नई दिल्लीः क्या अन्नदाता आंदोलन का समाधान सरकार की 'चूड़ी टाइट' करने की वाली सोच में फंस कर अटका हुआ है? दरअसल सरकार से आठवें दौर की बातचीत बेनतीजा खत्म हुई तो किसान नेताओं के बीच का ये संवाद भी गूंजा कि - 'हम तो बोलकर गए थे कुछ नहीं निकलेगा, इनकी चूड़ी अभी और टाइट करनी है'
ऐसे में सवाल ये है कि अगर पहले ही ये सोच लिया गया था कि समाधान नहीं निकलेगा तो इस बार अन्नदाता आंदोलन खत्म होने की जो उम्मीद हिन्दुस्तान ने बांधी थी, क्या उसकी बुनियाद हिली हुई नहीं थी? सवाल ये भी है कि अगर पहले से ये सोच थी कि सरकार की चूड़ी और टाइट करनी है, तो फिर समाधान के लिये लंच-डिनर करने का ख्याल क्या बेमानी नहीं था?
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आंदोलन के समाधान में 'लंगड़ी' किसने मारी ?
बड़ी बात तो यही है ना कि किसी समाधान पर पहुंचने के लिये भरोसा जताना भी पड़ेगा और दिखाना भी पड़ेगा. इसीलिये इस सवाल का जवाब जरूरी है कि सरकार और अन्नदाता के बीच खुल रही भरोसे की खिड़की के बीच बार-बार कौन व्यवधान की दीवार खड़ी कर रहा है?
4 जनवरी की दोपहर अन्नदाता आंदोलन को खत्म करने के लिये 8वें दौर की बातचीत चल ही रही थी, तभी ये खबर बाहर आई थी कि सरकार किसानों की मांग पर लिखित आश्वासन देने को तैयार दिख रही है. और फिर उसी दौरान किसान नेताओं का ये बयान मीडिया में घूम रहा था कि- 'सरकार की मीठी मीठी बातों में नहीं आएंगे.ऐसे आंदोलन नहीं ख़तम करेंगे.पहले पूरी कागज़ पत्री लेंगे.
पार्लियामेंट चलवाएंगे.फिर जाएंगे.हम बीच का रास्ता नहीं निकालेंगे. हम आंदोलन करते रहेंगे'
सवाल तो ये है कि अन्नदाता आंदोलन में तारीख पर तारीख का खेल क्यों खेला जा रहा है? अब किसान और सरकार के बीच बातचीत की अगली तारीख 8 जनवरी तय हुई है. ऐसे में बड़ा सवाल तो ये है कि अगले तीन दिनों में ऐसा क्या बड़ा बदलाव हो जाएगा, जो आज मुमकिन नहीं था?
184 किसान संगठन तो 35 की आवाज सब पर भारी क्यों?
ये तस्वीर तो देश के सामने है ही कि अन्नदाता आंदोलन जिन मुद्दों पर शुरू हुआ था, उसमें धीरे-धीरे और मुद्दे जोड़े गए. सरकार अन्नदाता का बुरा नहीं चाहती है, ये उसने बिजली सब्सिडी और पराली के जुर्माने से जुड़ी मांगों को मानकर जता भी दिया. अब अगर सरकार ये कह रही है कि कृषि कानूनों के मुद्दे पर देश भर के किसानों की राय को जगह देनी चाहिए. तो क्या ये बात जायज नहीं है?
देश भर में 184 किसान संगठन हैं. जबकि किसान आंदोलन में 35 संगठनों के नाम सामने आए हैं. इनमें से 31 अकेले पंजाब के हैं और बाकी 4 हरियाणा-मध्य प्रदेश के हैं. इन 35 में से 10 किसान संगठन ऐसे हैं, जिनका राजनीतिक पार्टियों से कनेक्शन है. इनमें 8 पंजाब के हैं और एक हरियाणा और एक मध्य प्रदेश का किसान संगठन है.
नये कृषि कानून के हिमायती क्या किसान नहीं हैं?
सरकार की चिंता ये भी है कि 35 किसान संगठन जिन मांगों को लेकर सामने हैं, उन्हें 184 किसान संगठनों की राय के तौर पर मंजूर करना मुश्किल है, क्योंकि यूपी-बिहार-एमपी समेत देश के कई राज्यों के दूसरे किसान संगठन कृषि सुधार कानूनों के पक्ष में खड़े हो चुके हैं. इसमें पेंच विपक्षी पार्टियां फंसा रही हैं. वो अन्नदाता के कंधे पर रखकर सरकार पर बंदूक चला रही है.
विपक्षी पार्टियां जिस सियासी इरादे से ये चाह रही हैं कि अन्नदाता हाड़ कंपाती ठंड में सड़कों पर जमा रहे, और ये आंदोलन खिंचता रहे, वो न तो राष्ट्रहित में है, न किसानों के हित में. ऐसे में सियासी पार्टियों से जुड़े किसान संगठन सरकार की चूड़ी टाइट करने जैसा बयान देकर समाधान की संभावनाओं को जानबूझकर टंगड़ी मारते नजर आ रहे हैं. ये समझना बेहद जरूरी है कि अन्नदाता आंदोलन का समाधान सरकार-किसान के भरोसे में छिपा है.
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