नई दिल्ली: कोरोना संकट की दूसरी लहर के बीच नरेंद्र मोदी सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के दो साल पूरे कर लिए हैं. अपने दूसरे कार्यकाल की धमाकेदार शुरुआत 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को खत्म करके की और भाजपा सालों पुराने चुनावी वादे को पूरा कर दिया.
इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने राम मंदिर बनने का रास्ता भी साफ हो गया. अयोध्या में राम मंदिर की नींव भी ठीक उसी दिन( 5 अगस्त, 2020) रखी गई जिस दिन जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को खत्म करने का कानून संसद के पटल पर रखा गया.
ऐसे में अब सबकी नजरें समान नागरिक संहिता यानी यूनिफॉर्म सिविल कोड की ओर मुड़ गई हैं. यह भारतीय जनता पार्टी के तीन सबसे प्रमुख मुद्दों में से एक है. जिसे वो अपने दूसरे कार्यकाल में किसी भी तरह लागू करना चाहती है. कोरोना संकट भाजपा और केंद्र सरकार की राह का सबसे बड़ा रोड़ा बन गया है.
दूसरे कार्यकाल में ताबड़तोड़ तरीके से बड़े निर्णय भाजपा ने लिए हैं और विरोधी दलों को लगता है कि भाजपा किसी भी वक्त समान नागरिक संहिता के बारे में कानून बनाने का ऐलान कर सकती है. कुछ का तो मानना है कि 5 अगस्त, 2021 को भाजपा ऐसा करके अपने राजनीतिक एजेंडों की हैट्रिक पूरी कर सकती है.
भाजपा का संकल्प, एक देश-एक कानून
गृह मंत्री अमित शाह इस बारे में कई बार कह चुके हैं कि किसी भी विभिन्न संप्रदाय वाले देश में धर्म के आधार पर अलग कानून नहीं होने चाहिए. सभी नागरिकों के लिए एक देश-एक कानून होना चाहिए. यह मुद्दा भाजपा के हर चुनावी घोषणा पत्र का हिस्सा रहा है. भाजपा की दृढ़ मानता है कि देश में समान आचार संहिता लागू होनी चाहिए.
भारत में क्रिमिनल लॉ सभी नागरिकों के लिए है लेकिन परिवार और संपत्ति के बटवारे में नियम अलग-अलग हैं. यदि भारत में समान नागरिक संहिता लागू हो जाती है तो यह कानून सभी जाति, धर्म, समुदाय या संप्रदाय से ताल्लुक रखने वाले लोगों के लिए उनके पर्सनल लॉ से ऊपर होंगे. यानी देश में विवाह, तलाक, विरासत, गोद लेने आदि कानूनों में भी एकरूपता आ जाएगी.
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आंबेडकर ने की थी समान नागरिक संहिता को लागू करने की वकालत
1948 में संविधान सभा में जब डॉ आंबेडकर ने यूनीफॉर्म कोड अपनाए जाने की बात रखी तो इस प्रस्ताव का कुछ सदस्यों ने उग्र विरोध किया. समिति में शामिल 5 मुस्लिम सदस्यों ने इस मसले का विरोध किया. मुसलमानों को लगा कि यह उनकी पहचान को मिटाने की कोशिश है.
मुस्लिम सदस्यों ने किया था विरोध
संविधान सभा की अल्पसंख्यक सलाहकार समिति ने भी अनुशंसा की कि मुसलमानों की आशंका और गलतफहमी दूर होने के बाद उनकी सहमति से ही यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू किया जाए. ये निर्णय संविधान सभा की उस समिति का था जिसके सदस्यों में डॉ. भीमराव आंबेडकर और श्यामा प्रसाद मुखर्जी शामिल थे.
लिहाजा मसले को संविधान के अनुच्छेद 44 में नीति-निर्देशक तत्वों के तहत रख दिया गया. इसमें प्रावधान किया गया कि 'भारत के समूचे भू-भाग में राज्य अपने नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा.'
हालांकि डॉ आंबेडकर ने चर्चा के दौरान यह भी कहा था कि अगर भारत जैसे देश के लिए एक कानून नहीं बन सकता तो संविधान सभा ही नहीं बनती. संविधान भी तो एक कोड ही है जो पूरे देश में लागू होगा. इसके अलावा उन्होंने कहा था कि वर्तमान में देश में 11 कानून ऐसे हैं जो सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होते हैं.तो ऐसा यूनिफॉर्म सिविल कोड के साथ क्यों नहीं हो सकता.
संविधान निर्माण के दौरान चर्चा के बाद से लेकर आज तक ये मसला जस का तस पड़ा है. इस दिशा में कोई भी राजनीतिक दल आगे नहीं बढ़ सका. ये बात सच है कि जवाहर लाल नेहरू और डॉ अंबेडकर दोनों यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करने के पक्ष में थे लेकिन संविधान निर्माण के दौरान उन्हें महसूस हुआ कि देश फिलहाल इस कानून को अपनाने के लिए तैयार नहीं है.
लेकिन आजादी के बाद इतने साल गुजर जाने के बाद भाजपा के अलावा इस मसले पर अन्य किसी राजनीतिक दल ने कानून बनाने की इच्छा ही नहीं जाहिर की. ऐसे भाजपा कब और किस तरह इस दिशा में आगे बढ़ती है यह देखने वाली बात होगी.
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