मुलायम सिंह यादव से नेताजी तक का सफर नहीं रहा आसान, जानें रोचक किस्से

भारतीय राजनीति में किसी नेता को अगर इस नाम की पहचान मिली तो वो हैं मुलायम सिंह यादव, लेकिन आखिर मुलायाम.. नेता जी कैसे बनें? कैसे गांव का एक आम सा लड़का देश का नेता जी बन गया. आइये इस रिपोर्ट में जानते हैं मुलायम सिंह यादव के बारे में कुछ दिलचस्प किस्से जो वाकई नेता जी को इस खिताब के लिए माकूल बनाते हैं.

Written by - Prabhat Thakur | Last Updated : Oct 8, 2022, 05:19 PM IST
  • मुलायम सिंह यादव को क्यों कहा जाता है नेताजी?
  • 'जिसका जलवा कायम है, उसका नाम मुलायम है'
मुलायम सिंह यादव से नेताजी तक का सफर नहीं रहा आसान, जानें रोचक किस्से

नई दिल्ली: मुलायम सिंह यादव बचपन से ही सकारात्मक प्रतिभा के धनी रहे हैं. पढ़ाई में अव्वल रहे मुलायम ने लोहिया को अपना आदर्श बनाया. इतना ही नहीं उनके विचारों से इतने प्रभावित हुए कि उनके एक-एक भाषण को बिल्कुल गहराई से पढ़ते थे. जब फर्रुखाबाद में लोकसभा का उपचुनाव हुआ तो मुलायम उनके प्रचार के लिए भी आ गए. लोहिया भी मुलायम से काफी प्रभावित हुए.

मुलायम सिंह यादव भी उनके विश्वास पे खड़े उतरे और दिग्गज नेता हेमवती नंदन बहुगुणा के खास को मुलायम ने अपने पहले ही चुनाव में बुरी तरह शिकस्त दी इतना ही नहीं उन्होंने एक बड़ा रिकॉर्ड भी अपने नाम किया, लेकिन कुछ ही समय बाद लोहिया की रहस्मयी मौत ने मुलायम को गहरा आघात दिया.

चरण सिंह के नन्हें नेपोलियन बने सूबे के मुखिया
कुछ ही  समय के बाद नेताजी ने देश में किसान की आवाज बन चुके पूर्व प्रधान मंत्री चौधरी चरण सिंह का हाथ थामा. जो कि उस जमाने की राजनीति में एक बेहतरीन सोशल इंजीनियरिंग के नेता बन चुके थे और अपने राजनितिक रथ को आगे बढ़ाया. कम ही लोग जानते हैं कि नन्हें नेपोलियन का खिताब चौधरी चरण सिंह ने ही मुलायम से को दिया था.

इतना ही नहीं जब प्रदेश में 1980 में वीपी सिंह की सरकार जब डकैतों के खिलाफ अभियान चला रही थी, तब फर्जी एनकाउंटर के नाम पर कई लोगों को निशाना बनाया गया. उस वक्त मुलायम ने इसके खिलाफ आवाज उठाई. इसी कारण वो काफी परेशान भी रहे. तब चरण सिंह ने उनको दो बड़े पद से नवाजा, नेता विपक्ष और प्रदेश अध्यक्ष.. उन्होंने मुलायम को अपना उत्तराधिकारी भी माना.

जब जयंत और संजय ने किया समाजवाद को मजबूत
1990 के दशक की शुरुआत में राम जन्मभूमि आंदोलन की वजह से बीजेपी का सितारा बुलंदी पर था. बीजेपी के दिग्गज नेता सिंह पूर्ण बहुमत के साथ उत्तरप्रदेश विधानसभा का चुनाव जीत चुके थे, लेकिन तभी बीजेपी ने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारी जब एक अनियंत्रित भीड़ ने 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद को गिरा दिया. वो भी तब जब राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को आश्वस्त किया था कि बाबरी मस्जिद को कोई नुकसान नहीं पहुंचने दिया जाएगा.

