बैशाखी के दिन अस्तित्व में आई उस खालसा की कहानी, जिसने औरंगजेब के छक्के छुड़ा दिए

खालसा. शौर्य और देशभक्ति की अमिट पहचान इस नाम में छिपी है. गुरु गोबिंद सिंह जी जो कि दशम सिख गुरु थे, उन्होंने बैशाखी के दिन 1699 में खालसा की स्थापना की. पंज प्यारे और पंज ककार की पहचान रखने वाली उसी खालसा की आज पूरी कहानी.

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : Apr 13, 2020, 12:10 AM IST
    • औरंगजेब के अत्याचारों का दमन करने के लिए गुरु गोबिंद सिंह ने की खालसा की स्थापना
    • बलिदान के लिए पांच रणबांकुरों को बुलाया और फिर अमृत छकाकर पंज प्यारे बनाया
बैशाखी के दिन अस्तित्व में आई उस खालसा की कहानी, जिसने औरंगजेब के छक्के छुड़ा दिए

नई दिल्लीः ये उन दिनों की बात है जब सारा देश जल रहा था. अन्याय और अत्याचार का आलम था. औरंगजेब को शिवाजी से कई बार शिकस्त मिल चुकी थी, लेकिन दक्षिण में सबकुछ हार जाने वाले वह क्रूर अब बूढ़ा हो चला था. शरीर भले ही जर्जर हो रहा था, लेकिन उसकी जलालत में रत्ती भर भी कमी नहीं आई थी.

उसके इस अत्याचार के विरुद्ध पंजाब से एक बिजली कौंधीं, जिसकी चमक से आतताइयों की आंखें चौंधिया गईं और सचाई का साथ देने वाले रणबांकुरों की आंखों में नया जोश झलक आया. यह बिजली एक वीर योद्धा के तलवार से चमकी थी और यह योद्धा था सिखों का दशम गुरु, गुरु गोबिंद सिंह. 

ऐसे चुने गए पंज पियारे
इस अत्याचार, अन्याय और अनीति के खिलाफ एकजुट होने के लिए गुरु दशमेश को मानने वाले आनंदपुर साहिब में जुटे थे. भाई थान सिंह गुरुद्वारे में सभा जारी थी. इतने में नंगी तलवार लिए गुरु गोबिंद सिंह सभा में पहुंचे और गरज पड़े. वतन के लिए कौन अपने शीश का बलिदान देना चाहता है.

सभा में सन्नाटा छा गया. फिर से दोहराया, कौन?  है कोई? एक बांका खड़ा हुआ. गुरुदेव उसे अपने साथ वहां से अलग ले गए. वापस लौटे तो अकेले, लेकिन तलवार खून में सनी थी. यही सवाल फिर गरजा. एक और रणबांकुरा खड़ा हुआ. उसे भी गुरुदेव अपने साथ ले गए. सिलसिला पांच बार चला. जब भी गोबिंद सिंह जी लौटते, तलवार पर खून का निशान और मोटा हो जाता. 

फिर गुरदेव ने छकाया अमृत
इस तरह गुरु गोबिंद सिंह ने पांच रणबांकुरो को अपने साथ ले गए. तलवार पर खून देखकर सभी ने समझा कि उन पांचों ने बलिदान दिया, लेकिन कुछ देर बाद दशम गुरु वापस लौटे और इस बार उनके साथ पांचों बांके जवान भी थे. गुरुदेव ने उन सभी को पंज पियारे का नाम दिया.

इसके बाद उन्हें एक लोहे के कटोरे में शरबत बनाया और दुधारी तलवार से घोलकर उसे अमृत का नाम दिया. वही पांचों सेवक पहले खालसा कहलाए और इस तरह गुरुदेव ने खालसा पंथ की नींव रख दी. 

बनाए पांच ककार, जो खालसा की पहचान बन गए
दशम गुरु ने तय किया कि मातृभूमि की रक्षा करनी है तो सिर्फ गुरुवचन और नीति-उपदेश से काम नहीं चलेगा. बल्कि गुरुवचन की महिमा-गरिमा याद रखते हुए तलवारें भी उठाने पड़ेंगीं. उन्होंने पूरे पंथ को, हर एक सिख को और हर सरजमीं पर जन्म लेने वाला हर एक नौजवान को सैनिक बनाया और शपथ दी कि इस मिट्टी के लिए ये खालसा आखिरी सांस तक लड़ेगा.

