आज भी जिनका निशान हमारे तिरंगे पर अंकित है, जानिए उस सम्राट अशोक की गौरव गाथा

भारतीय संविधान की प्रस्तावना और उसका आधार जिस सम्राट अशोक के शिलालेख रहे हैं. उस सम्राट अशोक को भी दुर्भावनाग्रस्त इतिहासकारों ने भुला देने का षड्यंत्र रचा.

Written by - Zee Hindustan Web Team | Last Updated : Mar 17, 2020, 07:57 PM IST
    • महान सम्राट अशोक की गौरव गाथा
    • जिन्होंने शस्त्र विजय के बाद धर्म विजय की
    • इतिहास में नहीं मिलता ऐसा कोई उदाहरण
    • प्रारंभिक जीवन में बेहद क्रूर थे सम्राट अशोक
    • कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार के बाद उनका हृदय बदल गया
    • प्रजा पालन के लिए सदा तत्पर रहते थे अशोक
    • उनका अशोक चिन्ह आज भारत का प्रशासनिक चिन्ह है
    • अशोक का धर्मचक्र हमारे तिरंगे झंडे के बीच में स्थित है
आज भी जिनका निशान हमारे तिरंगे पर अंकित है, जानिए उस सम्राट अशोक की गौरव गाथा

नई दिल्ली: सम्राट अशोक का जीवन मनुष्य के जीवन की अधोगति से उत्थान का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है. उनका प्रारंभिक जीवन क्रूरता और लिप्साओं से भरा हुआ था. लेकिन  जीवन का आखिरी समय आते आते वह महानता के शिखर पर पहुंच चुके थे. उन्होंने शस्त्रों के जरिए विजय की शुरुआत की थी. लेकिन आखिर में उन्होंने दिलों को जीतना शुरू कर दिया. यही वजह है कि सम्राट अशोक का नाम आज भी अमर है.

शुरुआती जीवन में बेहद क्रूर थे सम्राट अशोक
अपनी युवा अवस्था में चंडाशोक चंड, प्रचंड और कालाशोक जैसे नामों से जाना जाता है. कहा जाता है कि उन्होंने सिंहासन प्राप्त करने के लिए अपने 99 भाइयों की हत्या कर दी थी.

सम्राट अशोक मौर्य साम्राज्य के तीसरे शासक थे जिन्होंने अपने दादा चंद्रगुप्त की तरह शासन किया लेकिन उनके शासन का तरीका मौर्य वंश के पहले के शासकों से बिल्कुल अलग था.

महान अशोक के 100 भाई थे, जिसमें वे सबसे छोटे थे. किसी को उम्मीद नहीं थी कि वे राजा बनेंगे. अशोक का जन्म पाटलिपुत्र में 324 ईसापूर्व हुआ था, जिसे आज पटना के नाम से जाना जाता है. चीन ग्रंथ अशोक वादन के मुताबिक अशोक के पिता सम्राट बिंदुसार की 16 पत्नियां और 101 बच्चे थे

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बेहद कठिन संघर्ष करके सिंहासन तक पहुंचे अशोक
पूरे भारतवर्ष में सम्राट अशोक का साम्राज्य सबसे बड़ा रहा. वह हिंदुकुश से लेकर अफगानिस्तान और बर्मा तक के अधिपति थे. लेकिन एक मजबूत साम्राज्य की स्थापना करने वाले सम्राट अशोक के लिए सत्ता तक का सफर आसान नहीं था.

अशोक को उनके पिता बिंदुसार पसंद नहीं करते थे. प्राचीन ग्रन्थ अशोक वदान के मुताबिक अशोक के पिता सम्राट बिंदुसार उन्हें नापसंद करते थे. इस किताब के मुताबिक पिता बिंदुसार को अपने  ही बेटे अशोक की शक्ल सूरत से चिढ़ थी. बचपन में ही पिता-पुत्र के बीच आई खटास उम्र के साथ बढ़ती चली गई.

कई इतिहासकारों का मानना है कि बिंदुसार अशोक को जरूरत से ज्यादा महत्वाकांक्षी मानते थे. इसीलिए उन्हें राजधानी से ज्यादा से ज्यादा दूर रखना चाहते थे.

बिंदुसार अपने बड़े बेटे सुशीम को राजा बनाने चाहते थे. इस फैसले ने सम्राट अशोक के उग्र स्वभाव को भड़काने का काम किया. सत्ता पाने की लालसा में उन्होंने क्रूरता और कत्ल का ऐसा सिलसिला शुरू किया, जिसने अशोक का नाम इतिहास के क्रूर शासकों की फेहरिस्त में शामिल कर दिया.