ठीक उलट नतीजा ये हुआ कि एक ही झटके में उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार गिर गई. मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने खुद ही अपने पद से इस्तीफा दे दिया. केंद्र सरकार कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त करती, इससे पहले ही कल्याण सिंह ने इस्तीफा दे दिया. क्योंकि जिस तरीके से सरकार गिरी तो वर्तमान विपक्षी दल समाजवादी और अभी मजबूती से अपनी जमीं तैयार कर रही बहुजन समाज पार्टी के पास मौका था कि किसी भी तरीके से बीजेपी को दोबारा रोका जाये और ये सपना साकार भी हुआ. मशहूर उद्योगपति जयंत मल्होत्रा को लेकर ऐसा कहा जाता है कि मल्होत्रा ही ऐसे आदमी थे जिन्होंने दोनों को मिलवाया.

एक और उद्योगपति संजय डालमिया ने भी इस समझौते को अंतिम रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जो मुलायम सिंह यादव के काफी करीब थे. कहा जाता है कि इन दोनों उद्योगपतियों के आपस में पारिवारिक संबंध थे और वो दोनों एक दूसरे को बहुत अच्छी तरह से जानते थे. जो कि इस गठबंधन को बेहतर नतीजे पर पहुंचाने में सफल रहे. हालांकि इन दोनों उद्योगपति को इसका इनाम भी मिला दोनों राज्यसभा पहुंचे.

कहा ये भी जाता है कि इस गठबंधन की शुरुआत पहले हो गई, जब कांशीराम ने इटावा लोकसभा और मुलायम ने जसवंत नगर विधानसभा में जीताने के लिए एक-दूसरे की मदद की थी. इटावा का चुनाव परिणाम मुलायम सिंह यादव और कांशीराम के बीच मौन सहमति का नतीजा था, असल में ये जमीनी स्तर पर दलितों, दूसरी पिछड़ी जातियों और मुसलमानों का हिंदुत्ववादी ताकतों के खिलाफ गठबंधन था, क्योंकि 1990 के गोलीकांड ने मुलायम को एक हिंदूविरोधी और मुस्लिम हितैषी का खिताब दे दिया था. तभी तो 'मुल्ला-मुलायम' के नाम से नेताजी मशहूर हो गए थे.

मुलायम सिंह यादव ने कांशीराम को जीत दिलाने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी. इटावा लोकसभा के चुनाव ने दोनों नेताओं को ये संदेश भी दिया कि यादव वोट दलित उम्मीदवारों को और दलित वोट यादव उम्मीदवारों को ट्रांसफर किए जा सकते हैं, लेकिन कहा जाता है ईमानदारी का अभाव अविश्वास और सूबे के सबसे चर्चित गेस्ट हाउस कांड ने इस गठबंधन के धागे को तोड़ दिया था और दोनों पार्टियों की रहे अलग हो गयी.

पिता का कुश्ती प्रेम पुत्र का राजनीति प्रेम
मुलायम सिंह यादव को उनके पिता सुधर सिंह पहलवान बनाना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने जोर आजमाइश भी शुरू कर दी थी. कहा जाता है कि मुलायम सिंह यादव ने पहलवानी में अपने राजनीतिक गुरु नत्थूसिंह को मैनपुरी में आयोजित एक कुश्ती प्रतियोगिता में प्रभावित कर लिया था और यहीं से उनका राजनीतिक सफर की शुरुआत हुई थी.

बताया जाता है कि मुलायम उस वक्त के दिग्गज पहलवान गामा पहलवान से भी दो-दो हाथ कर चुके हैं. चांदगी राम से भी उन्होंने कुश्ती के गुर सीखे हैं. धोबी पछाड़ की बदौलत ही राजनीति के दंगल में उन्होंने अपने प्रतिद्वंदियों को समय-समय पर चित किया और भारतीय राजनीति के नेता जी के रूप मे अपनी पहचान बनाई है.

