देवी महालक्ष्मी के व्रत पूजन से खुलेंगे सौभाग्य के द्वार

श्राद्ध पक्ष की अष्टमी तिथि यानी आश्विन मास की अष्टमी तिथि के दिन देवी महालक्ष्मी के प्रसिद्ध व्रत का अनुष्ठान किया जाता है. श्रद्धालु (विशेष तौर पर गृहिणियां) इस व्रत का अनुष्ठान करती हैं. माता से सुश-शांति और वैभव की कामना करती हैं. 

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : Sep 8, 2020, 01:20 PM IST
    • आश्विन कृष्ण अष्टमी तिथि को होती है देवी महालक्ष्मी की पूजा
    • मिट्टी के हाथी बनाकर घरों में किया जाता है गजलक्ष्मी का पुण्य प्रदान करने वाला अक्षय व्रत
देवी महालक्ष्मी के व्रत पूजन से खुलेंगे सौभाग्य के द्वार

नई दिल्लीः भारत में व्रत-पूजन और अनुष्ठान के जितने भी विधान हैं, प्रतीक रूप में वह मनुष्य को परिवर्तन और सुयोग्य विचारों की प्रेरणा देते हैं. जैसे कि पुष्प कठिन परिस्थितियों में भी खिले रहने की प्रेरणा देते हैं तो दीप-धूप गंध आदि द्रव्य प्रकाशित, सुगंधित रहने और सत्य व निष्ठा के प्रसार की प्रेरणा देते हैं.

इन सभी शुभ लक्षणों का एक साथ समावेश ही महालक्ष्मी देवी का प्रतीक है. देवी लक्ष्मी के नाम का अर्थ ही शुभ लक्षणों की उपस्थिति है. 

श्राद्ध पक्ष की अष्टमी तिथि को होती है देवी की पूजा
इसलिए त्रिलोक में धन-धान्य, नद-नदी, रत्न, वनस्पति और खनिज आदि जितने भी शुभ भंडार भरे हैं, सभी देवी लक्ष्मी का प्रतीक हैं और उनके ही आशीष से प्राप्त होते हैं.

चौमासे के पवित्र समय में जब भगवान विष्णु शयन कर रहे होते हैं, विष्णुप्रिया देवी लक्ष्मी भी जगत का भरण-पोषण अलग-अलग स्वरूपों में कर रही होती हैं.

यह समय उनकी कृपा पाने का विशेष समय है, जिसके लिए श्राद्ध पक्ष की अष्टमी तिथि यानी आश्विन मास की अष्टमी तिथि का दिन नियत है. श्रद्धालु (विशेष तौर पर गृहिणियां) इस व्रत का अनुष्ठान करती हैं. माता से सुश-शांति और वैभव की कामना करती हैं. 

भाद्रपद मास की अष्टमी तिथि से शुरू होता है पूजन
हालांकि महालक्ष्मी व्रत व पूजन 16 दिनों का व्रती अनुष्ठान होता है. जिसकी शुरुआत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि से होकर आश्विन मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को समापन होता है. महालक्ष्मी का व्रत गणेश चतुर्थी के चार दिन बाद से प्रारंभ होता है.

जो लोग 16 दिनों तक महालक्ष्मी का व्रत नहीं रख पाते हैं, वे पहले और आखिरी दिन महालक्ष्मी व्रत रखते हैं. इसके अलावा कई स्थानों पर सिर्फ आखिरी दिन ही महालक्ष्मी अनुष्ठान कर पूजन होता है. 

इसलिए होती है गजलक्ष्मी हाथी की पूजा
देवी का एक वाहन उल्लू है. लेकिन उल्लू पर विराजित लक्ष्मी चंचला होती हैं. वहीं हाथी पर विराजित और उसकी सवारी करके आई लक्ष्मी ऐश्वर्य का प्रतीक होती हैं. वैसे भी प्राचीन काल से हाथी ऐश्वर्य और भव्यता का प्रतीक रहा है.

राजाओं की शक्ति और भव्यता का अंदाजा उनकी सेनाओं में हाथी की संख्या जानकर लगाया जाता है. भगवान विष्णु का भक्त होने के कारण हाथी देवी महालक्ष्मी को भी विशेष प्रिय है. समुद्र मंथन से ही देवी और हाथी ऐरावत का जन्म हुआ था. इसलिए देवी और हाथी परस्पर भाई-बहन भी हैं. इसलिए ऐश्वर्य की प्रदाता देव भी गजराज हैं. वहीं हाथी की पूजा से पितरों को भी मोक्ष मिलता है. 

ऐसे कीजिए देवी महालक्ष्मी का पूजन
गजलक्ष्‍मी व्रत का पूजन शाम के समय किया जाता है. शाम के समय स्नान कर पूजास्‍थान पर लाल कपड़ा बिछाएं. केसर मिले चन्दन से अष्टदल बनाकर उस पर चावल रखें. फिर जल से भरा कलश रखें. अब कलश के पास हल्दी से कमल बनाएं. इस पर माता लक्ष्मी की मूर्ति रखें.

मिट्टी का हाथी बाजार से लाकर या घर में बनाकर उसे से सजाएं. अगर संभव हो तो इस दिन नया सोना खरीदकर उसे हाथी पर चढ़ाएं. अपनी श्रद्धानुसार सोने या चांदी का हाथी भी ला सकते हैं. इस दिन चांदी के हाथी का ज्यादा महत्व माना गया है. इसलिए अगर संभव हो तो पूजा स्थान पर चांदी के हाथी का प्रयोग करें.

इस दौरान माता लक्ष्मी की मूर्ति के सामने श्रीयंत्र भी रखें. कमल के फूल से मां का पूजन करें. हालांकि यह एक विधि है, प्रत्येक परिवार की रीतियों-परंपराओं के अनुसार इनमें कुछ बदलाव भी हो सकते हैं. परंपराओं का पालन करें.

माताएं बनाती हैं मिट्टी से हाथी
देवी महालक्ष्मी के पूजन के दौरान माताएं-गृहणियां मिट्टी से श्रद्धापूर्वक हाथी बनाती हैं. इसका कारण है कि मिट्टी के कारण यह भूदेवी की वास्तविक पूजा है जो कि स्वयं लक्ष्मी स्वरूप हैं. भूमि संपत्ति का प्रमुख भाग है. इसलिए भूमि लक्ष्मी स्वरूप है.

इससे बनाया गया हाथी स्वयं देवी लक्ष्मी का भाई होकर ऐश्वर्य का प्रदाता हो जाता है. इसलिए माताएं खुद ही मिट्टी से हाथी का निर्माण कर उसकी पूजा करती हैं. 

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