नई दिल्ली. स्वामी विवेकानंद को घरवालों ने नाम दिया था नरेन्द्रनाथ. घरवाले प्यार से उन्हें नरेन बुलाते थे. नरेन बचपन से ही इतने नटखट और शरारती थे कि उन्हें कंट्रोल करना मुश्किल हो जाता था. लेकिन जब वे किसी साधु-संन्यासी को देखते तो उनके चेहरे पर अजीब सी चमक आ जाती.
किया था अनोखा प्रश्न साधु से
एक बार कोई साधु भजन गाता हुआ उनके द्वार पर आया. नरेन से उसने कपड़ा मांगा और उन्होंने एक नई और महंगी चादर बिना किसी से पूछे उसे दे दी. साथ ही एक सवाल भी कर दिया बाबा क्या आपने भगवान को देखा है. उस साधु ने विवेकानंद को जवाब दिया उसे सुनकर रौंगटे खड़े हो जाते हैं.
साधु का उत्तर भी असाधारण था
नन्हे नरेन के प्रश्न पर उस साधु ने कहा- " मेरे पूर्व जन्म के संस्कार ऐसे नहीं कि मुझे इस जन्म में ईश्वर के दर्शन का परम आनंद मिले, हां तुम्हारी आंखों में अलौकिक दिव्यता का दर्शन कर मैं ये कह सकता हूं कि तुम्हें भगवान के दर्शन अवश्य होंगे" नरेन के पिता विश्वनाथ दत्ता दान-पुण्य के खिलाफ नहीं थे, ना ही उनकी मां भुवनेश्वरी देवी. लेकिन किसी को क्या और कैसे देना है इसका ख्याल तो रखना ही पड़ता है. पर बालक नरेन इन सब से ऊपर थे. कहते हैं कि उनकी इसी दानशीलता की वजह से जब कोई गरीब फकीर उनके घर आता तो घरवाले उन्हें कमरे में बंद कर देते इस डर से कि ये कुछ भी उठा कर न दे दे. लेकिन नरेन खिड़की से कुछ भी महंगा सामान घर आए साधु के सामने फेंक देते थे.
जीवमात्र के प्रति करुणामय थे नरेन
सिर्फ गरीब साधु फकीर के लिए ही उनके मन में करुणा नहीं थी बल्कि जीव-जंतुओं से भी बचपन से ही उन्हें बेहद लगाव था. बचपन में उन्होंने बंदर, बकरी, मोर, कबूतर जैसे जानवर और पक्षी पाल रखे थे. मां-बाप अपने लाल की इस असाधारण गतिविधियों से हैरान परेशान रहते थे. न तो किसी चीज से डरते थे और ना ही किसी की बात सुनते थे.
शरारती तो अव्वल दर्जे के थे नरेन
एक ऐसी तरकीब जरूर थी जिससे मां भुवनेश्वरी देवी उनपर काबू पा लेती थीं. जब नरेन बेतहाशा शरारत करते तो मां कहती कि अगर तुम ऐसे ही शरारत करोगे तो भगवान शिव तुम्हें कैलाश नहीं जाने देंगे. कहते हैं कि उसके बाद वे तुरंत शांत हो जाते. ये तो विधाता ही जान सकता है कि 5-6 साल का एक बालक कैलाश मानसरोवर न जा सकने की चेतावनी पर क्यों शांत हो जाता था.
बड़े चाव से सुनते थे गीता-रामायण
बालक नरेन अपनी मां के मुंह से रामायण और गीता की कहानियां भी बड़े चाव से सुनते थे और उस दौरान बिल्कुल शांत भाव रहते थे. बचपन से ही एक खूबी थी उनके भीतर. एक बार जो सुन लिया हमेशा के लिए उन्हें याद हो जाता था. नरेन ने बांग्ला का पूरा अल्फाबेट घर में ही अपनी मां से सीख लिया था.
7 साल में कंठस्थ था संस्कृत व्याकरण
जब 5 साल के हुए तो घरवालों ने एक स्कूल में दाखिला करवा दिया. लेकिन वहां बच्चों की संगति में वो कुछ अपशब्द सीखने लगे. संस्कारवान मां-बाप ने अपने बच्चे के मुंह से अपशब्द की ध्वनि सुनी तो उन्होंने स्कूल से नाम कटवाकर घर में ही ट्यूटर रख दिया. उसी ट्यूटर से आस-पास के बच्चे भी पढ़ने लगे. बाकी बच्चे तो यत्न करने के बाद भी सबक याद नहीं कर पाते थे लेकिन नरेन को तो बस सुनकर ही सबकुछ याद हो जाता था. 7 साल की उम्र में ही संस्कृत व्याकरण की किताब मुग्धबोध पूरी तरह याद हो गई. इसके अलावा रामायण और महाभारत के कई-कई श्लोक जुबान पर रहते थे.
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