संकल्प की शक्ति से बंधे हैं रक्षासूत्रों के धागे

रक्षा का यह पवित्र बंधन आज भी अपनी पवित्रता और सार्थकता को समेटे हुए हमारी कलाई में बंधा है. सावन भीगते माह की आखिरी दिन जब चंद्रदेव आकाश में पूरे खिले होते हैं, यह पर्व भारतीयता की चमक विश्व भर में बिखेर रहा होता है. 

Written by - Vikas Porwal | Last Updated : Aug 2, 2020, 11:56 PM IST
    • राखी के कारण ही बच पाई थी महाराज पुरु से सिकंदर की जान
    • श्रीकृष्ण को द्रौपदी ने बांधा था चीर, तब से रक्षाबंधन को भाई-बहन के पर्व की महत्ता भी मिली
    • गुरु-शिष्य, पुरोहित-यजमान, भक्त-भगवान के बीच भी है रक्षाबंधन के पवित्र धागों का रिश्ता
संकल्प की शक्ति से बंधे हैं रक्षासूत्रों के धागे

नई दिल्लीः सोमवार 3 अगस्त को सारा भारत भाई-बहनों के प्रेम व आत्मीय संबंध के प्रतीक पर्व रक्षा बंधन को मनाएगा. एक सूत्र के जरिए भातृत्व के इस अमिट प्रेम को और अधिक विश्वास मय बनाने वाला यह पर्व भारतीय मनीषा की युगों पुरानी स्वस्थ मानसिकता और बौद्धिक सोच का परिणाम है. 

संकल्प का साक्षी रहा है रक्षासूत्र
आज के परिवेश में भले ही रक्षाबंधन का पर्व भाई-बहन की रक्षा के संकल्प तक सिमट कर रह गया हो, लेकिन प्राचीन वैदिक युग में है यह संकल्प का पर्व था.

जब ऋग्वेद की ऋचाएं प्रकृति के पंचभूतों की आराधना करती थीं उस समय रक्षा सूत्र संकल्प का साक्षी था और इसके बांधने से व्यक्ति संकल्प और व्रत में बंध जाता था.

यह है रक्षाबंधन मंत्र
रक्षासूत्र बांधते समय बोले जाने वाले मंत्र को ध्यान से सुनें तो इस वैदिक ऱीति का अभिप्राय काफी स्पष्ट हो जाता है. 
येन बद्धो बलि राजा, दानवेन्द्रो महाबलः.
तेन त्वां मनुबध्नामि, रक्षंमाचल माचल.

इसका सीधा सा स्पष्ट अर्थ है कि जिस प्रकार दानव राज महा पराक्रमी महाराज बलि को बांधा गया था, ठीक उसी प्रकार हे यजमान में तुम्हें बांधता हूं. हे रक्षा सूत्र तुम चलायमान न होना, स्थिर रहना  और यजमान को स्थिर रखना. 

दानवराज बलि की कथा
दानवराज बलि को केंद्रित करते हुए मंत्र की रचना जिस आधार पर की गई, उसकी कथा वामनवतार से जुड़ी है. बलि ने अपने पराक्रम से तीनों लोकों का राज्य जीत लिया था और अब वह 100 अश्वमेध यज्ञ कर रहा था. दुर्वासा ऋषि उसे अजेय बनाने के लिए इस यज्ञ का अनुष्ठान करा रहे थे. देवगणों के अनुरोध भगवान विष्णु वामन अवतार लेकर बलि के द्वार पहुंचे और भिक्षा मांगी. 

ऋषि दुर्वासा को इस प्रक्रम में रुकावट बनने की आशंका देख, वामन प्रभु ने बलि से त्रिवाचा कराया और जल संकल्प लेकर हाथ में संकल्प सूत्र यानी की रक्षा सूत्र बांध दिया. रक्षा सूत्र धर्म मार्ग पर चलने वालों के धर्म को और दृढ़ करता है. यह भारतीय मनीषा की विशेषता है कि वह जब किसी को अपना ईष्ट मान लेता है तो उस ओर से मुंह नहीं फेरता. संकल्प में बंधे महाराज बलि ने सहर्ष वामन प्रभु को तीन पग भूमि प्रदान कर दी. 