मौर्य राजवंश के इतिहास में 274 ईसा पूर्व का कालखंड अशोक का माना जाता है. इसी  काल में अशोक को चंडाशोक की उपाधि मिली.

चंडाशोक से देवानांप्रिय बने अशोक
जिस अशोक की क्रूरता के कारण उन्हें चंडाशोक कहा गया. इतिहास गवाह है कि उनकी दयालुता और प्रजापालकता के कारण उन्हें देवानांप्रिय के नाम से भी जाना गया.

सम्राट अशोक व्यक्तित्व काफी प्रभावशाली था. उन्होंने सिर्फ अपनी वाणी के आधार पर तक्षशिला का विद्रोह शांत करवा दिया. उनकी प्रशासनिक क्षमताएं भी बेहद शानदार थीं. उन्होंने अपनी प्रतिभा के बल पर अपना स्थान बनाया था.

अशोक की क्रूरता की असली कहानी शुरू हुई बिंदुसार की मृत्यु के बाद. क्रूरता और कत्लोगारत का सिलसिला अगले चार सालों तक चलता रहा. बौद्ध ग्रंथों के मुताबिक अशोक ने सिंहासन के रास्ते में आने वाले अपने सभी भाइयों को मार डाला. हालांकि इतिहासकारों के एक वर्ग का मानना है कि अशोक ने सिर्फ छह भाइयों की हत्या की थी. ज्यादातर बौद्ध ग्रंथों में अशोक की क्रूरता की कहानी दर्ज है. हालांकि इसका कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिलता है. बल्कि एक शिलालेख ऐसा भी मिला है.  जिसमें उन अधिकारियों का जिक्र है जो सम्राट के भाइयों-बहनों का ख्याल रखते थे.

कई बार ऐसा लगता है कि बौद्ध ग्रंथों ने अपने धर्म की महानता दर्शाने के लिए बौद्ध धर्म अपनाने से पहले अशोक को महाक्रूर दिखाने की कोशिश की है.

लेकिन यह सत्य है कि सिंहासन पाने के लिए अशोक ने अपने भाइयों का खून बहाया, लेकिन मारे गए लोग 6 थे या 99 इसपर विवाद है.

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इस वजह से बदला अशोक का हृदय
पिता की मृत्यु के चार साल बाद 270 ई.पू. में अशोक मौर्य सम्राज्य के तीसरे शासक बने. राजा बनने के बाद सम्राट अशोक के सामने साम्राज्य विस्तार का सवाल था. उस समय आज के ओडिशा का नाम कलिंग था. पूर्व में बंगाल की खाड़ी से सटा कलिंग मौर्य युग में एक स्वतंत्र और शक्तिशाली राज था. चंद्रगुप्त और बिंदुसार भी कलिंग को मौर्य साम्राज्य में मिलाने की कोशिश कर चुके थे. लेकिन उनकी कोशिश बेकार रही.

अशोक ने अपने साम्राज्य को मजबूत करने के लिए कलिंग को हर हाल जीतने की ठानी. अशोक के जीवन के आठवें साल में लड़े गए इस युद्ध में खून पानी की तरह बहा. कलिंग की विशाल सेना को जीतना आसान नहीं था. कलिंग की सेना ने अशोक की सेना को कड़ी चुनौती दी. लेकिन इस जंग में अशोक की विजय हुई.

लेकिन इस युद्ध  में मारे गए लाखों  लोगों और उनके  परिजनों  के  क्रंदन ने अशोक का हृदय बदल दिया. लड़ाई में भले ही अशोक की जीत हुई थी लेकिन चंडाशोक मर चुका था. नए अशोक का जन्म हो चुका था जिसे इतिहास देवनांप्रिय अशोक के नाम से याद करता है. 

अशोक ने शुरू की धर्मविजय
अभी से लगभग 2200 साल पहले जब शस्त्र बल ही साम्राज्य का आधार माना जाता था. उस समय अशोक जैसे भारतीय शासक ने दिलों को जीतने का सपना देखा. उन्होंने प्रजा के हित और नैतिक आचरणों को अपनी शासन पद्धति का आधार बनाया.  अशोक ने जो अपने सिद्धांत दिए उसे अशोक का धम्म कहते हैं. इसमें बौद्ध, जैन और हिंदू तीनो विचारधाराओं का दार्शनिक समागम था.

