Muslim Castes in India: इस्लाम धर्म में उंच-नीच, गरीब-अमीर, गोरे-काले सहित इंसानों के बीच हर स्तर पर होते भेदभाव को समाप्त करने की बात कही गई है, लेकिन इसके बावजूद भारत के मुसलमानों में जातिगत भेदभाव कूट-कूट कर भरा हुआ है.
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नई दिल्ली: बिहार सरकार द्वारा जातिगत जनगणना की मंजूरी के साथ ही देश में एक बार फिर जाति व्यवस्था और जातिगत जनगणना के औचित्य को लेकर विमर्श शुरू हो गया है. देश की दो बड़ी आबादी हिंदू और मुसलमान जातियों में बंटी है. यह भारतीय सामाजिक व्यवस्था का आधारभूत हिस्सा है. हालांकि हिंदू धर्म की तरह इस्लाम में धार्मिक आधार पर यह विभाजन नहीं है, लेकिन सच्चाई यही है कि भारत के मुसलमान भी हिंदुओं की तरह घोर जातिवादी हैं. अगर हम बिहार के संदर्भ में बात करें तो यहां सरकार ने मुसलमानों में 100 से ज्यादा जातियों को चिन्हित किया है, जिसमें अशराफ यानी उच्च वर्ग के मुसलमानों की आबादी मात्र 8.87 फिसदी है, जबकि मुसलमानों की शेष आबादी पसमांदा मुसलमान यानी पिछड़ों की है. कमोबेश यही हालत पूरे देश के मुसलमानों की है और उन सभी के बीच बड़े पैमाने पर सामाजिक विभाजन है.
मुसलमानों में जातीय वर्गीकरण
भारतीय मुसलमान भी हिंदुओं की तरह कई जातियों और उपजातियों में बंटा हुआ है. हिंदुओं में जैसे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण होते हैं, वैसे ही मुसलमानों में अशराफ यानी अगड़ी जाति़, अजलाफ़ यानी पिछड़ी जाति और अरज़ाल यानी अत्यंत पिछड़ी जातियां होती है. हालांकि इनका आधार धार्मिक न होकर सामाजिक है. अगड़ी जाति के मुसलमानों में शेख, सैयद, मुगल, मिर्ज़ा, पठान और मलिक आदि होते हैं. पिछड़ी जातियों में जुलाहा, दरजी, नाई या हज्जाम, तेली, कसाब, गद्दी, कुंजरा, मिरासी, फकीर आदि शामिल हैं. मुसलमानों में दूसरा वर्ग है पिछड़ी जातियों का, जिसे अजलाफ़ भी कहा जाता है. इसमें उच्च और अत्यंत पिछड़ी जातियों के बीच की श्रेणी शामिल है. इनकी एक बड़ी संख्या है, जिनमें ख़ास तौर पर अंसारी, मंसूरी, राइन, क़ुरैशी जैसी कई जातियां शामिल हैं. तीसरा वर्ग अरज़ाल का जो अत्यंत पिछड़ी जातियां है, इसमें हलालख़ोर, मिरासी, हवारी, रज़्ज़ाक जैसी जातियां शामिल हैं. मुसलमानों में भी जातियों का विभाजन उनके काम के आधार पर किया गया है. अरजाल मुसलमानों की सामाजिक हैसियत अनुसूचित जाति के हिंदुओं से भी खराब है.