साइकिल में दिलचस्पी के पीछे की कहानी
मुलायम सिंह साधारण किसान परिवार में जन्में थे. वो अपनी डिग्री कॉलेज की शिक्षा प्राप्त करने 20 किमी. दूर अपने दोस्त रामरूप के साथ जाते थे (द सोशलिस्ट किताब के लेखक Frank Huzur द्वारा लिखित) आर्थिक दशा ठीक न होने के कारण वो अपने पिता से साइकिल नहीं मांग रहे थे, जो कि बहुत जरूरी थी.

इसी सिलसिले में मुलायम के दोस्त रामरूप बताते हैं (The Socialist Book) एक बार जब वो उजियानी गांव से गुजर रहे थे, तो गांव के कुछ लोग ताश खेल रहे थे. गांव की गिनजा में लाला रामप्रकाश गुप्ता भी खेल रहे थे, शर्त ये रखी कि जो जीतेगा उसे Robinhood Cycle मिलेगी. मुलायम खेले और जीते और आज भी मुलायम साइकिल की बेहतरीन रफ्तार पकड़कर समाजवादी का कुनबा आगे बढ़ाएं जा रहे है.

AO Hume और मुलायम
बात 1857 की है जब कांग्रेस पार्टी के संस्थापक पूर्व ब्रिटिश अधिकारी AO Hume जब इटावा के कलेक्टर हुआ करते थे. मुलायम के परदादा नमक टैक्स को लेकर कलेक्टरेट के सामने बैठे थे. ये वही ए ओ ह्यूम (AO Hume) जो आगे चल कर कांग्रेस पार्टी की स्थापना किये थे.

रिश्तों के दद्दा
मुलायम सिंह यादव ने राजनीति का गलियारा हो या दोस्ती या परिवार सभी रिश्तों को बेपनाह प्यार और सम्मान दिया है. सैफई मैनपुरी इटावा में दद्दा के नाम से ख्यात नेता जी का अपना अलग ही पहचान दर्शाता है कि लोग के मन में नेताजी का कितना सम्मान है.

राजनीतिक गलियारों में भी उन्होंने रिश्तों को अहमियत दी. कई जगह ऐसे मौके देखने को जहां नेताजी ने रिश्तों की मिसाल पैदा की. चाहें वो शादी हो या शपथ ग्रहण नेताजी ने अपनी अमिट छाप छोड़ी. उन्होंने परिवार के हर सदस्य का, चाहे वो छोटा हो या बड़ा सबका एक नजरिये से ख्याल रखा. हालांकि इसके लिए उन्हें कई बार आलोचना का शिकार भी होना पड़ा, लेकिन उन्होंने पूरे परिवार को एक धागे में पिरोए रखने का हर समय प्रयास किया.

परिवारवाद का बड़ा आरोप आज भी उनपर लगता रहता है. चाहें शिवपाल हो, रामगोपाल हो, धर्मेंद्र हो, अक्षय हो या डिंपल हो.. उन्होंने सबका ख्याल रखा और कुनबे को आगे ले गए. ये भी सत्य है कि सैफई मैनपुरी या इटावा का कोई भी व्यक्ति मुलायम को नेताजी या दद्दा ही कह कर संबोधित करता है. ऐसा अपनापन मुलायम को औरों से अलग बनाता है.

मुलायम की 'अमर' कहानी
किसी जमाने में उत्तर प्रदेश की राजनीति के चाणक्य कहे जाने वाले अमर सिंह (Amar Singh) बेशक आज हमारे बीच नही है लेकिन उनकी राजनीति के नीति निर्धारण को जनता और नेता दोनों ही याद रखेंगे. फ्लाइट में हुई चंद घंटे की मुलाकात ने मुलायम अमर के जीवन की पटकथा लिख डाली.

तमाम दिग्गज समाजवादी नेता बेनी प्रसाद वर्मा, आजम खान, राज बब्बर, मोहन सिंह और जनेश्वर मिश्र (छोटे लोहिया) जैसे दिग्गज नेता के बावजूद 4 साल की मित्रता ने अमर सिंह को समाजवादी ने दूसरे नंबर की जगह दे दी. इसका कारण एक बेहतरीन उद्योगपति सोशल इंजीनियरिंग में माहिर.. इन्हीं सब खूबी के कारण जल्द ही मुलायम सिंह ने अमर सिंह को राष्ट्रीय महासचिव बना दिया.

