नई दिल्लीः मकर संक्रांति के पर्व पर कुंभ का आगाज हो रहा है. इस तरह श्रद्धालुओं के जत्थे उत्तराखंड में स्थित हरिद्वार की ओर बढ़ चले हैं. एक मान्यता के अनुसार कुंभ और संक्रांति का संयोग विशेष फल देने वाला होता है. मकर संक्रांति की मान्यताओं के बीच उत्तराखंड की उत्तरैणी-मकरैणी की भी बड़ी मान्यता है. 14 -15 जनवरी की तारीख में जब मकर संक्रांति का संयोग होता है उसी समय उत्तराखंड में यह पर्व मनाया जाता है.
ऐसे मनाते हैं उत्तरैणी-मकरैणी
मकर संक्रांति, भारत और नेपाल में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है. पौष मास में जब सूर्य मकर राशि पर आता है तभी इस पर्व को मनाया जाता है. सूर्य के उत्तरायण होने के कारण स्थानीय भाषा में इसे उत्तरैणी और मकर राशि में प्रवेश करने से इसे मकरैणी कहा जाता है. मान्यताओं के अनुसार 14 को तवाणी (गरम पानी का स्नान) और 15 को शिवाणी (ठंडे पानी का स्नान) किया जाता है.
इसके अलावा घरों में पूड़ी, खीर, हलवा घुघुते-खजूरे बनाए जाते हैं. बच्चों को यह व्यंजन बहुत प्रिय हैं. उनका इस पर्व से जुड़ाव इस तरह है कि बच्चे घुघुत की माला पहनते हैं. मान्यता है कि इससे बच्चों को नजर नहीं लगती है और उनके संकट टल जाते हैं. साथ ही वे पक्षियों को घुघुत खिलाते भी हैं. घुघुत एक मीठा पकवान है. जिसे आटे, गुड़ आदि से मिलाकर तलकर बनाते हैं.
इसे लेकर कुमाऊं में एक गीत भी प्रसिद्ध है
'काले कौवा काले घुघुति माला खा ले'
'लै कौवा भात में कै दे सुनक थात',
'लै कौवा लगड़ में कै दे भैबनों दगड़'.
'लै कौवा बौड़ मेंकै दे सुनौक घ्वड़',
'लै कौवा क्वे मेंकै दे भली भली ज्वे.
उत्तराखंड की धरती पर गढ़वाली और कुमाउंनी परंपरा में घुघुतिया को लेकर कई कहानियां प्रचलित हैं. इनमें सबसे अधिक सुनी जानी वाली कहानी है उस राजा कि जिसके पुत्र के प्राणों की रक्षा कौवौं ने की थी.
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यह है घुघुति की कथा
एक राजा था, जिसकी कोई संतान नहीं थी तो मंत्री हर वक्त इस षड्यंत्र में रहता था कि राजा के बाद राज्य उसे मिल जाए. लेकिन एक संत के आशीर्वाद से राजा को एक पुत्र की प्राप्ति हुई. प्रसन्न होकर रानी मां बेटे को एक माला पहना दी. युवराज थोड़ा बड़ा हुआ और खेलने-कूदने लगा. उसे ये माला बहुत प्रिय थी. रानी अपने बेटे को प्यार से घुघुतिया कहकर बुलाती थी. जब राजकुमार शैतानी करता तो वह कहती कि तंग मत कर नहीं तो तेरी माला कौवे को दे दूंगी.
फिर वह कहने लगती, काले कौवा काले घुघुति माला खा ले. यह सुनकर बहुत से कौवे आ जाते थे. रानी मां उनके लिए भी रोटी और दाने डाल देती. धीरे-धीरे वे कौवे राजकुमार के मित्र बन गए. क्योंकि अक्सर उनके साथ वह खाने-खेलने लगा था. उधर मंत्री का षड्यंत्र जारी था. एक दिन उसने राजकुमार का अपहरण कर लिया. जब मंत्री के साथी राजकुमार को लेकर जंगल जा रहे थे तो उसके रोने का आवाज सुनकर बहुत से कौवे आ गए. उन्होंने उसकी घुघती माला पहचान ली और गले से झपट कर उड़ गए.
कौवों ने बचाई राजकुमार की जान
उड़ते हुए कौवे सीधे राजा-रानी के पास पहुंचे और इधर-उधर मंडराने लगे. तबतक रानी को पता चला कि राजकुमार आंगन में नहीं है. राजा की नजर राजकुमार के गले में पड़ी माला पर पड़ी. उन्हें कुछ अंदेशा हुआ तो सैनिकों को कौवों का पीछा करने का आदेश दिया. उड़ते हुए कौवे जंगल में उसी स्थान पर पहुंचे जहां मंत्री के आदमियों ने राजकुमार को बांध कर रखा हुआ था.
सैनिकों ने राजकुमार को पाकर उसे सुरक्षा दी और उन अपहरण करने वालों को पकड़ लिया. राजदरबार में मंत्री की सारी पोल खुल गई. उधर रानी की जान में जान आई. उसने कहा कि अगर आज ये माला नहीं होती और कौवे से राजकुमार की मित्रता नहीं होती तो जरूर अनिष्ट हो जाता.
तभी से उत्तराखंड में घुघुती माला बनाए जाने की पंरपरा चल पड़ी. बच्चों घुघुती की बनी माला गले में डाल लेते हैं और कौवों को बुलाते हैं. काले कौवा काले घुघुति माला खा ले. उत्तराखंड की वादियों में ये आवाज आज भी गूंज रही है.
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