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हर स्तर पर होता है भेदभाव
पसमांदा मुसलमानों के हक के लिए आंदोलन चलाने वाले पटना यूनिवर्सिटी के प्रो. फिरोज मंसूरी कहते हैं, ’’मुसलमानों में जाति व्यवस्था का कोई धार्मिक आधार नहीं है, लेकिन इसके बावजूद हर जगह जात-पात चलता है. यहां शादी-ब्याह अपनी ही जाति में की जाती है. यहां तक कि दूसरी जातियों के लड़के-लड़की से प्रेम और प्रेम विवाह के उदाहरण भी कम ही देखने को मिलते हैं. कई गांवों में अगड़े और पिछड़े मुसलमानों की अलग-अलग मस्जिदें होती है. कई जगह उनके कब्रिस्तान तक अलग होते हैं. एक ही गांव में पिछड़े मुसलमान और अशराफ मुसलमानों के मोहल्ले अलग होते हैं. सभी अपनी-अपनी बिरादरी वाले इलाके में घर बनाना या खरीदना पसंद करते हैं. अगड़ी जाति के मुसलमान अपने धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक और शैक्षणिक संगठनों, संस्थाओं और समितियों में पिछड़े मुसलमानों को जगह नहीं देते हैं. यहां तक कि पिछड़े मुस्लिम उम्मीदवार को वोट करने से भी परहेज करते हैं. राज्यसभा के पूर्व सांसद और पसमांदा मुस्लिम आंदोलन के नेता अली अनवर अंसारी यहां तक कहते हैं कि अशराफ मुस्लिम नेताओं ने कभी भी पसमांदा मुसलमानों के कल्याण के लिए कोई काम नहीं किया. एक साजिश के तहत ऐसे नेताओं ने पसमांदा मुसलमानों को अनपढ़ और कमजोर बनाए रखा ताकि अकेले उनकी दुकानदारी हमेशा के लिए चलती रहे.
सामाजिक स्तर पर पिछड़े मुसलमानों को सहना पड़ता है अपमान
समाजशास्त्र के प्रोफेसर डॉ. सोहेल अख्तर कहते हैं,; ’’रोजमर्रा की जिंदगी में भी पिछड़ी जाति के मुसलमान अशराफ मुसलमानों से भेदभाव और अपमानजनक टिप्पणियों को झेलते हैं. यहां बदजात शब्द वैसा ही है जैसे हिंदुओं में शूद्र होता हैं. अक्सर निम्न जाति के लोगों बदजात कहकर संबोधित किया जाता है. यहां जुलाहा (बुनकर) विशेष रूप से अगड़ी जातियों द्वारा उपहास का पात्र रहे हैं. बिहार में कई लोगों द्वारा जुलाहा के बारे में इस्तेमाल किया जाने वाला एक प्रसिद्ध कहावत है ’खेत खाय गदहा मार खाए जुलहा’ यानी ’करे कोई और भरे कोई’. अधिकांश अगड़ी जातियाँ पिछड़ी जाति के लिए उचित शब्द का प्रयोग नहीं करती हैं. अशराफ मुसलमान पिछड़े मुसलमानों को अभिवादन यानी सलाम नहीं करते हैं. कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो पिछड़े मुसलमानों द्वारा सलाम न करने पर अपनी नाराजगी भी प्रकट करते हैं. जातिगत भेदभाव का स्तर इतना है कि निम्न जाति के मुसलमान ऊंचे पद पर पहुंचने के बाद शर्म से अपने नाम का टाइटल तक बदल लेते हैं.’’ सोहेल अख्तर कहते हैं, यह एक ऐसा सवाल है, जिसपर धार्मिक नेता और मौलाना भी बात नहीं करना चाहते हैं. उनकी तकरीरें सिर्फ स्वर्ग-नरक और बरेलवी-देवबंदी के इर्द- गिर्द ही सिमट कर रह जाती हैं. वह इस सामाजिक भेदभाव के खिलाफ कोई मुहिम नहीं छेड़ते हैं.’’
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सत्ता में भागिदारी से बदलेगी तस्वीर
दलित मुस्लिम समाज के संयोजक डॉ. अययूब राईन कहते हैं, "बिहार में जातिगत जनगणना से सबसे ज्यादा फायदा पिछड़े मुसलमानों को होगा. मुसललमानों में बहुत सी ऐसी जातियां हैं जिनके पास सरकार के पास भी कोई ठोस आंकड़ा नहीं है. इनकी पहचान होने के बाद इनके लिए नीतियां बनाई जा सकती है. अभी पिछड़े मुसलमानों को जो सरकारी लाभ मिल रहे हैं, उनका फायदा मुट्ठी भर पिछड़े मुसलमानों को ही मिल रहा है. राजनीतिक दल भी मुसलमान के नाम पर सिर्फ अगड़ी जातियों को टिकट देती हैं, जबतक सत्ता में भागिदारी नहीं मिलेगी पिछड़ी जातियों का सामाजिक कलंक नहीं मिटेगा.’’
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