चार साल की दोस्ती का नतीजा ये रहा कि 2000 में अमर सिंह का सपा में दबदबा काफी बढ़ गया. यहां तक की पार्टी के टिकट के बंटवारे से मंत्रिमंडल के निर्णय तक मुलायम सिंह अहम फैसलों में अमर सिंह की बात मानने लगे. जल्द ही अमर सिंह का नाम राज्य के ताकतवर नेताओं में शुमार हो गया.

इतना ही नहीं अमर सिंह चार बार राज्यसभा सांसद भी बने. केंद्र में पर्दे के पीछे से अहम भूमिका निभाई, बताया जाता है कि जब 2004 में यूपीए को सपा ने समर्थन दिया तो कई बार बैकफुट पर कांग्रेस का सपा ने साथ दिया. ऐसा माना जाता है कि अमर सिंह ही इन सबके पीछे की बड़ी वजह थे. यहां तक कि सिविल न्यूक्लियर डील फैसले के दौरान 'कैश फॉर वोट' जैसे बड़े मामलों में भी अमर सिंह का नाम सामने आया. जिसमें दिल्ली के तिहाड़ जेल में उनको सजा भी काटनी पड़ी थी.

हालांकि अमर सिंह के कारण आजम खान काफी नाराज रहने लगे थे. यहां तक सार्वजनिक मंच पर कई बार आजम खान ने अमर सिंह के लिए आपत्तिजनक शब्दों का प्रयोग भी किया. विरोध इतना बढ़ गया कि उन्हें पार्टी से हटाना भी पड़ा.

अखिलेश की शादी कराने में अमर सिंह की भूमिका
कहा जाता है कि अगर अमर सिंह न होते तो अखिलेश यादव और डिंपल की शादी न होती. अमर सिंह के मान मनोव्वल पर ही मुलायम शादी के लिए राजी हुए थे. मुलायम के निजी जीवन की हर बारीकी में अमर सिंह का स्थान रहा है.

इसलिए मुलायम के जीवन मे अमर सिंह का महत्वपूर्ण योगदान रहा है. चाहे वो पार्टी को सुचारू और बड़े स्तर पर चलाने के लिए तमाम तरह के संसाधन का अमर सिंह ने सभी कार्यों को कुशलतापूर्वक निभाया और मुलायम के भरोसे पर खड़े उतरे.

'जिसका जलवा कायम है उसका नाम मुलायम है'
यू ही नही कोई मुलायम बन जाता है कहावत है कि जब मुलायम सिंह किसी सभा को संबोधित करते थे तब को कम से कम पचास लोगों को स्टेज पर नाम से पुकार लेते थे. जो कि एक जमीनी नेता की जमीनी हकीकत बयां करता है.

राजनीति में उनके बढ़ते हुए कद के गवाही कुछ आंकड़े दे रहे हैं.

विधान परिषद 1982-1985

विधान सभा 1967, 1974, 1977, 1985, 1989, 1991, 1993 और 1996 (आठ बार)

विपक्ष के नेता, उत्तर प्रदेश विधान परिषद 1982-1985

विपक्ष के नेता, उत्तर प्रदेश विधान सभा 1985-1987

केंद्रीय कैबिनेट मंत्री

सहकारिता और पशुपालन मंत्री 1977

रक्षा मंत्री 1996-1998

तीन बार के मुख्यमंत्री

7 बार के सांसद

आज बेशक वो गंभीर स्वास्थ समस्या से जूझ रहे है, लेकिन उनके चाहने वालों के प्रति उनका प्यार और सम्मान कम नहीं दिख रहा है. चाहें वो अस्पताल के बाहर समर्थकों का तांता या उनकी सलामती के लिए हवन पूजा पाठ का दौर.. क्या पक्ष, क्या विपक्ष सभी दलों के राजनेता उनके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना कर रहे हैं, भारतीय राजनीति के नेताजी ने राजनीति ही नहीं रिश्ते भी बखूबी बनाये और निभाये हैं.

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