उसी संकल्प शक्ति का यह पर्व आज भाई-बहनों तक सिमट गया है, जहां बहन भाई की कलाई में राखी बांधती है और रक्षा का वचन लेती है. 

श्रावणी उपकर्म नाम भी है प्रचलित
प्राचीन काल में यह पर्व श्रावणी नाम से भी जाना जाता रहा है. इसका अनुष्ठान ब्राह्मण वर्ग में आज भी होता दिखता है. श्रावणी उपाकर्म वैदिक ब्राह्मणों को वर्ष भर में आत्मशुद्धि का अवसर प्रदान करता है. वैदिक परंपरा अनुसार वेदपाठी ब्राह्मणों के लिए श्रावण मास की पूर्णिमा सबसे बड़ा त्योहार है.

इस दिन यजमानों के लिए कर्मकांड यज्ञ, हवन आदि करने की जगह खुद अपनी आत्मशुद्धि के लिए अभिषेक और हवन किए जाते हैं. 

वृत्तासुर की कथा भी है इससे संबंधित
वैदिक काल में एक और कथा आती है कि देवी शचि ने देवराज इंद्र को रक्षा सूत्र के रक्षाकवच में बांधा था. वह वृत्तासुर से युद्ध लड़ने जा रहे थे. असुर ने देवराज को भस्म करने और स्वर्ग पर आक्रमण का संकल्प ठान रखा था,

लेकिन मां पार्वती की कृपा स्वरूप बांधे गए रक्षासूत्र के प्रभाव से देवराज की रक्षा हो सकी और वृत्तासुर महर्षि दधिची की अस्थियों से बने वज्र से मारा गया.

जब द्रौपदी ने बांधा श्रीकृष्ण को चीर
यह एक और उदाहरण है कि रक्षाबंधन केवल भाई-बहनों के लिए प्रसिद्ध त्योहार हमेशा से नहीं था. हालांकि कालांतर में श्रीराम और श्रीकृष्ण की लीला-कथाओं से अनेक त्योहारों के मर्म बदले हैं और लोक में उनके सहज प्रभाव के कारण आज तक उसी रूप में मनाए जाते हैं.

श्रीकृष्ण की उंगली में लगी चोट पर द्रौपदी ने अपना चीर फाड़ कर बांधा था, तब श्रीकृष्ण ने संकल्प सुनाया था कि इस ऋण का भुगतान कई गुणा बढ़ाकर करूंगा. द्रौपदी की शील रक्षा और महाभारत युद्ध का परिणाम इसी की परिणिति है. 

राखी ने बचाए सिकंदर के प्राण
इतिहास में और आगे बढ़ आएं तो आज के पंजाब और तब के पौरव सम्राट महाराज पुरु की कथा भी लिखित है. कहते हैं कि सिकंदर जब भारत पर आक्रमण के लिए बढ़ रहा था, तो पुरु ने उसे पहले-पहल पीछे धकेल दिया था, लेकिन सिकंदर ने हार नहीं मानी और दोबारा आक्रमण किया.

उसकी पत्नी पुरु की ताकत को समझ चुकी थी इसलिए उसने पुरु को भारतीय परंपरा के अनुसार राखी बांध दी थी. लिहाजा ऐसे कई मौके आए जब सिकंदर के प्राण पुरु के भाले की नोंक पर थे, लेकिन हर बार पुरु ने उसे जीवित छोड़ दिया. 

समय बीतता गया, इतिहास गढ़ा जाता गया, लेकिन रक्षा का यह पवित्र बंधन आज भी अपनी पवित्रता और सार्थकता को समेटे हुए हमारी कलाई में बंधा है. सावन भीगते माह की आखिरी दिन जब चंद्रदेव आकाश में पूरे खिले होते हैं, यह पर्व भारतीयता की चमक विश्व भर में बिखेर रहा होता है. रक्षाबंधन की शुभकामनाएं. 

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