जंगे ब्रद्र से फ़तहे मक्का तक पैग़म्बरे आज़म की ढाल बनकर खड़े रहे इमाम अली
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जंगे ब्रद्र से फ़तहे मक्का तक पैग़म्बरे आज़म की ढाल बनकर खड़े रहे इमाम अली

जिन हालात में इमामे आली मक़ाम ने उम्मत की बागडोर संभाली वो निहायत की पुर आशोब था. अपने 4 साल की अहदे ख़िलाफ़त में जो निज़ाम क़ायम किया वो अदल, इंसाफ़, अम्न, इम्तिमान और तहफ़्फ़ुज़ से भरा हुआ था.

Hazrat Ali

सैय्यद अब्बास मेहदी: दुनिया में बेशुमार इंसान पैदा हुए,  कुछ इंसानों में कोई कमाल या ख़ूबी नहीं और कुछ ऐसे जो चंद ख़ूबियां रखते थे. मगर आज हमने जिसके लिए क़लम उठाया है वो तमाम कमालात का मज़हर है. वो बहुत सी ख़ूबियों का मालिक है. वो शेरे ख़ुदा भी है और दामादे मुस्तफ़ा भी, हैदरे कर्रार भी और साहबे ज़ुल्फ़िक़ार भी, हज़रते फ़ात्मा ज़हरा के शौहरे नामदार भी और हसनैन अलैहिमुस्सलाम के वालिदे बुज़ुर्ग भी, साहबे सख़ावत भी और साहबे शुजाअत भी, इबादत व रियाज़त वाले भी और फ़साहत व बलाग़त वाले भी, फ़ातहे ख़ैबर भी और मैदाने ख़िताबत के शहसवार भी, इल्म वाले भी और हिकमत वाले भी. तारीख़ ने इस अज़ीम शख़्सियत को अली लिखा.

13 रजब 30 आमुल फ़ील को काबे में पैदा होने वाले अली अहैहिस्सलाम ने पैग़म्बरे आज़म की गोद में आखें खोली और आप की ही आग़ोश में परवरिश पाई. दावते इस्लाम पर सबसे पहले लब्बैक की सदा हज़रत अली इब्ने अबी तालिब ने ही बलंद की. हिजरत की रात चारो तरफ़ से दुश्मनों में घिरे होने के बावजूद पैगम्बरे अकरम के बिस्तर पर सुकून की नींद सोए. क्या कमाल की और सादा ज़िदंगी गुज़ार दी अली इब्ने अबी तालिब ने, शहानी पोशक के बजाए पैवंदार पैराहन, ताजे सरवरी के मुक़ाबले बोसीदा अम्मामा, मसनदे शाही की जगह ख़ाक पर बैठना पसंद किया.

पैग़म्बरे आख़िरुज़्ज़मां की गोद में आंखे खोलने वाले हज़रत अली इब्ने अबी तालिब शाना ब शाना आप के साथ खड़े रहे. मुशीरों की मजलिसों में, तालीम व इरशाद के मजमों में, कुफ़्फ़ार व मुशरकीन के मुबाहिसों में, माबूदे हक़ीक़ी की यादों और इबादतों में, हर जगह अली साथ-साथ रहे. मक्के से मदीने की हिजरत, मदीने की ज़िंदगी और फिर वापस मक्का, यानी जंगे बद्र से लेकर फ़तहे मक्का तक अली इब्ने अबी तालिब पैग़म्बरे आज़म की ढाल बन कर रहे.  

वो नूर लाओ जो नूरे जली से ऊंचा हो
शरफ़ किसी का ख़ुदा के वली से ऊंचा हो
तू जंगे बद्र से चल और फ़त्हे मक्का तक
किसी का सर तो दिखा जो अली ऊंचा हो

तीसरे ख़लीफ़ा के मरने के बाद आलमे इस्लाम के हालात इतने बिगड़ चुके थे कि लोग अपने आबाओ अजदाद के दीन पर वापस जाने की बात कहने लगे, इन हालात में अंसार और मुहाजरीन के बुज़ुर्ग जमा होकर आप के पास तशरीफ़ लाए और ख़िलाफ़त क़ुबूल करने की पेशकश की. जिन हालात में इमामे आली मक़ाम ने उम्मत की बागडोर संभाली वो निहायत की पुर आशोब था. अपने 4 साल की अहदे ख़िलाफ़त में जो निज़ाम क़ायम किया वो अदल, इंसाफ़, अम्न, इम्तिमान और तहफ़्फ़ुज़ से भरा हुआ था.अपने गवर्नरों की तक़र्रुरी करते वक़्त आपने बहुत सी हिदायतें दीं, हालाते हाज़रा में उनकी एक हिदायत बहुत मौज़ू है जिसका ज़िक्र ज़रुरी है. 

आपने फ़रमाया देखो तुम्हारी अहदे हुकूमत में दो तरह के लोग होंगे एक वो जो तुम्हारे मज़हबी भाई हैं और एक वो जो तुम्हारे समाजी भाई हैं. लेकिन फ़ैसला लेते वक़्त अदल व इंसाफ़ से काम लेना कहीं ऐसा न हो कि तुम्हारे फ़ैसले पर तुम्हारे मज़हबी जज़्बात भारी पड़ जाएं. लेकिन 19 रमज़ान सन 40 हिजरी को नमाज़े सुबह की पहली रकत के पहले सजदे में इब्ने मुल्जिम नामी दहशतगर्द के हमले में शदीद ज़ख़्मी हो गए. ज़ख़्म इतना बढ़ा की 21 रमज़ान को आप की शाहदत वाक़े हुई.

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