अशोक के धम्म का अर्थ था नैतिक आचरण था. यह असल में राजा-प्रजा से लेकर शान से जुड़े अधिकारियों के कर्तव्य और आचरण की ऐसी आचार संहिता थी जिसके पालन करने से ही स्वस्थ समाज का निर्माण संभव था. अशोक ने अपने 12वें दीर्घ शिलालेख में लिखवाया है कि---

देवताओं के प्रिय दान या सम्मान को इतना महत्वपूर्ण नहीं मानते जितना इस बात को कि सभी संप्रदायों की मूलभावना का प्रचार प्रसार हो. इसके लिए बोलचाल में संयम बहुत जरूरी है. लोग मौके-बेमौके अपने संप्रदाय की प्रशंसा और दूसरे संप्रदायों की निंदा न करें या कभी निंदा हो भी तो संयम के साथ. हर अवसर पर दूसरे संप्रदायों का आदर करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से व्यक्ति अपने संप्रदाय की उन्नति और दूसरे संप्रदायों का उपकार करता है.

सम्राट अशोक ने सिर्फ आपसी भाईचारे की हीं नहीं बल्कि जानवरों के साथ भी हमदर्दी से पेश आने की नसीहत दी और अपने आदर्श और आदेशों को जन-जन तक पहुंचाने के लिये शिलालेखों और स्तूपों को जरिया बनाया.

सम्राट अशोक ने अपने आदेशों और आदर्शों को लोगों तक पहुंचाने के लिए 84 हजार स्तूपों और स्तंभों का निर्माण कराया. जिन पर आदर्श वाक्य और आदेश लिखे गए थे. अशोक के शिलालेख आज भी प्राप्त होते हैं. उन स्तंभों की बनावट अशोक के काल की वास्तुकला का नायाब नमूना है. इन स्तंभों पर खास तरह के पेंट का इस्तेमाल किया गया है. वो पॉलिश किस रसायन को मिलाकर बनाई गई है इसका जवाब आज के वैज्ञानिकों के पास भी नही है.

सम्राट अशोक की शिक्षाएं हैं हमारे संविधान का आधार
सम्राट अशोक ने सारनाथ, इलाहाबाद, वैशाली, दिल्ली और सांची में इन स्तंभों का निर्माण कराया गया है. इन पांच स्तंभों में से सबसे खास है सारनाथ का अशोक स्तंभ. रफ  देख रहे होते हैं. 250 ईसापूर्व बने सारनाथ के अशोक स्तंभ को राष्ट्रीय प्रतीक के तौर पर भी अपनाया गया है. 

अशोक स्तंभ में चार शेर हैं. जो चारो तरफ देख रहे हैं. इसमें जो एक चक्र है जो इस बात की ओर संकेत करते हैं कि धर्म का पहिया लगातार चल रहे हैं. इसके अशोक के प्रभाव को चारों तरफ स्थापित करने के रुप में देखा जाता है. 

 अशोक स्तंभों में जानवरों का विशेष महत्व है. खासकर शेर का. बौद्ध धर्म में शेर को बुद्ध का प्रतीक माना जाता है.

तलवार के बल पर सम्राट अशोक ने पूरे भारत को जीता लेकिन धम्म विजय के जरिए उसका सम्राज्य भारतीय उपमहाद्वीपों से निकलकर कही दूर तक फैल गया. धम्म विजय के जरिए सम्राट अशोक ने अपनी विजय पताका कई देशों तक फैलाई.

सम्राट अशोक पहले शासक थे जिन्होंने पहली बार धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था की नींव रखी. 2300 साल पहले सम्राट अशोक की मृत्यु हो गई. लेकिन उनकी विरासत की  झलक आज भी आधुनिक भारत के प्रशासनिक प्रतीकों पर दिखाई देती है. हमारे राष्ट्रीय झंडे का चक्र भी सम्राट अशोक की देन है. अशोक स्तंभ भी अशोक की देन है.

आधुनिक भारत सम्राट अशोक की देन को कभी भुला नहीं सकता. लेकिन आश्चर्य की बात है कि जहां प्रशासनिक स्तर पर सम्राट अशोक के प्रतीक चिन्हों को अपनाया गया. वहीं, इतिहासकारों ने मुगल साम्राज्य  की शासन व्यवस्था के सामने सम्राट अशोक  को  बेहद कम स्थान दिया. 

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