नई दिल्लीः अमेठी, कांग्रेस का राजनीतिक घर. जहां से पार्टी सशर्त जीतती आई है. पूर्वजों का संसदीय क्षेत्र. पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और उनके पुत्र राजीव गांधी अमेठी की जनता का ही दिल जीतकर संसद पहुंचे थे. यहीं से पूरे देश पर राज किया. समय बदला, यह सीट राहुल गांधी के हिस्से आई, लेकिन राहुल से इस सीट का मालिकाना हक छीन लिया स्मृति ने.
वह आज अमेठी के आंगन की तुलसी हैं. संसद में हैं और लगातार कांग्रेस को निशाना बना रही हैं. या यों कहें कांग्रेस उनके निशाने पर आ रही है. स्मृति के सवालिया बौछारों का कांग्रेस के पास केवल बचाव है, जवाब नहीं. ऐसा क्यों है, आखिर क्यों हैं, कैसे एक पार्टी जो कि जन समर्थन के धनी पूर्वजों की रही है, आज समर्थन खो रही है? सवाल बड़ा है, लेकिन कुछ जवाब हैं. डालते हैं एक नजर..
पहले अमेठी चलिए, संजय सिंह से मिलते हैं
अमेठी ले चलने की बात इसलिए, क्योंकि यहां डॉ. संजय सिंह हैं. कांग्रेस के राजनीतिक मित्र, राजीव-संजय की पसंद और साथी. अमेठी के राजा और कांग्रेस से राज्यसभा के सांसद थे.
इसी साल उन्होंने पत्नी समेत कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया. पूछा गया, कि ऐसा क्यों. 40 साल जिस कांग्रेस के साथ रहे, उसे अचानक क्यों छोड़ा? बोले, यह कुछ भी अचानक नहीं है. यह बहुत सोच-समझ कर लिया गया फैसला है.
कांग्रेस अब भी अतीत में जीने वाली पार्टी है. वह नेहरू-इंदिरा यहां तक की राजीव गांधी वाली छवि से भी नहीं निकल पाई है. आज के समय में दिशाहीन है. जो पार्टी अभी तक यह तय नहीं कर पा रही है कि अध्यक्ष कौन होना चाहिए, वह राजनीतिक मसलों पर कब ध्यान देगी.
फिर उन्होंने भाजपा के पक्ष में भी दो बातें कहीं. बोले कि भाजपा का अपना नेतृत्व है. नरेंद्र मोदी के दिशा-निर्देश में पार्टी समेत मंत्रिमंडल आगे बढ़ रहा है.
जनता से सीधे संवाद में कमी
जैसा कि संजय सिंह ने कहा, कांग्रेस अतीत में जी रही है. समय-समय पर इसके सबूत दिख ही जाते हैं. आज की तारीख में कांग्रेस भारत बचाओ रैली कर रही है, लेकिन इस रैली में ऊर्जा की कमी है. पार्टी महासचिव प्रियंका गांधी दिल्ली के रामलीला मैदान में मंच से जनसभा को संबोधित कर रही हैं और फर्रा (लिखा हुआ भाषण) लेकर पहुंची हुई हैं. अगर आपमें वाकई देश और राष्ट्र को बचाने की भावना है तो लोगों से सीधा संवाद करने के लिए आपको लिखे हुए पन्नों की क्यों जरूरत पड़ती है.
क्या, एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर आप देश के मुद्दे नहीं जानती हैं, या फिर जनता से सीधा संवाद नहीं कर सकती हैं. लोकतंत्र में सीधा संवाद जनता से जुड़ने का सशक्त माध्यम है, लेकिन लिखे हुए विचार सुनाना, अपनी बात थोपने जैसा है.
राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट किया जाता है, लेकिन यही ऊर्जा और जनता से सीधे संवाद की कमी उनमें एक लोकतांत्रिक नेता की छवि नहीं बनने देती है.
अतीत में जीने वाली पार्टी.. इस पर ध्यान दें
एक समय था कि प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरू और आयरन लेडी के तौर पर मशहूर इंदिरा गांधी जब समूह के बीच निकलते थे तो उनकी झलक पाने के लिए जनता लालायित रहती थी. भीड़ जुटाती थी और उनका जुटना समर्थन देने जैसा ही था.
गांधी परिवार की अब की पीढ़ी ने इस और लीजेंड्री सिचुएशन को देखा और महसूस किया है, लिहाजा यह पीढ़ी आज भी समझती है कि लोग रैली के नाम पर निकलेंगे और जनता जुट जाएगी.
वह यह भूल जाती है कि लोकप्रियता को भुनाए रखने के लिए प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी कई-कई हथकंडे अपनाने पड़ते थे. एक समय अपना तख्त बचाने के लिए आयरन लेडी ने टीवी पर शोले फिल्म सिर्फ इसलिए चलवा दी थी कि लोग जेपी की रैली में न पहुंच जाएं.
मुद्दों और मौकों पर ध्यान नहीं देती कांग्रेस
कांग्रेस के पास कई दफा ऐसे मौके रहे, जब वह भाजपा को उसकी चालों से पटखनी दे सकती थी. लेकिन शीर्ष नेतृत्व को यह मौके नजर ही नहीं आए. इस बार के राष्ट्रपति चुनाव को ही देख लीजिए. प्रणब मुखर्जी के बाद जब राष्ट्रपति चुनाव की बात आई तो कांग्रेस सीधे-सीधे इतना कहती कि हमारी ओर से केवल आडवाणी जी. वही राष्ट्रपति पद के लिए हमारी पसंद हैं.
इसके बाद भाजपा को इस चाल से निकलना मुश्किल हो जाता, लेकिन कांग्रेस कई दौर डिनर पार्टी के बाद भी सही नाम के चुनाव में जूझती रही. लिहाजा, भाजपा को चित्त करने का मौका उनके हाथ से निकल गया. रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति बने.
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सोनिया गांधी पर आते हैं
कांग्रेस अध्यक्ष से कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष बनने तक सोनिया गांधी ने एक लंबा सफर तय किया है. कई बैठकों में इसके लिए ऊर्जा खर्च की है. आज प्रमुख विपक्षी दल की मुखिया के तौर पर वह भारत बचाओ रैली को संबोधित कर रही हैं.
कह रही हैं, हमें आज की स्थिति से बचने के लिए कठिन संघर्ष करना होगा, लेकिन यह कठिन संघर्ष होगा कैसे, यह नहीं बता रही हैं.
उनके भाषण के पन्ने पर सिर्फ शब्द ही नहीं चेहरे पर क्या भाव लाने हैं शायद यह भी लिखा होता होगा. लिहाजा एक बार जब उन्होंने साधारण तरीके से पढ़ लिया कि कठिन संघर्ष करना होगा.. तो उन्हें गलती का अहसास हुआ कि अरे, इसे तो जोशीले अंदाज में बोलना था. तब इसी लाइन को उन्होंने रिपीट किया और इंग्लिश-हिंदी के बीच सामंजस्य बिठाते हुए दहाड़कर बोलने की कोशिश करते हुए पढ़ा... कठिन संघर्ष करना होगा, क्या आप तैयार हैं. इस दौरान कैमरा जनता की ओर पैन हुआ तो वहां खाली कुर्सियां दिखीं.
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