खालसा के लिए पांच ककार धारण कराया. केश, कंघा, कड़ा, कृपाण और कच्चेरा. यही खालसा पंथ की पहचान हैं. जिस दिन यह पावन पंथ बनाया गया वह बैसाखी का दिन था. आज भी जब पंजाब में, पंजाब ही क्यों पूरे भारत में जब खेतों में गेहूं की पकी बालियां झूमती हैं तो वह उसी खालसा का गुणगान करती हैं, जिनकी वजह से यह माटी आबाद है. 

सबसे पहले आगे आए भाई दया सिंह जी
भाई दया सिंह जी का जन्म 1 फरवरी 1668 को लाहौर, पंजाब (अब पाकिस्तान) में हुआ था. वे 13 साल की उम्र में गुरु घर के साथ जुड़े और 18 साल तक गुरमत की पढ़ाई की. इन्होंने गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ सभी बड़े युद्धों में हिस्सा लिया. 21 दिसंबर 1708 में इनका इनका निधन नांदेड में हुआ था.

खालसा पंथ से अलग भाई दया सिंह जी का बड़ा ऐतिहासिक महत्व है. गुरु सिंह जी ने एक जफरनामा (विजयपत्र) औरंगजेब के नाम लिखा था. इसे लेकर दया सिंह जी ही औरंगजेब के पास गए थे. 

दूसरी आवाज में भाई धरम सिंह जी आगे आए
12 अप्रैल 1670 को हस्तिनापुर, उत्तर प्रदेश में जन्मे भाई धरम सिंह जी 25 साल की उम्र में गुरु घर के साथ जुड़े और 4 साल तक गुरमत की पढ़ाई की. गुरु साहिबान की आवाज पर उठने वाले दूसरे शख्स भाई धरम सिंह जी थे. इन्होंने गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ सभी बड़े युद्धों में हिस्सा लिया.

14 जून 1711 को नांदेड़ में भाई जी का देहांत हुआ. कहते हैं कि सैफपुर (हस्तिनापुर) में आज भी इनके वंशज हैं. यहां पर ‘पंज प्यारे भाई धरम सिंह जी जन्म स्थान’ नाम से गुरुद्वारा इनका कीर्तिगान कर रहा है. 

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बलिदान के लिए तीसरी बार उठे भाई हिम्मत सिंह जी
भाई हिम्मत सिंह जी का जन्म: 17 मई 1664 पुरी (ओडिशा) में हुआ था. 14 साल की उम्र में ही वे गुरु घर के साथ जुड़े और 21 साल तक गुरमत की पढ़ाई की. आगे  राम कौर जी से 11 नवंबर 1684 को शादी हुई और पांच संतानों का सुख मिला. इन्होंने गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ 5 बड़े युद्धों में हिस्सा लिया और जीत भी हासिल की.

6 दिसंबर 1704 को चमकौर में युद्ध लड़ते हुए शहादत हासिल हुई. इनकी याद में गुरुद्वारा श्री आरती साहिब पुरी (ओडिशा) में स्थित है. यहां श्री गुरु गोबिंद सिंह जी का हुकमनामा भी रखा हुआ है जो उन्होंने भाई हिम्मत सिंह जी को दिया था. 

 

चौथे प्यारे थे भाई मोहकम सिंह जी
गुरु की आवाज पर उठने वाले चौथे प्यारे भाई मोहकम सिंह जी थे. इनका जन्म: 7 मार्च 1679 को द्वारका (गुजरात) में हुआ था. ये 15 साल की उम्र में गुरु घर के साथ जुड़े और 5 साल तक गुरमत की पढ़ाई की. इन्होंने भी गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ युद्धों में हिस्सा लिया और 6 दिसंबर 1704 को चमकौर साहिब के युद्ध में शहीद हुए.

चूड़ामणी कवि संतोख सिंह इनके वंश में हुए हैं. इनकी स्मृति में गुरुद्वारा भाई मोहकम सिंह जी, बेट (द्वारका) में ओखा रेलवे स्टेशन के पास स्थित है. 

 

भाई साहिब सिंह जी थे पांचवें प्यारे
गुरु साहिबान की आवाज़ पर उठने वाले पांचवे शख्स भाई साहिब सिंह जी थे. इनका जन्म कर्नाटक के बीदर में हुआ था. भाई साहिब सिंह जी 11 साल की उम्र में गुरु जी के साथ जुड़े और 13 साल तक गुरमत की पढ़ाई की. साहिब सिंह जी ने गुरु गोबिंद सिंह के साथ कई युद्ध लड़े और  6 दिसंबर 1704 को चमकौर साहिब में शहीद हुए.

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