतम इससे शर्मिंदा हो गई और उनसे स्क्रिप्ट फाड़ कर फेंक देने के लिए कहा. इमरजेंसी के दौर पर इन्हें काम करने में काफी मुश्किलें आई. इसके बावजूद इन्होंने काम जारी रखा.
1992 में मनोज कुमार को पद्म श्री से सम्मानित किया गया. 2016 में दादा साहेब फाल्के सम्मान दिया गया. एक्टर के तौर पर इनकी आखिरी फिल्म 'मैदान-ए-जंग' थी. 85 साल के भारत कुमार के लिए आज भी फैंस का प्यार कम नहीं हुआ है. उनकी कहानियां, उनका अंदाज आज भी सबसे अलग और बेहद खास है.
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